भारत से भागा हुआ हुमायूं परिस्थितिवश पुन: लौट आया
राकेश कुमार आर्य
हुमायूं के प्रति हमारे शासकों का प्रमाद प्रदर्शन
यह हमारी दुर्बलता या ‘सदगुण विकृति’ का ही एक उदाहरण है कि जब हुमायूं इस देश से उसी के मजहबी भाइयों के द्वारा निकाल दिया गया था और वह इधर-उधर भटक-भटक कर समय व्यतीत कर रहा था, तो उस समय उसे हमारी ओर से समाप्त करने का प्रयास नही किया गया। राज्यविहीन होते ही हुमायूं को शक्तिविहीन मान लिया गया। हमारे शासकों ने मान लिया कि अब तो हुमायूं और उसका परिवार भारत से सदा-सदा के लिए चला गया है, इसलिए अब उस पराजित और पलायनकत्र्ता शासक से किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने की आवश्यकता नही है और ना ही उसका प्रतिरोध करने की आवश्यकता है।
राजा मालदेव की भूल
इसलिए हुमायूं को जीवित ही देश से निकल जाने दिया गया। इतना ही नही, जब उसने अपने दुर्दिनों में जोधपुर के राजा मालदेव से शरण मांगी तो उसने शरण देना भी स्वीकार कर लिया। राजा मालदेव ने शरणागत को शरण देने की ‘सदगुण विकृति’ का पालन करते हुए विदेशी आततायी शासक को शरण देने की उसकी याचना को स्वीकार कर लिया। यह एक अलग बात है कि हुमायूं को अपनी त्रुटि का शीघ्र ही ज्ञान हो गया और उसने इस भय से कि कहीं हिंदू राजा मालदेव तुझे शेरशाह को न सौंप दे, राजा मालदेव के यहां जाना उचित नही माना।
रेगिस्तान में भटकता रहा हुमायूं
राम मंदिर के विध्वंसक बाबर का यह पुत्र मानो अपने पिता के पापों का प्रायश्चित करता हुआ रेगिस्तान में इधर-उधर भटकता रहा। उसे प्रतीक्षा थी कि शेरशाह एक न एक दिन किसी न किसी प्रकार सत्ता से या तो हटा दिया जाएगा या उसे कोई हिंदू शासक या हिंदू शासकों का संघ मृत्यु के घाट उतार देगा। यदि शेरशाह के लिए ऐसा कोई अवसर भविष्य में आता है तो ऐसे अवसर को हुमायूं अपने लिए वरदान मानता था, क्योंकि उस अवसर के आते ही उसके स्वयं के पुन: सत्तासीन होने की प्रबल संभावना थी।
अमरकोट के राणा ने दी शरण
राजा मालदेव तो हुमायूं को शरणागत नही बना पाया, परंतु अमरकोट के शासक राणा प्रसाद ने उसे अपना अतिथि अवश्य बना लिया।
इस हिंदू शासक के पिता को थट्टा के यवन शासक ने मार डाला था। उसे अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध थट्टा के यवन शासक से लेना था और हुमायूं को अपने पिता के द्वारा स्थापित राज्य की पुन: प्राप्ति करनी थी, अत: इन दोनों के अपने-अपने स्वार्थ थे, जिन्होंने उन्हें एक दूसरे का मित्र बना दिया था। यद्यपि यह मैत्री भाव स्वार्थों पर आधारित था, परंतु एक बार तो हुमायूं को ऐसा अनुभव हो ही गया कि भारत में उसके लिए कहीं न कहीं टिकने की संभावनाएं भी हैं।
डूबते को तिनके का सहारा
बहते हुए या डूबते हुए व्यक्ति को तिनके का भी सहारा मिल जाना पर्याप्त होता है। ऐसी ही विषम परिस्थितियों से जूझते हुए ‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ व्यक्ति को यदि कहीं तनिक सी देर के लिए भी सुखपूर्वक सोचने-विचारने का अवसर मिल जाए तो वह कुछ संभल जाता है।
घोर अंधड़ में व्यक्ति जब आंखें नही खोल पाता है, तब पलक झपकते-झपकते वह दौड़ता भी है और अपने बचने के लिए रास्ता भी देखता है। जैसे-तैसे वह उन क्षणों में आंखें खोल पाता है पर देखा गया है कि अंत में वह स्वयं को बचा ही लेता है। यही स्थिति हुमायूं की थी। उसे राणा प्रसाद ने ‘डूबते हुए को तिनके का सहारा’ दे दिया और वह आंखें खोलकर कुछ सोचने-समझने की स्थिति में आ गया। यद्यपि उसके सुदिनों का सूर्योदय होना तो अभी दूर था, परंतु उसे तात्कालिक आधार पर सुखानुभूति अवश्य हो गयी।
राजा मालदेव के शूरवीरों ने किया हुमायूं का पीछा
राजा मालदेव को संभवत: राणा प्रसाद के यहां आतिथ्य भोग रहे हुमायूं का कृत्य अच्छा नही लगा, अथवा यह भी हो सकता है कि राजा मालदेव (जैसी कि हुमायूं को आशंका थी) हुमायूं से मन से ही घृणा करता था, और वह उसे भारत से बाहर ही निकाल देना चाहता था।
कारण कुछ भी हो, पर एक तथ्य है कि राजा के दो शूरवीरों ने हुमायूं का पीछा किया था। हुमायूं जोधपुर की सीमा से अमरकोट की ओर भागने में सफल हो गया। ‘तबकाते अकबरी’ के लेखक निजामुद्दीन के आधार पर ‘इलियट एण्ड डाउसन’ का कहना है-
‘‘हिंदू जो ‘गुप्तचर’ के रूप में उसके पीछे थे उसके हाथ पड़ गये और उसके सामने लाये गये। उनसे प्रश्न किये गये, और आदेश दिया गया कि ठीक तथ्यों का पता लगाने के लिए उनमें से एक को मृत्युदण्ड दिया जाए। दोनों बंदी छूट गये तथा दो समीप खड़े हुए लोगों से चाकू तथा कटार लेकर उन लोगों पर टूट पड़े। उन्होंने सत्रह पुरूषों-स्त्रियों तथा घोड़ों की हत्या कर दी तब कहीं वे पकड़ में आये और उनकी हत्या कर दी गयी। सम्राट का निजी घोड़ा भी मार दिया गया था। उसके पास दूसरा घोड़ा भी नही था।’’
हुमायूं का सौभाग्य था यह
हिंदू वीरों की कटार (साहसी स्वभाव) हुमायूं के अत्यंत निकट से उसकी मृत्यु बनकर निकल गयी। हुमायूं सौभाग्य से बच गया। यदि राजा मालदेव के लोग अपनी योजना में सफल हो गये होते तो बाबर भारत के इतिहास में मात्र एक लुटेरा आक्रांता माना जाता और उसका काल भारत के हिंदू वीरों की वीरता के कोहरे के धुंधलके में वैसे ही कहीं खो जाता जैसे शेरशाह सूरी और उसके वंशजों के 16-17 वर्षों को मुगलवंश के कोहरे के धुंधलके ने लगभग पूर्णत: ढंककर रख दिया है। हर इतिहासकार जब मुगलवंश की कालगणना करता है तो 1526 ई. से 1857 ई. तक सीधा गुणा भाग कर डालता है। इसमें शेरशाह सूरी और उसके वंशजों के काल को भी जोड़ दिया जाता है जो कि नितांत त्रुटिपूर्ण है।
यह भी एक संयोग ही था
राणा प्रसाद ने जिस हुमायूं को अपने यहां शरण दी थी उसी का पुत्र अकबर था। अकबर के विषय में तो यह उचित और आवश्यक है कि जब हुमायूं अपने जीवन के कठिनतम कालचक्र से निकल रहा था और उसे अपने भविष्य की अनिश्चितता स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी तब उसी समय अमरकोट के शासक राणा प्रसाद के राजभवन में ही हमीदाबानो बेगम के गर्भ से अकबर का जन्म हुआ था। हुमायूं उस समय सोच तो रहा था कंधार की ओर भागने के विषय में पर पुत्र के उत्पन्न होने से उसे अभी कुछ समय और रूकना पड़ गया।
हिंदुस्थान के भावी बादशाह का निर्णय
इस प्रकार हिंदुस्थान के भविष्य का निर्णय एक हिंदू शासक राणा प्रसाद के राजभवन में हो गया कि हिंदुस्थान पर शासन राणा प्रसाद या उसका कोई जातीय हिंदू भाई नही करेगा, अपितु जिस बच्चे ने आज (15 अक्टूबर 1542 ई.) आंखें खोली हैं, वही हिंदस्थान का बादशाह होगा। जिस समय यह संयोग बन रहा था बहुत संभव है कि उस समय तो राणा प्रसाद ने भी कल्पना नही की होगी कि इस बच्चे के साथ हिंदुस्थान का भविष्य किस प्रकार जुड़ा है?
हुमायूं के दिन लौटने लगे
अपने पुत्र अकबर के जन्मोपरांत हुमायूं किसी प्रकार फारस पहुंचने में सफल हो गया। फारस के शासक को कंधार की आवश्यकता थी और कंधार पर हुमायूं के भाई असकरी का शासन था। इसलिए ईरान के शाह ने राज्य और शक्तिविहीन हुमायूं का भव्य स्वागत किया। वह आये हुए ‘अतिथि’ को राणा प्रसाद की भांति ‘माल पुए’ खिलाकर रखने वाला नही था, अपितु उसने हुमायूं को प्रसन्न करते हुए 14000 की एक सेना इस शर्त पर दे दी कि वह कंधार जीतकर शाह को देगा, तथा जीतने के पश्चात सुन्नी संप्रदाय को त्यागकर शिया संप्रदाय में विश्वास (ईमान) लाएगा।
हुमायूं ने शाह की इन दोनों शर्तों को स्वीकार करते हुए ‘निजबुधं’ पर ही आक्रमण कर दिया। संभवत: राजनीति को इसलिए लोग अविश्वसनीय और घृणित ‘व्यवसाय’ मानते हैं कि ये अपनों को ही पराया बना डालती है, या मित्र को ही शत्रु बना देती है।
हुमायूं ने किया ‘निजबंधु द्रोह’ सौंप दिया
हुमायूं ने ‘निजबंधु द्रोह’ किया और कंधार जीतकर ईरान के शाह को सौंप दिया। पर इसके पश्चात उसे ज्ञात हुआ कि कंधार ईरान के शाह को सौंपकर तो वह भारी भूल कर चुका है। इसलिए उसने पुन: कंधार पर आक्रमण कर उसे बिना किसी विरोध के ईरान के शाह से पुन: अपने नियंत्रण में ले लिया। यह घटना 1545 ई. की है। इसी वर्ष संयोग से शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गयी थी। इस प्रकार हुमायूं का पुन: उत्थान और सूरवंश का पतन लगभग एक साथ ही प्रारंभ हुए।
कंधार आ गया हुमायूं के पास
कंधार के शासक असकरी से कंधार अंतत: हुमायूं के पास आ गया। अब बारी काबुल की थी, इसलिए हुमायूं ने अपने भाई कामरान से काबुल छीनने की योजनाएं बनानी आरंभ कर दीं। अंत में एक दिन आ ही गया कि जब हुमायूं अपने लक्ष्य में सफल हो गया। उसे काबुल पर अपना अधिकार स्थापित करने का अवसर मिल गया। 15 नवंबर 1545 ई. को उसने यह सफलता प्राप्त की।
फोड़ दीं भाई की आंखें
इस घटना के पश्चात कामरान गजनी भाग गया। आगे चलकर कामरान को जब हुमायूं ने गिरफ्तार कराने में सफलता प्राप्त कर ली तो उसकी आंखें फोडक़र किले से बाहर कर दिया। अंधा, असहाय और दुखी कामरान मक्का में जाकर कुछ समय पश्चात मर गया।
हुमायूं बढ़ा बल्ख की ओर
हुमायूं का भाग्य अब परिवर्तन लेने लगा था, दूसरों से पराजित हुमायूं अपनों को पराजित करने का और दिन पर दिन अपना साम्राज्य विस्तार करने लगा। भारत के हृदय दिल्ली में पिटा हुआ हुमायूं दिल्ली से दूर अपना साम्राज्य विस्तार करता जा रहा था। अभी उसके लिए ‘दिल्ली दूर’ थी।
1548 ई. में हुमायूं बल्ख की ओर बढ़ा। उसके भाई कामरान को गक्खर जाति के हिंदू वीरों ने पकडक़र बादशाह को सौंप दिया। जिससे हुमायूं को अपने ही भाई के साथ क्रूरता के प्रदर्शन का अवसर उपलब्ध हो गया।
भारत की परिस्थितियों में भी आया परिवर्तन
समय का परिवर्तन अब हुमायूं के अनुकूल होने लगा था। उसे काबुल-कंधार और बल्ख जैसे नगर तो मिल ही गये साथ ही भारत की राजनीति भी अब उसके अनुकूल हो चली। यहां शेरशाह की मृत्यु सन 1545 ई. में हो गयी। शेरशाह की मृत्यु हो जाने से तो हुमायूं प्रसन्न हुआ ही साथ ही शेरशाह के अयोग्य उत्तराधिकारियों के होने से तो हुमायूं को मानो प्राण ऊर्जा ही मिल गयी।
फलस्वरूप हुमायूं को भारत में अपने राज्य के पुन: स्थापित होने की संभावनाएं बलवती होती दिखने लगीं। शेरशाह की मृत्यु के पश्चात सूरवंश फूट और विखण्डन से ग्रसित हो गया। शेरशाह के उत्तराधिकारी सलीमशाह का शीघ्र ही देहांत हो गया।
ऐसी अनुकूल परिस्थितियों ने हुमायूं को अपने पिता जहीरूद्दीन बाबर द्वारा स्थापित किये गये साम्राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया।
साम्राज्य होने के लिए आवश्यक शर्तें
हम यहां पर यह भी स्पष्ट करना उचित समझते हैं कि जब कोई विदेशी शासक किसी देश में 2-4 वर्ष शासन करके मर जाता है (जैसा कि बाबर के साथ हुआ था) और उसके पश्चात उसका साम्राज्य शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो जाता है तो उसके द्वारा विजित प्रदेशों को ‘विजित प्रदेश’ मानकर भी ऐसे साम्राज्य को साम्राज्य नही कहा जा सकता है।
साम्राज्य के लिए हमारा मानना है कि कुछ शर्तें आवश्यक होनी चाहिए। यथा-ऐसे विजित प्रदेशों पर निरंतर और निर्विघ्न शासन विजेता शासक का चलता रहे और दूसरे इस निरंतर और निर्विघ्न शासनकाल में जनता ने शांतिपूर्वक समय व्यतीत किया हो और उस काल में शासक वर्ग ने जनता के मध्य पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक शासन किया हो। ऐसे शासन की अवधि न्यून से न्यून 25 वर्ष होनी चाहिए।
यदि इस कसौटी पर बाबर के शासन काल को कसकर देखा जाए तो उसको कोई भी इतिहासकार एक भी अंक नही देगा। क्योंकि उसके द्वारा विजित क्षेत्रों में शांति के स्थान पर क्रांति की दुंदुभि बजती रही, जनता अन्यायपूर्ण शासन के विरूद्घ विद्रोही रही और शासक वर्ग की ओर से कोई भी कार्य पक्षपात रहित होकर नही किया गया। अस्तु।
किया भारत के लिए प्रस्थान
हुमायूं ने 1554 ई. में भारत के लिए प्रस्थान किया। 24 फरवरी 1555 को हुमायूं को लाहौर प्राप्त हो गया। अफगान नितांत दुर्बलता ग्रस्त हो गये थे। अपनी योजनाओं को विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग करने के लिए हुमायूं 23 फरवरी 1555 ई. को पुन: दिल्ली में प्रविष्ट हुआ। उसके साथ कई अफगान सरदार आ मिले थे, जबकि अपने भाईयों कामरान, अस्करी, हिंदाल के सरदार लोगों ने भी हुमायूं के साथ रहने में ही अपना भला समझा।
अफगानों की निर्णायक पराजय
हुमायूं को दिल्ली में पुन: प्रविष्ट होने की सफलता सरहिंद के युद्घ से मिली थी। जिसमें अफगानों की निर्णायक पराजय हो गयी थी। इस प्रकार हुमायूं को वह मंच मिल गया जो उसके पिता ने मुगल वंश की स्थापना करके भारत में उसके लिए तैयार किया था। यह अलग बात है कि भारत में अभी भी उसे कई चुनौतियों का सामना करना था।
हुमायूं की एक बड़ी उपलब्धि
हुमायूं को पुन: दिल्ली का राजसिंहासन प्राप्त होना सचमुच उसकी एक बड़ी उपलब्धि थी। इसमें उसका साहस उतना सहायक नही बना जितना तत्कालीन भारत की राजनीतिक परिस्थितियां सहायक बनीं। उस समय भारत में कोई भी ऐसी सार्वभौम सत्ता या प्रमुख शासक नही था, जो हुमायूं के विरूद्घ कोई संघ या मोर्चा बना सकता।
राणा संग्रामसिंह के पश्चात चित्तौड़ अपनी समस्याओं और कलहपूर्ण राजनीतिक परिस्थितियों से जूझ रहा था। जबकि दिल्ली दुर्बल हो चुकी थी। शेरशाह की मृत्यु के पश्चात सूरवंश का सूर्य उतनी ही शीघ्रता से अस्तांचल की ओर बढ़ रहा था जितनी शीघ्रता से उसका उदय हुआ था।
यह सच है कि हुमायूं की दौड़ का शुभारंभ धीमी गति से हुआ, हुमायूं धीमी गति से आगे बढ़ा, धीमी गति से भयभीत होकर देश छोड़ भी गया और धीमी गति से लौट आया। उसमें साम्राज्य विस्तार की क्षमताएं नही थीं और ना ही उसने ऐसा करने का कोई प्रयास किया। वह अपने पिता के द्वारा खड़े किये गये साम्राज्य का ‘रखवाला’ बनकर सिंहासन पर बैठा और यह भी एक कटु सत्य है कि वह उस साम्राज्य की रक्षा नही कर पाया। उसके भाइयों ने भी उसका साथ नही दिया और समय ने भी साथ नही दिया। हां, परिस्थितियों ने कुछ विलंब से ही सही-पर उसका साथ दिया, वह पुन: हिंदूस्थान लौट आया। उसके जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी। यदि हुमायूं के हिंदूस्थान से पलायन करने के काल में राणा संग्रामसिंह जीवित होते तो देश का इतिहास भी कुछ और ही होता।
मुस्लिम शक्तियां और तत्कालीन भारत
भारत के ंिहंदू शासकों की पारस्परिक फूट को भारत की पराजय का कारण मानने वाले लोग तनिक यह भी देखें कि भारत में राजनीतिक कलह और कटुता का घृणात्मक प्रदर्शन दिल्ली के सल्तनत काल से आरंभ हुआ। हुमायूं के आते-आते यह प्रदर्शन और भी गहरा गया था। देश में उस समय जितनी भर भी मुस्लिम शक्तियां (शासक) थीं वे हिंदुओं से भी दयनीय स्थिति में रहकर परस्पर घृणा के भावों से भरी हुई थीं। उनके लिए भी हुमायूं एक शत्रु था। इसका कारण भारत के प्रति देशभक्ति नहीं था, अपितु इसके कारण विशुद्घ राजनीतिक कारण थे। संघर्ष इस बात को लेकर था कि भारत किसका होगा? अफगान इस पर अपना अधिकार जता रहे थे तो मुगल अपना अधिकार मान रहे थे और इसके वास्तविक उत्तराधिकारी अर्थात हिंदू इस समय नेतृत्वविहीनता की स्थिति में थे। हिंदुओं की नेतृत्वविहीनता और अफगानों की शक्ति के क्षीण होने का लाभ हुमायूं को मिल गया और वह संसार से जाने से पूर्व पुन: भारत का शासक (अपने द्वारा विजित क्षेत्रों का) बनने में सफल हो गया। 23 जुलाई 1555 से 21 जनवरी 1556 ई. तक अर्थात मात्र छह माह ही वह अपने दूसरे काल का भारत में उपभोग कर पाया था।
हुमायूं का देहांत
47 वर्ष की अवस्था में सीढिय़ों से लुढक़कर इस जीवन भर लुढक़ते रहने वाले शासक का 21 जनवरी 1556 को देहांत हो गया। पी.एन. ओक महोदय अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान भाग-2’ के पृष्ठ 63 पर हमें बताते हैं-‘‘जनवरी 1556 ई. को सूर्यास्त की बेला में हुमायूं हिंदुओं की एक प्राचीन इमारत की ऊपरी मंजिल पर था। 47 वर्षीय मदिरामत्त हुमायूं के कदम लड़खड़ाये और वह एक सीढ़ी से सिर के बल धड़ाम से नीचे आ गिरा। अचेतावस्था में तीन फर्लांग दूर उसे अपने घर ले जाया गया। जनवरी 21, 1556 ई. को यह कामुक दुष्ट जिसने अधम भाइयों तथा हत्यारे पिता के साथ हिंदूस्थान को अपवित्र किया लूटा तथा नष्ट किया एक हिंदू भवन में मर गया, जिसे उसे अपने लिए निवास हेतु चुना था। हिंदू शक्ति चक्र जिसके ठीक बीचोंबीच उठा हुआ पाषाण पुष्प होता है आज भी तथाकथित हुमायूं के मकबरे तथा पास ही स्थित तथाकथित खानखाना के मकबरे के बाहरी भाग पर देखे जा सकते हैं।’’
क्रमश: