डॉ. वेदप्रताप वैदिक
असमा जहांगीर के आकस्मिक निधन की खबर सुनकर पाकिस्तान ही नहीं, सारे दक्षिण एशिया के देशों में समझदार लोगों को बहुत धक्का लगा है। असमाजी 66 साल की थीं और बहुत सक्रिय थीं। उनसे मेरी मुलाकात 1983 में (बुजुर्ग नेता) डाॅ. मुबशर हुसैन और प्रसिद्ध पत्रकार श्री आई.ए. रहमान ने करवाई थी। उसके बाद भारत और पाकिस्तान में हम दर्जनों बार मिलते रहे। वे भारत-पाक दोस्ती की अलमबरदार थीं। लेकिन उससे भी बड़ा इंसानियत का काम उन्होंने अपने हाथों में ले रखा था। चाहे पाकिस्तान हो या हिंदुस्तान या कोई अन्य पड़ौसी देश, यदि वहां किसी मनुष्य के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो असमा जहांगीर शेरनी की तरह दहाड़ती थीं। वे गरीब से गरीब आदमी के लिए लड़ने को तैयार हो जाती थीं। उन्होंने पाकिस्तान के बलूचों, पख्तूनों, ईसाइयों और हिंदुओं के लिए अपनी अदालतों में कई तूफान उठा दिए थे। अकेली असमा बहन काफी थीं, जनरल जिया-उल-हक और जनरल मुशर्रफ का दम फुलाने के लिए। उन्होंने कानून की पढ़ाई की थी, झूठे मुकदमे लड़ने और पैसे कमाने के लिए नहीं, बल्कि सताए हुए बेजुबान दलितों, पीड़ितों, वंचितों को न्याय दिलाने के लिए ! उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा और नजरबंद रहना पड़ा। वे अदम्य साहस की धनी थीं। मुशर्रफ के खिलाफ चले वकीलों के आंदोलन में उन्होंने जबर्दस्त भूमिका निभाई और मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी का खुला समर्थन किया लेकिन जब (मेरे मित्र) लाहौर के राज्यपाल सलमान तासीर की हत्या हुई और वकीलों ने उसकी तारीफ की तो असमाजी ने इन्हीं वकीलों के खिलाफ ईमान की तलवार खींच ली। उन्होंने फिर से मुख्य न्यायाधीश बने इफ्तिखार चौधरी के लोकतंत्र-विरोधी फैसलों की कटु आलोचना करने में भी संकोच नहीं किया। पाकिस्तान में फौज के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत बड़े-बड़े नेताओं में नहीं होती लेकिन असमा जहांगीर उसके धुर्रे उड़ाने में भी नहीं चूकती थीं। वे सच्ची सत्याग्रही थीं। वे देखने में सुंदर और शालीन थीं। लेकिन उनके हृदय में दुर्गा और भवानी बैठी थी। पाकिस्तान को अपनी इस महान बेटी पर गर्व होना चाहिए। असमा जहांगीर में इतना साहस था, जितना दर्जनों प्रधानमंत्रियों और सेनापतियों में मिलकर नहीं होता। वे पाकिस्तान के ताज में जड़े हुए चमकदार हीरे की तरह थीं। उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !