महान वैज्ञानिक जगदीश चन्‍द्र बसु

-मृत्‍युंजय दीक्षित

भारतीय मान्यता के अनुसार वनस्पति को भी चेतन और प्राणमय बताने वाले तथा अपने अरुसंधान कार्यों द्वारा संसार को आश्चर्यचकित कर देने वाले महान वैज्ञानिक सर जगदीश चंद बसु का जन्म 20 नवम्बर, 1858 को ढाका के विक्रमपुर कस्बे के राढीखाल नाम के गांव में हुआ था। उनके पिता भगवान चन्द बसु फरीदपुर में डिप्टी कलेक्टर थ्रे। उन्होंने अपने पुत्र के अध्ययन में विशेष रूचि ली। जगदीश चंद्र ने कलकत्ता के सेंट जेवियर कॉलेज से बी.ए.की परीक्षा उत्त्ींर्ण की। यहां वे प्रसिध्द शिक्षाशास्त्री व वैज्ञानिक फादर लेफान्ट के सम्पर्क में आये। फादर लेफान्ट के सम्पर्क में आने पर जगदीश चन्द्र की भौतिक विज्ञान में भी रूचि उत्पन्न हुई। बी.ए’ परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे इंग्लैंण्ड गए। जहां उन्होंने चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई प्रारम्भ की जहां स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उन्हें पढ़ाई छोडनी पड़ी। कुछ समय बाद उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वद्यिालय में विशुध्द विज्ञान का अध्ययन प्रारम्भ किया तथा पुनः बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली साथ ही उन्हें छात्रवृत्ति भी प्रदान की गई। अगले वर्ष उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से बी.एस.सी की परीक्षा भी उत्त्ीर्ण कर ली। बसु यहां पर विश्वविख्यात वैज्ञानिकों के सम्पर्क मे आयें । शिक्षा पूरी करके भारत आने पर वे प्रसिध्द प्रेसीडेन्सी कॉलेज में भौतिक विज्ञान के प्रध्यापक के पद पर नियुक्त हो गये।उन दिनों भारत में अंग्रेजी शासन था। रंगभेद की नीति के कारण उन्हें कम वेतन में नियुक्त किया गया। जिसके कारण उनके आत्म सम्मान को चोट पहुंची। अंग्रेज सरकार को उत्तर देने के लिए उन्होंने वेतन का बहिष्कार किया और जिसके कारण उन्हें कठिन आर्थिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।अंत में विश्‍वविद्यालय के अधिकारियों को झुकना पडा और उन्होंने बसु को स्थायी नौकरी प्रदान की। साथ ही पिछले तीन वर्षों का भी भुगतान किया। उनका विवाह श्री दुर्गादास की पुत्री अवला के साथ हुआ।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण उन्हें विज्ञान साधना में काफी अड़चने उठानी पड़ी। कॉलेज द्वार प्रयोगशाला का प्रबंध न किये जाने के कारण उन्होंने घर में ही प्रयोगशाला स्थापित कर ली। 10 वर्षों के अथक प्रयत्नों के बाद कॉलेज में भी एक प्रयोगशाला स्थापित कर दी गई। इस प्रकार उन्होंने साउंड रिकॉर्डिंग और फोटोग्राफी से विज्ञान साधना प्रारंभ की। उन्हीं दिनों विद्युत चुम्बकीय तरंगों का आविष्कार हुआ था और प्रो0 हर्ज ने जो प्रयोग किये उनसे विज्ञान जगत में हलचल मची हुयी थी। बसु का ध्यान भी उस ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने भी इस क्षेत्र में प्रयोग प्रारंभ किए।एकसाल के प्रयोगों के बाद उन्होंने इस विष य पर एक लेखमाला प्रकाशित करवायी जिसमें पहला लेख विद्युत किरण का मणिभ द्वारा धुवन बंगाल की इसियाटिक सोसायटी की पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इन अनवेषणों के महत्व को ब्रिटिश सरकार और संसद ने आंका तथा अनुसंधान कार्य चलाते रहनें के लिए पर्याप्त धन दिया लंदन विश्वविद्यालय ने इन मौलिक कार्यों के लिए उन्हें डी.एस.सी की उपाधि से विभूषि त किया कहा जाता है कि बेतार के तारों का आविष्कार मारकोनी ने किया था ,लेकिन ऐसा नही है। मारकोनी के आविष्कार के कई वर्ष पूर्व 1855 में आचार्य बसु बंगाल के अंग्रेज गवर्नर के सामने अपने आविष्कार का प्रदर्शन कर चुके थे।उन्होंने विद्युत तरंगों से दूसरे कमरे मे घंटी बजाई और बोझ उठवाया और विस्फोट करवाया। आचार्य बसु ने अपने उपकरणों से 5 मिलीली.की तरंग पैदा की जो अब तक मानी गई तरंगों में सबसे छोटी थी। इस प्रकार बेतार के तारों के प्रथम आविश्कारक आचार्य बसु ही थे। बसु ने अपने उपरोक्त आविश्कारों का इंग्लैंड में भी प्रदर्शन किया।इन प्रदर्शनों से अनेक तत्कालीन वैज्ञानिक आष्चर्यचकित हो गये। उपरोक्त प्रयोगों को आधार बनाकर जब नये प्रयोग उन्होंने प्रारम्भ किये तो वे इस निश्कषर् पर पहुंचे कि सभी पदार्थों में जीवन प्रवाहित हो रहा है। अपने प्रयोगों द्वारा उन्होंने यह सिध्द कर दिया कि पेड़ पौधों में भी जीवन का स्पंदन है।अपने निश्कर्शों को उन्होंने एक पुस्तक के रूप में जड और चेतन की संवेदनशीलता नाम से प्रकाशित किया। आचार्य बसु के इन प्रयोगों ने वनस्पति विज्ञान की एक नयी शाखा को जन्म दिया। प्रो0 बसु के अदभुत प्रयोगों से विज्ञान जगत आष्चर्यचकित हो गया। पेरिस में विज्ञान की एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। भारत सरकार ने बसु को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। यहां पर वैज्ञानिक बसु को पूरब का जादूगर की संज्ञा दी गई। इस समय उस प्रदर्शनी मे स्वामी विवेकानंद भी उपस्थित थे। आचार्य बसु को देखकर वे आत्मविभोर हो उठे और बोले -आज एक भारतीय बंगाल का एक प्यारा सपूत वैज्ञानिकों के समूह में सबसे ऊपर है जगदीश चन्द्र बसु की जय हो ,जय हो, जय हो ।

स्वामी जी के द्ददय से निकले यह शब्द आचार्य बसु के लिए आशीर्वचन सिध्द हुए और कडे से कडे विरोधियों को उनके सामने नतमस्तक होना पड़ा।लंदन के सभी समाचारपत्रों में आचार्य बसु के प्रदर्शनों का पूरा विवरण प्रकाशित हुआ। 10 मई, 1901 को इंग्लैंड के ‘रायल सोसायटी’ में जीवधारियों एवं वनस्पतियों के साम्य विशय पर ऐतिहासिक भाषण दिया। उन्होंने पेड़ पौधों से अपना हाल कहलवाने के लिए नए- नए सूक्ष्मग्राही यंत्र तैयार करवाए। यह यंत्र थे आसिलेटिंग रिकॉर्डर कंपाउंड जीवन क्रेस्कोगाफ रेसीनेन्टरेकार्डर मैग्नेटिक क्रेस्कोगाफ। इन यंत्रों की सहायता से पौधों की स्ायुओं में होने वाली उत्तेजना कोपलों मे होने वाली धड़कन वृध्दि की गति अपने आप में अंकित करने में समर्थ हो गये। चौथे पत्र से वनस्पतियों में होने वाले सूक्ष्मकार्यों को दस लाख गुना बढ़ाकर देखना सम्भव हुआ। पाश्चात्य विद्वानों ने ने इन आविष्कारों पर संदेह व्यकत किया। रायल सोसाइटी ने एक समिति गठित की उस समिति ने जांच के बाद इन यंत्रों को सही बताया। इसके बाद सारे विष्व में आचार्य बसु की धूम मच गयी।विरोधियों ने भी उनका लोहा माना। लेकिन डा0 बसु अपनी खोज मे लगातार लगे रहे। 1992 में उन्होंने फोटो सिंथेटिक रिकॉर्डर तैयार किया जिससे वृक्षों कही भोजन करने और पानी पीने की क्रिया करने के बारे में जानकारी उपलब्ध हुई। 1920 में उन्होंने एक ऐसा तंत्र तैयार किया जिसके द्वारा पौधों के काश्ट रन्ध्राेंं में होने वाली अदभुत क्रियाओं का ज्ञान उपलब्ध किया जा सके जो सूक्ष्म अणुनीक्षण यंत्र द्वारा भी संभव न हो सका। लगातार कार्यो व खोजों में व्यस्त रहने के बीच 23 नवम्बर, 1937 को वह दिन भी आ गया जब द्ददयगति रूक जाने से महान वैज्ञानिक बसु भारत मां की चरण रज में मिल गया।

* लेखक स्वतंत्र पत्रकार है।

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