साम्‍यवाद एवं पूंजीवाद का विकल्‍प है एकात्‍म मानवतावाद

-राजीव मिश्र

स्वतंत्रता के उपरांत के अपने आर्थिक इतिहास के खतरनाक दौर में हम पहूंच गए हैं जबकि सारी व्यवस्था ही टूटती हुई दिखायी पड़ रही है। आज भारत एवं संपूर्ण विश्व एक चौराहे पर किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा है उसे मार्ग नहीं दिख रहा है। उसके सामने यह यक्ष प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि वास्तविक प्रगति का मार्ग कौन-सा है और वह उस पर किस प्रकार अपने कदम बढ़ाए। इतना तो अब सब मानने लगे हैं कि मानव ही नहीं संपूर्ण चराचर जगत का सम्यक विकास प्राचीन भारतीय चिंतन के आधार पर ही संभव हैं।

भारत की आजादी के समय विश्व दो ध्रुवी विचारों में बंटा था पूंजीवाद और साम्यवाद। यद्यपि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के जन-नायकों का इस विषय पर कि भारत किस मार्ग पर चले स्पष्ट मत था। वह मत था कि भारत अपने पुरातन जीवन-मूल्यों से युक्त रास्ते पर चले। परंतु इसे विडंबना नहीं तो क्या कहें। देश ऊपर लिखे दोनों विचारों के व्यामोह में फंस कर घड़ी के पेंडुलम की तरह झुलता रहा और आज भी झुल रहा है। आजादी के बाद ही प्रसिध्द चिंतक, राजनीतिज्ञ एवं समाजसेवक पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इन दोनों विचाराें (पूंजीवाद एवं साम्यवाद) के विकल्प के रूप में ‘एकात्म मानवतावाद’ का दर्शन रखा था। अब जब कि साम्यवाद ध्वस्त हो चुका है पूंजीवाद को विखरते-टूटते हम देख ही रहे हैं, भारत एवं विश्व के समक्ष ‘एकात्म मानववाद’ की प्रासंगिकता स्वयं सिध्द है।

पाश्चात्य प्रणालियों और व्यवस्थाओं का अंधानुकरण भारत की भूमि में विनाशकारी सिध्द हुआ है। आज हम देखते हैं कि स्वतंत्रता पूर्व का पुरूषार्थमय वातावरण नष्ट हो गया है और असुरक्षा की मनोदशा में धन की प्राप्ति ही एकमात्र लक्ष्य बन गया है। भले लोग निराश हुए हैं और अर्थ की मानसिक दासता के कारण उनका नैतिक बल एवं साहस भी समाप्त हो रहा है।

अभाव चाहे प्राकृतिक हो या कृत्रिम राजनीतिज्ञ, प्रशासन और व्यापारी के लिए लाभप्रद सिध्द हो रहा है। प्रशासक और व्यापारी इतने अधिक दोषी नहीं जितने कि राजनीतिज्ञ। क्योंकि अर्थनीति को राजनीतिक ने दाब दिया है। प्रत्येक आर्थिक नीति, राजनीतिक लाभ को दृष्टि में रखकर बनाई जाती है और दीर्घ कालीन नियोजन का उद्देश्य आर्थिक विकास या कल्याण की वृध्दि न होकर मात्र अर्थव्यवस्था का ऐसा परिवर्तन बन गया है जो राजनीतिज्ञों को सुविधाजनक हो। जनता के कल्याण की भावना के मूल में कुर्सी का लालच दिया है।

आज स्थिति भयानक है, असुरक्षा के वातावरण में हम जी रहे हैं, भष्टाचार का बोलबाला है। मुद्रा स्फीति, मूल्य वृध्दि गलत नीतियों से उत्पन्न हुयी है, गरीबी कम नहीं हो रही है पर अमीर बढ़ रहे हैं, परिश्रम और पुरूषार्थ की परिभाषाएं बदल गई हैं, कथनी और करनी में सामंजस्य लाने का प्रयत्न भी नहीं है। धन सरलता से मिल सकता है तो पसीना बहाकर परिश्रम करने से लोगों की अरूचि हो रही है। कर्ज कठिनाई से मिलता था अब आसानी से लोगों को मिलता है। योजना विकास का यज्ञ न होकर लोगों को भ्रष्ट करने की साजिश लगने लगी हैं। अर्थ का मूल किसने जगाया, हर क्रिया का अर्थ के द्वारा माप किसने चलाया? जिस देश की जनता ने अपने त्याग और बलिदान से अंग्रेजों को भगा दिया वही आजादी मिलने पर सुला दी गई और वह यह भूल गई कि आजादी ली क्यों थी? धर्म को राजनीति से हटा लेने पर लोग उस धर्म को भूल गए जो व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र अथवा विश्व की रक्षा करता है।

अर्थ और अनियंत्रित काम का खूब प्रसार हुआ-आवश्यक वस्तुओं का अभाव और विलासिता की वस्तुओं का बढ़ता हुआ उत्पादन अधर्म से भव्य कुछ भी नहीं बदलता है। सरकारी धन को अपने से मूल्यवान समझने वाले व्यक्ति कम हो गए हैं इसी कारण योजनाएं असफल होती हैं। आज कहा जाता है – ‘प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य है किसी का कम किसी का ज्यादा’। क्या यह सत्य है? आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता, परंतु हैं वे अपने में मस्त-सामाजिक प्रभाव से हो। धर्म को राजनीति में लाने का पहला प्रयास यही होना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को प्रभावी बताया जाये।

एक स्थान पर दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा कि ”हम अच्छी तरह समझने कि बहुमत में या जनता में धर्म नहीं है। इसलिए प्रजातंत्र की व्याख्या में जनता का प्रशासन ही प्रर्याप्त नहीं हैं, यह शासन जनता के हित में भी होना चाहिए। जनता के हित का निर्णय तो धर्म ही कर सकता है। अतः जन राज्य को धर्म राज्य भी होना आवश्यक है। सच्चा प्रजातंत्र वहीं हो सकता है जहां स्वतंत्रता और धर्म दोनों हों। धर्म राज्य में इन सभी कल्पनाओं का समावेश हो सकता है जहां स्वतंत्रता और धर्म दोनों हों। धर्म राज्य में इन सभी कल्पनाओं का समावेश हो सकता है। सो उद्देश्य, सुखी, विकासमान जीवन के लिए जिन भौतिक साधनों की आवश्यकता है वे अवश्य ही प्राप्त होने चाहिए। भगवान की सृष्टि का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि उतनी व्यवस्था उसने क ी है। किंतु जब हम यह समझ कर कि भगवान ने मनुष्य को केवल उपभोग प्रवण प्राणी बनाया है और उसके लिए अंधाधुंध उपयोग के लिए ही अपना संपूर्ण शक्ति खर्च करें तो यह ठीक नहीं। न्यूनतम का जन्मसिध्द अधिकार है जो सभी को देना है। वह आता कहां से? स्पष्ट है कि वह हमारे प्रयत्नों और पुरूषार्थ से ही आना चाहिए। जो समाज व्यवस्था अथवा अर्थ व्यवस्था लोगों के पुरूषार्थ में बाधक हो व आत्मघाती है ”।

एकात्म मानवतावाद व्यक्ति के विभिन्न रूपों और समाज की अनेक संस्थाओं में स्थायी संघर्ष या हित विरोध नहीं मानता। यदि यह कहीं दीखता है तो वह विकृति का द्योतक है। वर्ग संघर्ष की कल्पना ही धोखा है। राष्ट्र के निर्माण व्यक्तियों या संस्थाओं में संघर्ष हो तो यज्ञ चलेगा कैसे? वर्ग की कल्पना ही संघर्ष की जन्मदात्री है। हम मानते हैं कि समानता न होते हुए भी एकात्मता हो सकती है।

* लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

3 COMMENTS

  1. ये संघी और भाजपाई सिर्फ दीनदयाल जी के विचारो का महिमामंडन करते पाए जाते है. यह ठीक है की उनके विचार सत्य होते हुए भी आज की परिस्थिती मे लागु कर पाना कठिन है. लेकिन मै यह मानता हु की चाह हो तो युक्ति ढुढी जा सकती है. मै महामना दीनदयाल जी के विचारो का समर्थक हुं और यह मानता हुं की उनके विचारो से भारत ही नही समस्त विश्व को सही राह मिलेगी. आवश्यकता है विचार करने की हम उनको कैसे लागु कर सके… युक्ति ढुंढने की…. शत शत नमन….

  2. श्रीमान- आर सिंह जी–
    एकात्म मानववाद यानी कमाने वाला खिलायेगा
    ” दीनदयाल उपाध्‍याय पुण्‍यतिथि (11 फरवरी ) पर विशेष”
    आदरणीय आर सिंह जी—– प्रवक्ता में पंकज झा ने प्रस्तुत किया हुआ उपर निर्देशित लेख पढॆं। कुछ विस्तारपूर्वक लिखा गया है।
    सादर।

  3. आपका कहना सही है की पूंजीवाद या साम्यवाद में से कोई भी सामान्य जन की दुर्दशा को कम करने में असफल रहा है.ऐसे में आपके अनुसार पंडित दीन दयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद विकल्प हो सकता है,पर आपने जो कुछ इस आलेख में दर्शाया है उससे एकात्म मानव वाद के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा है.पंडित दींन दयाल उपाध्याय के अनुसार जहाँ तक मैं समझता हूँ आर्थिक उन्नति का मूल मंत्र है विकेंद्री करण.वे इस मामले में महात्मा गाँधी के विचारों के बहुत करीब लगते हैं.वे इस सिद्धांत को मानते थे की भारत का विकास ग्राम विकास से आरम्भ होना चाहिए.ऐसे मैंने इधर बहुत अरसे से दींन दयाल जी की पुस्तकों का परायण नहीं किया है अतः मुझसे भूल भी हो सकती है,पर इतना सही है की वे व्यक्ति को इकाई मानकर उसके विकास से समाज राष्ट्र के विकास को संभव समझते थे.व्यकिगत इमानदारी इस विकास का मूल मंत्र होना चाहिए,पर जब इसी की कमी है तो विकास की कोई प्रणाली कम से कम हमलोगों का तो संयोजित विकास नहीं कर सकती.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,705 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress