कर्नाटक के विधान सभा और पश्चिमी बंगाल के चुनाव परिणामों का निहितार्थ-

प्रो.कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

कर्नाटक के घटनाक्रम को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है । पहला हिस्सा विधान सभा के चुनाव परिणामों का । विधान सभा के 223 स्थानों के लिए हुए चुनावों में भाजपा को 104 स्थान प्राप्त हुए। पिछली विधान सभा में उसके कुल मिंलाकर 40 सदस्य थे। कर्नाटक ऐसा अंतिम बडा प्रदेश था, जिसमें पिछले 5 साल से सोनिया कांग्रेस की सरकार बची हुई थी। लेकिन इन चुनावों में उसके मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपनी संभावित हार को देखते हुए एक साथ दो विधानसभा स्थानों से किस्मत आजमा रहे थे। चामुंडेश्वरी विधानसभा से तो वे बुरी तरह पराजित हुए। दूसरे विधान सभा से वह बडी मुश्किल से हारते-हारते बचे। विरोधी प्रत्याशी से 1600 ज्यादा मत लेकर उन्होंने किसी तरह से अपनी नाक बचा ली। लेकिन उनकी पार्टी सोनिया कांग्रेस 224 सदस्यीय विधान सभा में 78 स्थानों पर सिमट गई। मैदान में तीसरी पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री देवगौडा ने जेडीएस के नाम से चला रखी है । उनको आशा थी कि कांग्रेस और भाजपा के बीच की इस भयंकर लडाई में वह मोर्चा मार सकते हैं और अपने बेटे कुमारस्वामी को एक बार फिर मुख्यमंत्री के आसन तक पहुंचा सकते हैं। इसके लिए उन्होंने मायावती की बहुजन समाज पार्टी तक से हाथ मिलाया। अपनी जाति के वोक्कालिंगा समुदाय से भावनात्मक अपीलें की। अपनी उमर तक की दुहाई दी, लेकिन उनका कुनबा भी महज 37 सीटों पर सिमट कर रह गया। अलबत्ता सिद्धारमैया को अपदस्थ करने की उनकी साध अवश्य पूरी हो गई। कर्नाटक का यह चुनाव कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण माना जा रहा था। सबसे बडा मसला तो यही था कि इन चुनावों के कुछ महीने बाद ही देश की लोकसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं। केन्द्र सरकार से मोदी को हर हालत और हर तरीके से अपदस्थ करने का ख्वाब देख रही सोनिया कांग्रेस और विपक्ष ने इस चुनाव को 2019 के चुनावांे के लिए प्रयोगशाला बना रखा था। उनको ऐसा लगता था कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कम हो रही है और इन चुनावों में यदि भाजपा को पराजित किया जा सका तो आगामी लोकसभा चुनावों में विपक्षी एकता और जीत की संभावना बढ सकती है लेकिन सोनिया कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष न तो नरेंद्र मोदी को समझ पाया और न ही कर्नाटक के लोगों के मनोविज्ञान को। मीडिया में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जरुर कम हो रही होगी । लेकिन ध्यान रखना चाहिए मीडिया आज तक मोदी के समर्थन में कभी आया ही नहीं । धरातल पर मोदी की पकड और लोगों में उनके प्रति विश्वास अभी भी बरकरार है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह और भी अच्छी तरह देखा जा सकता है। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी को ग्रामीण क्षेत्रों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई।क्षेत्रों की हवा सूंघकर अनुमान लगाने वाला मीडिया कर्नाटक के ग्रामीण क्षेत्रों को सूंघ पाएगा, ऐसी किसी को आशा भी नहीं थी। इसलिए मीडिया और सोनिया कांग्रेस इस मोर्चे पर एक साथ ही असफल हुए। भारत की आम जनता का नरेंद्र मोदी के प्रति जो विष्वास बना हुआ है, उसका आधार केवल  भावनाएं ही नहीं है बल्कि मोदी सरकार ने जो अनेक योजनाए पिछले चार  सालों में जनधन, उज्जवला, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी अनेक योजनाएं प्रारंभ की है, उसका प्रत्यक्ष लाभ आम जनता तक पहुंच रहा है।
मोदी सरकार ने पहली बार ऐसे ठोस कदम उठाए हैं, जिससे नौकरशाही और बडी कंपनियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के ठोस उपाय किए गए हैं। बहुत अरसे बाद किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में देश की कमान आई है जो कम से कम पूरी शिद्दत से भ्रष्टाचार के खिलाफ लडने का उपक्रम कर रहा है। पिछले कुछ दशकों से राजनीतिक अपराधी वर्ग और व्यवसायी वर्ग में एक नेटवर्क स्थापित हो गया था, जिसके कारण भ्रष्टाचार और अपराध जगत में बेतहाशा वृद्धि हुई थी। यह मामला इतना आगे तक बढा कि विगत सरकार के अनेक बडे पदाधिकारी इन घोटालों में लिप्त पाए गए।
मोदी ने इस सारे सिस्टम को बदलने का ईमानदारी से प्रयास किया है और इसी ईमानदारी के चलते सोनिया कांग्रेस और विपक्ष के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचा है। कर्नाटक के मतदाताओं ने साफ कर दिया है कि भ्रष्टाचार को उखाडने के इस अभियान में कर्नाटक भी मोदी के साथ है। हैरानी तो इस बात है कि ये चुनाव जीतने के लिए सोनिया कांग्रेस ऐसे निम्न स्तर तक पहुंच गई जिससे राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचने लगा था। सोनिया कांग्रेस सरकार ने लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को उभारने के लिए जम्मू-कश्मीर  की तर्ज पर कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग ही नहीं कि बल्कि उसको प्राप्त करने के लिए अभियान भी शुरु  कर दिया। ब्रिटिश सरकार के शासन की तर्ज पर हिंदू समाज को खंडित करने की नीति पर चलते हुए लिंगायत समुदाय को गैर हिंदू अल्पसंख्यक घोषित कर दिया। जिस कर्नाटक में भाषा को लेकर कभी विवाद नहीं हुआ और हिंदी के प्रति कन्नड लोगों में कभी संकीर्णता का भाव नहीं आया, उसी कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने हिंदी साइन  बोर्ड मिटाने का काम शुरु कर दिया। लेकिन कर्नाटक के लोगों को दाद देनी पडेगी कि उन्होंने सोनिया कांग्रेस के इन राष्ट विरोधी कार्यो का जवाब उसे गहरी शिकस्त देकर दिया।
कुछ विश्लेषक यह भी कहते है कि जब तक कर्नाटक के चुनाव क्षेत्र में राहुल गांधी नहीं उतरे थे और वहां की लडाई वहां के क्षेत्रीय नेता ही लड रहे थे तब तक सोनिया कांग्रेस के जीतने की संभावना हो सकती थी। या कम से कम कांग्रेस और भाजपा में बराबर की लडाई हो सकती थी, लेकिन जब राहुल गांधी ने कर्नाटक के  चुनावों की कमान अपने हाथों मे ले ली और यह भी घोषणा कर दी कि वह 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद देश  का प्रधानमंत्री बनने के लिए पूरी तरह से तैयार है , उसी दिन कर्नाटक के चुनावों का निर्णय हो गया था और उसमें कांग्रेस की पराजय भी तय हो गई थी। सोनिया कांग्रेस ने राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाकर जो आशा की थी, वह कर्नाटक की जनता के निर्णय से टकराकर चूर-चूर हो गई है। देखना है कांग्रेस अगले चुनावों के लिए भी क्या राहुल गांधी को ही आगे रखेगी और यह भी , क्या विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लडने के लिए तैयार होगा। इसका उत्तर तो भविष्य ही देगा लेकिन फिलहाल कर्नाटक की जनता ने भाजपा के पक्ष में निर्णय देकर 2019 के चुनावों स्पष्ट संकेत दे दिए हैं।
लेकिन इसके बाद कर्नाटक कांड का दूसरा हिस्सा शुरु होता है । भारतीय जनता पार्टी सीटों के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है । लेकिन उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं है । इसके लिए उसके पास आठ सीटें कम हैं । लेकिन क्या किसी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत है । सोनिया कांग्रेस के पास तो कुल मिला कर 78 सदस्य हैं । बह बहुमत से भी और मुख्यमंत्री के आसन से उतनी ही दूर है जितनी दिल्ली इटली से दूर है । क्या कर्णाटक के दूसरे क्षेत्रीय दल जेडीएस के पास बहुमत है ? उसके पास तो कुल मिला कर सीटें ही 37 है । वह दरअसल इस पूरी लड़ाई में सरकार बनाने के आसपास है ही नहीं । लेकिन सोनिया कांग्रेस ने राज्यपाल को बताया कि यदि जेडीएस । क़रार बनाती है तो कांग्रेस उसका समर्थन करेगी । लेकिन सोनिया कांग्रेस ने यह नहीं बताया कि 37 सीटों के बलबूते जेडीएस सरकार बनाएगी कैसे ? लेकिन यह जानने का राज्यपाल के पास एक दूसरा आधार हो सकता था । विधान सभा चुनाव यदि दोनों पार्टियों ने परस्पर सहयोग से लड़े होते तो स्पष्ट था कि परिणाम के समय यदि किसी को भी बहुमत न प्राप्त हुआ तो दोनों मिल कर सरकार बना सकते हैं । क्योंकि दोनों पार्टियों ने जनता से वोट परस्पर विरोध के आधार पर नहीं बल्कि परस्पर सहयोग के आधार पर माँगे थे । लेकिन वस्तुस्थिति इसके बिल्कुल उलट थी । सोनिया कांग्रेस ने और जेडीएस , दोनों ने इतनी गालियाँ भाजपा को नहीं निकाली होंगी , जितनी एक दूसरे को निकालीं । देवगौडा की एक ही साध बची थी कि सिद्धारमैया की कांग्रेस को किसी भी तरह से सरकार बनाने से रोकना है क्योंकि सिद्धारमैया कभी उन्हीं के विश्वस्त साथी और और एक दिन धोखा देकर किसी और डाल पर बसेगा कर लिया । अब जेडीएस पूरी ताक़त से उस डाल को काटने में लगा हुआ था । यही हज़रत सिद्धारमैया की थी , किसी भी तरह देवगौडा और उनके बेटे को कर्नाटक की सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ने से रोकना । और कर्नाटक की जनता ने इन दोनों पार्टियों की हज़रत पूरी कर दी । जेडीएस को 37 पर रोककर सिद्धारमैया की कांग्रेस की हज़रत पूरी की और कांग्रेस को 78 पर लटका कर देवगौडा-कुमारस्वामी की जेडीएस की हज़रत पूरी कर दी । लेकिन कर्नाटक की जनता के इस जनादेश के बाद इन दोनों दलों की लार किसी भी तरह सचिवालय  पर क़ब्ज़ा कर सत्ता सुख भोगने के लिए टपकने लगी । संस्कृत में एक कहावत है । वुभुक्षति किम न कराती पापम् ? भूखा कौन सा सा पाप नहीं करता । लेकिन यहाँ पेट की नहीं सत्ता की भूख थी । इसलिए दोनों ने राज्यपाल के पास गुहार लगाना शुरु कर दी , हम दोनों दोस्त हैं , हमें सरकार बनाने का अवसर मिलना चाहिए । लेकिन कर्णाटक की जनता और वहाँ के राज्यपाल भला यह नैतिक कार्य कैसे कर सकते थे । कर्नाटक के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी को सर्वाधिक स्थान दिए थे , इसलिए क़ायदे से उसे ही सबसे पहले सरकार बनाने का मौक़ा मिलना चाहिए था । हाँ , यदि वह विधान सभा में अपना बहुमत सिद्ध न कर सके तो दूसरे दल को मौक़ा मिलना चाहिए । यही राज्यपाल ने किया । उन्होंने भाजपा दल के नेता येदुरप्पा को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया और उन्होंने मुख्यमंत्री की शपथ ग्रहण की । उसके बाद कांग्रेस और जेडीएस ने उच्चतम न्यायालय का आधी रात को दरवाज़ा खटखटाया । चाहे आजकल जहांगीरी घंटा तो नहीं है लेकिन फिर भी कुछ लोग आधी रात की दस्तक पर दरवाज़ा खोलने का मंत्र जानते होंगे । लेकिन उच्चतम न्यायालय ने भी यही कहा कि राज्यपाल को यह अधिकार है । अलबत्ता उसने यह जरुर कहा कि येदुरप्पा को विधान सभा में अपना बहुमत सिद्ध करना होगा । यह तो यदि वह न भी कहता तब भी उसे सिद्ध करना ही था । येदुरप्पा ने लोकतांत्रिक परम्पराओं की रक्षा करते हुए विधान सभा में मुख्यमंत्री पद ले त्यागपत्र देने की घोषणा कर दी ।
उसके बाद इस प्रकरण का तीसरा हिस्सा शुरु हुआ । भाजपा के बाद कर्नाटक में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी सोनिया कांग्रेस है । क़ायदे से उसे सरकार बनाने का निमंत्रण मिलना चाहिए था । शायद राज्यपाल उसे यह अवसर प्रदान भी करते लेकिन उनको आमंत्रित किया जाता , उससे पहले ही उसने हाथ हिला हिला कर कहना शुरु कर दिया कि हम सरकार नहीं बना सकते ।  आप 37 सदस्यीय जेडीएस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लें । 224 सदस्यों की विधान सभा में केवल 37 सीटें कम करने वाली जेडीएस भला सरकार कैसे डला पाएगी । इसका उत्तर भी था । कांग्रेस ने कहा , हम इन 37 का समर्थन कर देंगे । मामला बहुत सीधा था । जेडीएस ने 78 सदस्यों वाली कांग्रेस से कहा यदि येदुरप्पा से बचना चाहते हो तो हमारा समर्थन कर दे नहीं तो भुगतो । कांग्रेस येदुरप्पा से डरती है । क्यों डरती है यह तो सोनिया जी जानती होंगी या राहुल जी । राज्यपाल ने जेडीएस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी । मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने विधान सभा में अपना बहुमत भी सिद्ध कर दिया । सभी कांग्रेस विधायकों ने कुमार स्वामी के पक्ष में हाथ खड़े किए । उनमें सिद्धारमैया भी थे । उनको भी कुमारस्वामी के पक्ष में हाथ खड़ा करना पड़ा । देवगौडा ने सिद्धारमैया से अपना बदला ले लिया । विधान सभा के अन्दर , कुमार स्वामी के पक्ष में हाँ हाँ कहते सिद्धारमैया का चेहरा देखने लायक था ।
जिस दिन कुमारस्वामी ने शपथ ली , उस दिन अनेक परस्पर विरोधी राजनैतिक दलों के नेताओं का जमावड़ा मंच पर दिखाई दिया । सोनिया गान्धी और केजरीवाल आमने सामने थे । सीताराम येचुरी , ममता बनर्जी के सामने खड़े थे । मायावती , अखिलेश यादव के सामने थीं । लालू यादव के कुनबे के तेजस्वी यादव थे । आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू थे । सब के चेहरे खिले हुए थे । जिस प्रकार देवगौडा ने सोनिया कांग्रेस को भाजपा का भय दिखा कर अपने बेटे को मुख्यमंत्री बना लिया है , उसी प्रकार हम भी अपने अपने प्रदेश में कुमारस्वामी क्यों नहीं बन सकते ? कुमारस्वामी का बनाया हुआ यह नया रास्ता देखने के लिए सब नेता वहाँ पहुँचे हुए थे । जिन्होंने नरेन्द्र मोदी का भय दिखा कर सोनिया कांग्रेस का दोहन करना था वे भी और जिनका दोहन होना था वे भी एक साथ मंच पर खड़े थे । ममता बनर्जी ने सभी को कहा, आपस में मिल जुल कर रहो नहीं तो नरेन्द्र मोदी तुम्हारी खाट खड़ी कर देगा । ममता बनर्जी के इस राजनैतिक और निर्मल बाबा टाईप उपदेश से सीता राम येचुरी और सोनिया कांग्रेस के मुँह का स्वाद कसैला हो गया । पिछले दिनों इन दोनों ने पश्चिमी बंगाल के स्थानीय स्वशासन के चुनावों में इक्कठे होने की कोशिश की थी । तब ममता बनर्जी ने इन्हें इक्कठे होने का बंगाली सूत्र समझाया था । भाजपा को हराने का एक ही रास्ता है , कि तुम दोनों सोनिया कांग्रेस और सीपीएम चुनाव के मैदान से बाहर हो जाओ । इससे वोट नहीं बँटेंगे और भाजपा को रोकना आसान हो जाएगा । लेकिन एकता व गठबन्धन का यह बंगाली फ़ार्मूला न सोनिया गान्धी की समझ में आया और न ही सीताराम येचुरी की समझ में । अपनी अपनी समझ का सवाल है । ममता बनर्जी को इस फ़ार्मूले के सिवा एकता का दूसरा कोई फ़ार्मूला समझ में नहीं आता । सोनिया कांग्रेस और सीपीएम ने पश्चिमी बंगाल में ममता बनर्जी के समझाने के बाबजूद चुनाव लड़ने की हिमाक़त की । ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के लोगों ने उनकी वह पिटाई की कि ताउम्र याद रखेंगे । उनके प्रत्याशियों को पंचायत चुनावों में पेपर ही नहीं फ़ायल करने दिए । लड़ भिड़ कर कुछ जगह पेपर फ़ायल कर सके । उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक मामला पहुँचा , तब जाकर पेपर फ़ायल हो सके । ऐसा नहीं कि पश्चिमी बंगाल के इन पंचायत चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की पिटाई नहीं हुई । अलबत्ता सबसे ज़्यादा पिटाई तो उन्हीं की हुई । भाजपा के कुछ लोग तो तृणमूल कांग्रेस की इस गुंडागर्दी के कारण मारे भी गए । लेकिन पश्चिमी बंगाल में भाजपा ममता बनर्जी के साथ एकता नहीं कर रही थी बल्कि उसकी पार्टी को अपदस्थ करने के लिए राजनैतिक लड़ाई लड़ रही थी । परन्तु ममता बनर्जी की पार्टी , पश्चिमी बंगाल में तो सीपीएम और सोनिया कांग्रेस के लोगों की ज़मीन पर लिटा कर पिटाई कर रही थी और उसी समय इधर बेंगलुरु में उन्होंने एकता का सूत्र समझा रही थी । बेंगलुरु के उस मंच पर ममता बनर्जी का उपदेश सुनते सीता राम येचुरी और सोनिया गान्धी का चेहरा देखने लायक था । सोनिया गान्धी ने मायावती को खींच कर अपने पास कर लिया । ममता बनर्जी यहीं नहीं रुकी । उसने स्पष्ट किया , यह जमावड़ा क्षेत्रीय दलों की एकता और ताक़त का सबूत है और इसे बनाए रखना चाहिए । सोनिया गान्धी को समझ नहीं आ रहा था कि उनकी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्षेत्रीय दल में आती है या राष्ट्रीय दल में ? यही सवाल सीता राम येचुरी के सामने था । उनकी सीपीएम , त्रिपुरा में भी पिट जाने के बाद अब राष्ट्रीय दल है या क्षेत्रीय दल ? ममता बनर्जी को इससे कुछ लेना देना नहीं था । उसका अपना दल तृणमूल तो क्षेत्रीय ही है , इसमें  तो कोई शक नहीं । वह बेंगलुरु में आने से पहले कोलकाता में सोनिया कांग्रेस और सीपीएम , दोनों को ही उनकी औक़ात बता आई थीं । पश्चिमी बंगाल में जो पंचायत चुनाव हुए थे ,उनके सब परिणाम 18 मई तक आ चुके थे । ये परिणाम येचुरी भी जानते थे और सोनिया जी भी । जहाँ तक चुनावों में तृणमूल की हिंसा का सवाल है वह कांग्रेस , सीपीएम और भाजपा को समान रूप से भुगतनी पड़ी थी । अलबत्ता भाजपा उसका तुलनात्मक लिहाज़ से ज़्यादा ही शिकार हुई थी । ममता बनर्जी ने प्रदेश में पंचायत चुनाव किस तरीक़े से करवाए , इसको सीताराम भी जानते हैं और सोनिया गान्धी भी ।

तृणमूल कांग्रेस के लोग अपने विरोधियों को नामांकन तक नहीं करने दे रहे थे । कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही न्यायालयों में गुहार लगा रहे थे कि उनके प्रत्याशियों को नामांकन पत्र नहीं भरने दिए जा रहे । जब विरोधियों को नामांकन पत्र ही नहीं भरने दिए जाएँगे तो धरातल पर लोकतंत्र कहाँ बचेगा ? शायद आम जनता के इसी दबाब के चलते प्रदेश के चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाख़िल करने की तारीख़ बढ़ा दी । उसके बाद सरकार का दबाब बढ़ा होगा तो अगले दिन आयोग ने वह अधिसूचना वापिस भी ले ली । भाजपा इस धाँधली के ख़िलाफ़ उच्चतम न्यायालय में गई । न्यायालय ने आयोग के इस रवैए पर आश्चर्य प्रकट किया और पार्टी को मामला कलकत्ता हाई कोर्ट में ले जाने के लिए कहा । कलकत्ता हाईकोर्ट ने 16 अप्रेल तक चुनाव सम्बंधी सभी कार्यवाही पर रोक लगा दी । लेकिन चुनावों को लेकर मारपीट बदस्तूर जारी रही । मारपीट में रोज़ अनेकों लोग घायल हो रहे थे । लेकिन कहीं गहराई में लोकतंत्र भी घायल हो रहा था ।  इसका अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वीरभूमि ज़िला की ज़िला परिषद की 42 सीटों में से 41 सीटें तृणमूल कांग्रेस ने निर्विरोध जीत ली ।  परोक्ष रूप से इसका अर्थ हुआ कि किसी भी विरोधी को नामांकन पत्र ही नहीं भरने दिए । उधर तृणमूल का कहना था कि ज़िले का विकास ही इतना हो गया है कि विरोध पक्ष भी गदगद है और चुनाव लड़ने में कोई लाभ नहीं देखता । यदि ममता की पार्टी का यह तर्क विधान सभा चुनावों तक चलता रहा तो उनकी पार्टी कह सकती है कि सरकार ने राज्य में इतना विकास करवा दिया है कि अब चुनाव करवाने की जरुरत ही नहीं है ।  ममता की इस निर्ममता का सबसे ज़्यादा शिकार भारतीय जनता पार्टी हो रही थी । लेकिन प्रश्न उठता है कि विरोधी दलों , ख़ासकर भाजपा के कार्यकर्ताओं को पशुबल का निशाना बनाने वाली हमला ब्रिगेड ममता बनर्जी के पास कहाँ से आई ? बंगाल में सभी जानते हैं कि यह वही ब्रिगेड है जो कुछ साल पहले साम्यवादियों की सरकार के लिए काम करती थी । आज जब बहां से तम्बू उखाड़ दिए गए हैं तो वे अपना पुराना दरबार छोड़कर नए दरबार में हाज़िर हो गए हैं । ममता के इस क्रोध की कुछ सीमा तक शिकार सीपीएम और कांग्रेस भी हुई ।  उनके प्रत्याशियों को भी नामांकन पत्र नहीं भरने दिए गए । जो गुंडे कल तक सीपीएम के कहने पर तृणमूल के कार्यकर्ताओं की पिटाई करते थे वही गुंडे अब तृणमूल के कहने पर सीपीएम के कारकुनों को सबक़ सिखा रहे थे । इसलिए भाजपा , कांग्रेस और सीपीएम तीनों ही तृणमूल के इस तानाशाही पूर्ण व्यवहार का विरोध कर रहे थे । चाहे आपस में मिल कर न सही । ममता इतना तो जानती है कि पंचायतों के चुनाव लोकतंत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं । जिस पार्टी की ग्रामीण नेतृत्व पर पकड़ हो जाती है , वह देर  सवेर राज्य की राजनीति में जड़ जमा सकता है । ममता जानती है कि बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम भूतकाल की पार्टियाँ हैं और भाजपा भविष्य की पार्टी है । इसलिए उसके निशाने पर सबसे ज़्यादा भाजपा ही है । 18 मई को पंचायत चुनावों के लगभग सभी परिणाम आ गए ।
पश्चिमी बंगाल के पंचायत चुनावों में सीपीएम और सोनिया कांग्रेस के लगभग चिन्ह ही बचे थे । तृणमूल के बाद दूसरे नम्बर पर भाजपा आ गई थी । पश्चिमी बंगाल में ज़िला परिषदों की कुल मिला कर 825 सीटें बनती हैं । इनमें से केवल 621 सीटों के लिए चुनाव हुए । ममता बनर्जी का कहना था कि शेष 204 सीटों के लिए विरोधी दलों के उम्मीदवारों ने अपने पर्चे दाख़िल ही नहीं किए या वे रद्द हो गए । ख़ैर , इन 621 सीटों में से तृणमूल ने 590 सीटों पर विजय प्राप्त की । भाजपा को 22 सीटें मिलीं । कांग्रेस को 6 और सीपीएम को शून्य । उनका एक प्रत्याशी भी जीत नहीं पाया । इसी प्रकार पंचायत समितियों की प्रदेश में कुल सीटें 9217 हैं । चुनाव केवल 6118 के लिए हुए । टीएम ने 4974 जीतीं । भाजपा ने 760 सीटें जीतीं । सीपीएम ने  111 और सोनिया कांग्रेस ने 133 सीटें जीतीं । प्रदेश में ग्राम पंचायतों की कुल सीटें 48650 हैं । चुनाव 31777 के लिए हुआ । ममता बनर्जी की पार्टी का दावा है कि ग्राम पंचायतों की 16873 सीटें उसने निर्विरोध जीत लीं । शेष बची सीटों में से तृणमूल ने ने 21269 सीटें जीतीं । भाजपा ने 5776 , सीपीएम ने  1486 और सोनिया कांग्रेस ने 1065 सीटों पर फ़तह हासिल की । पश्चिमी बंगाल के इन पंचायत चुनावों को सूत्र रूप में कहना हो तो पश्चिमी बंगाल में भाजपा नम्बर दो पर आ गई है , कांग्रेस नम्बर तीन पर और सीता राम येचुरी की सीपींएम नम्बर चार पर पहुँच कर विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गई है । इन चुनाव परिणामों को साथ लेकर ममता बनर्जी को बेंगलुरु जाने में क्या नुक़सान हो सकता था ?
लेकिन प्रश्न उठता है कि एक ओर तो ममता बनर्जी कांग्रेस और सीपीएम को साथ लेकर देश भर में भाजपा के ख़िलाफ़ साँझा मोर्चा बनाने के लिए दिन रात एक कर रही हैं , दूसरी ओर वह अपने राज्य में इन दोनों की पिटाई भी कर रही है । ममता ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य एक साथ कैसे कर सकती है ? ममता के इस काम में ऊपर से विरोधाभास दिखाई दे रहा है , दरअसल है नहीं । बंगाल के बाहर ममता या उसके तृणमूल का तो कोई आधार या काम नहीं है । यदि उसको देश की राजनीति में कोई भूमिका निभानी है तो उसके पास तीस पैंतीस लोकसभा की सीटें होनी चाहिएँ । वह उसे केवल अपने प्रदेश से ही मिल सकती हैं । उसे इतना भी पता है कि चाहे वह बंगाल में कांग्रेस , सीपीएम और भाजपा को अलग अलग कितना भी क्यों न पीट ले , ये तीनों उसके हराने के लिए बंगाल में कभी इकठ्ठे नहीं हो सकते । अन्य प्रदेशों में बनने वाले मोर्चों में ममता की अपनी कोई भूमिका नहीं है , वह केवल फैसिलिटेटर है । फैसिलिटेशन का काम करने के एवज़ में यदि उसे कुछ मिल जाता है तो उसे क्या नुक़सान है ? सीता राम येचुरी और सोनिया कांग्रेस पिट भी रहे हैं और रो भी नहीं सकते । बेंगलुरु में उन्हें ममता बनर्जी के साथ हँसते हँसते फ़ोटो खिंचाना है ताकि देश की जनता धोखा खा जाए । बेंगलुरु का यह जमावड़ा देश की जनता को धोखा देने का ही सबसे बड़ा प्रहसन कहा जा सकता है । लेकिन क्या सचमुच सोनिया गान्धी इस देश के लोगों को इतना मूर्ख समझती हैं ?

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