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आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
ईश्वर सत्य है सत्य ही शिव है शिव ही सुंदर है? ईश्वर सत्य है, अपने इस विचार को महात्मा गांधी ने वर्ष 1929 में पलटकर सत्य ही ईश्वर है, करते हुये तर्क दिया कि जब उन्होंने ईश्वर सत्य है का अनुभव किया तब सत्य ही ईश्वर की ओर कदम बढ़ाने का मार्ग बना, यानि सत्य को ईश्वर माना। देश उस समय महात्मा गांधी से प्रभावित था, इसी कड़ी में राजकपुर ने वर्ष 1978 में एक फिल्म-सत्यम शिवम सुन्दरम बनाई जिसका शाब्दिक अर्थ: सच्चा, कल्याणप्रद, ओर मनोहर बताया ओर इस फिल्म में पंडित नरेंद्र शर्मा द्वारा लिखा ओर लतामंगेशकर के सुर में पिरोया गीत ईश्वर सत्य है सत्य ही शिव है शिव ही सुंदर है’, कि रिकार्डिंग तत्समय रेडियो स्टेशनों सहित हर गाँव शहर के मंदिरों में गूँजती ओर सभी के दिलों के तारों को छेड़ती रही। उस समय यह मानसिकता सभी में बलवती होती गई कि ईश्वर कोई ओर नहीं परमात्मा शिव ही ईश्वर है। हमारे चार वेद है जिसमें सभी देवताओं की सत्ता का विस्तृत वर्णन है ओर किसी भी देवता को ईश्वर की संज्ञा नही दी गई है। किन्तु कुछ ऋषि मुनिओं का कहना है कि- ईश्वर ने मनुष्यो को जहां/जगत बनाया अपितु ईश्वर की रचना मनुष्यों ने की है।” यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो ईश्वर का वर्तमान स्वरूप किसी भी देवालय, मंदिर मठ आदि में देखे तो वह परिवर्तित और परिवर्धितम्रूप है। क्योंकि प्राचीन भारतीय साहित्य मे वर्तमान ईश्वर के लिय कोई स्थान नहीं है। ऋग्वेद संसार का सबसे प्राचीनतम वेद है उसमें कही भी एक बार भी ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है ओर ठीक ऐसा ही सामवेद और यजुर्वेद है, जिसमें ईश्वर का उल्लेख नही किया गया है। अथर्ववेद में ईश्वर शब्द का प्रयोग देवताओं के लिए नहीं किया जाकर केवल साधारण स्वामी, राजा आदि के अर्थ मे ही इसका उपयोग हुआ है। अतः वैदिक देवता ईश्वर नहीं है तो ईश्वर कौन है इसकी भूमिका में कुछ लिखने कि प्रेरणा बलवती हुई है ओर अपना ज्ञानोदय हेतु वेदों सहित अन्य ग्रन्थों के महासमुन्द्र कि लहरों से आप्लावित होने का अवसर मिला है।
वेदों मे अग्नि ओर पृथ्वी को स्थानीय देवता वायु ओर इन्द्र अन्तरिक्ष तथा सूर्य को धुलोक देवता कहा गया है ओर उनकी अनेक विभूतिओ ओर कर्मों के मान से उनके अनेक नाम कहे गए है। कुछ विद्वानों का कथन है कि वेदों में ईश्वर शब्द के न होने से क्या है, उनमें सृष्टि-कर्ता ईश्वर का अग्नि, प्रजापति, पुरुष. हिरण्यगर्भ आदि शब्दों द्वारा वर्णन तो प्राप्त होता है। वही कुछ का मानना है कि वेदों में एक ईश्वर का नहीं अपितु अनेक देवताओं का विधान है। वैदिक देवता इन्द्र, अग्नि, वरुण, मित्र, पूषा आदि सब कार्मिक देवता हैं। दूसरे शब्दो में वे ‘नियतकर्माणः’ या ‘विभज्य-कर्मकारिणः’ अर्थात् अपने अपने नियत कर्मों को करने वाले हैं। इन में से किसी एक को हम वास्तव में ‘देवोंका देव’ या ‘देवाधिदेव’ नहीं कह सकते। तथा वैदिक देवों में से एक भी देव ऐसा नहीं है जिसको वर्तमान में ईश्वर का स्थान दिया जा सके। क्योंकि वैदिक देवता नियतकर्मा हैं. तथा उनकी उत्पत्ति का एवं उनके शरीरों का उल्लेख वेदों में ही उपलब्ध होता है। यह सब होते हुए भी आधुनिक विद्वानों ने वेदिक देवताओं का अर्थ ईश्वर परक करने का प्रयत्न किया है। देखा जाये तो वेदों में ही ‘प्रजापति’ जैसे देवता हैं जो आपाततः बहुत कुछ परमेश्वर के स्थानीय प्रतीत होते है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। प्रजापति को भी हम देवाधिदेव नही कह सकते क्योंकि वह भी अनेक देवताओं में से कंवल एक देवता है। इस लिए यही प्रतीत होता है कि वैदिक समय में, उपनिषदों को यदि शामिल कर लें तो भी, सर्व-साधारण का काम उपर्युक्त कार्मिक या नियत-कर्म देवताओं से ही चल जाता था। उन को किसी देवाधिदेव या परमेश्वर की उपासना की आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती थी। दूसरी ओर, तत्त्वज्ञानियों की तृप्ति केवल उन देवताओं से नहीं हो सकतो थी। वे भेद में अभेद और अनेक में ऐक्य देखना चाहते थे। इस लिए उनका काम ब्रह्म से चलता था ।
आज कल का हिंदू-धर्म निगमागम-धर्म का संमिश्रण समझा जाता है। निगम का अर्थ वेद, और आगम का अर्थ तंत्र लिया जाता है। इस लिए दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आज कल के हिदू-धर्म का आधार वैदिक और तान्त्रिक धर्मों के संमिश्रण पर है। आधुनिक हिंदू-धर्म में प्रचलित देव-ताओं और दैनिक तथा विशिष्ट नैमित्तिक कर्मकांड के देखने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि वह केवल शुद्ध वैदिक धर्म से बहुत भिन्न है। पर इस का अर्थ यह नहीं है कि तांत्रिक धर्म वैदिक धर्म से नवान है। विद्वानों का ख्याल है कि तांत्रिक धर्म, कम से कम भारतवर्ष में तो, वैदिक धर्म से प्राचीन ही है। दूसरी ओर यही बात प्रचलित रही है कि ईश्वर ने मनुष्यो को बनाया किन्तु किस ईश्वर ने मनुष्य ओर उसके संसार कि रचना की, यह गंभीर चिंतन का विषय बनने से इसका उत्तर खोजा जाना आवश्यक हो गया है ? ऋग्वेद जो कि संसार का प्राचीनतम साक्षी ग्रंथ है उसमे एक बार भी ईश्वर शब्द का हो प्रयोग नहीं किया गया है, यही स्थिति सामवेद और यजुर्वेद की है। इनसे हटकर अथर्ववेद में अवश्य ही ‘ईश्वर’ शब्द के दर्शन होते हैं, परन्तु वहाँ भी केवल साधारण (स्वामी) अर्थ मे ही इसका प्रयोग देवी देवताओं के लिए हुआ है। अतएव यह आवश्यक है कि वैदिक देवों का यथार्थ स्वरूप समझ लिया जाय ।
संस्कृत साहित्य में अभी तक हमें ऐसा दूसरा शब्द नहीं मिला जिस का इतिहास ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास के समान रोचक तथा महत्वपूर्ण माना जा सके। ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग संस्कृत साहित्य मे, मोटे तौर पर, दो विभिन्न अर्थों में पाया जाता है। साधारणतया तो ‘ईश्वर’ शब्द का अर्थ ‘जगन्नियंता, सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापक, देवाधिदेव प्रभु’ ही देखा जाता है। आज कल के सर्व साधारण के व्यवहार में ‘शिव,’ ‘विष्णु,’ ‘राम,’ ‘कृष्ण’ आदि शब्दों को छोड़ कर, जो परमेश्वर के अर्थ को प्रकट करने के साथ ही संप्रदाय-वाद को भी प्रकट करते हैं, इन शब्दों का संबंध विभिन्न शैव, वैष्णव आदि संप्रदायों से ही है, जो शब्द सांप्रदायिक भाव के बिना उस परमप्रभु के लिए प्रयुक्त होते है उनमें ईश्वर,परमेश्वर ही प्रमुख है। इस सर्वसाधारण को छोडकर संस्कृत साहित्य में ईश्वर शब्द का प्रयोग अधिकतर ऊपर के ही अर्थ में पाया जाता है। पाणिनी, अष्टाध्यायी ओर पतांजल महाभाष्य में ईश्वर शब्द अनेक बार प्रयोग में आया है जिसमे उसका अर्थ ईश्वर या परमात्मा के लिए नहीं किया गया है बल्कि छोटे अर्थों में उसका भाव राजा या शासक के रूप में उपयोग किया गया है। देखा जाये तो ऋषि-मुनि महात्माओं में जो अलौकिक शक्तियाँ होती हैं उन को कोई ‘ऐश्वर्य’ शब्द से निर्देश नहीं करता, किन्तु रिद्धी ‘सिद्धि,’ ‘शक्ति’ जैसे शब्दों का हो प्रयोग उनके लिए किया जाता है। इस से स्पष्ट है कि ‘ऐश्वर्य’ शब्द लौकिक वैभवशाली ‘राजा’ या ‘शासक’ के अर्थ को रखने वाले ‘ईश्वर’ शब्द से निकला है, न कि ‘परमेश्वर’ के अर्थ को रखने बाले ‘ईश्वर’ शब्द से। जैसा कि सभी जानते है कि योग-संबंधी या आत्मिक सिद्धियों या शक्तियों के लिए ‘ऐश्वर्य’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह ‘ऐश्वर्य’ शब्द बड़ा प्राचीन है। इसलिये ‘ईश्वर’ शब्द के जिस अर्थ को लेकर यह निकला है वह अर्थ भी अति प्राचीन ही होना चाहिए।इसी से प्रेरित हो कर हमने प्राचीनतम वैदिक साहित्य से ले कर संस्कृत ग्रंथों को देखना शुरू किया ओर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग ‘परमेश्वर’ के अर्थ में बहुत पीछे से होने लगा है। इस के कारण का विचार भी हम अर्थ या भाव की दृष्टि से नीचे वैदिक संहिताओं का दिग्दर्शन से शुरुआत करते है।
ऋग्वेदसंहिता में ‘ईश्वर’ शब्द एक बार भी प्रयोग नही हुआ है। हाँ, यह शब्द जिस धातु ईश्-से बना है उस का प्रयोग, क्रिया रूप से, अनेक स्थलो में आता है जिसमें ‘ईश्वर’ शब्द की तरह ही ‘ईश्’ धातु से निकला है और इस प्रकार ‘ईश्वर’ का स्थानीय तथा संबंधी है, ‘ईशान’ है। इस का अर्थ भी ऋग्वेद में सामान्य रूप से ‘समर्थ’ है, और यह इंद्र आदि देवताओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे-ईशानो थवया वधम् (201/5/10) अर्थात्, हे इंद्र-देव । तुम समर्थ हो। तुम हनन को हम से दूर रक्खो। ‘ईश्’ धातु का प्रयोग उक्त अर्थ में ही दूसरी संहिताओं में भी आता है। इस लिए इस का उल्लेख हम आगे नहीं करेंगे। ‘ईशान’ शब्दै के अर्थ मे दूसरी संहिताओं में धीरे धीरे कुछ भेद होता गया है। यजुर्वेद और अथर्ववेद में इस का प्रयोग अग्नि-देवता के लिये विशेषण रूप से हुआ है, पर अधिक प्रयोग शिव या रुद्र के लिए ही है। यह प्रवृत्ति चढ़ती गई और अंत में यह ‘शिव’ का वाचक एक रूढ़ शब्द बन गया। इस शब्द का भी उल्लेख हम आगे प्रायः नहीं करेगे, क्योंकि हमारे लेख का मुख्य विषय ‘ईश्वर’ शब्द ही है और वहाँ यहाँ के ‘ईश्वरः’ के स्थान में ‘ईशानः’ पाठ है। इसी से स्पष्ट है कि यहाँ भी ‘ईश्वर’ का अर्थ सामान्यरूप से स्वामी या समर्थ ही है और अभी तक गढ़ अर्थ परमेश्वर का नहीं है। (5) कालो ह सर्वस्वेश्वरो यः पितासीत् प्रजापतेः । (भय० 19153/8 )। यहाँ भी काल को ‘सब का स्वामी’ कहा है। ऊपर के सब स्थलों में ‘ईश्वर’ का अर्थ अधिक से अधिक हम स्वामी या राजा ही ले सकते हैं। यहाँ स्पटतया रुढ़ अर्थ परमेश्वर का नहीं है। हमारे इस कथन की पुष्टि वैदिक निघंटु ग्रंथों से अच्छी तरह हो जाती है। ये ग्रंथ वेदों के कोश समझे जाते हैं। निबंदु (2/22) मे राष्ट्री, अर्थः, नियुत्वान् और उनः इन चार शब्दों को दे कर कहा है कि ये ‘ईश्वर’ के नाम हैं (इति चत्वारि ईश्वरनामानि ) । यह स्पष्ट है कि ‘राष्ट्री,’ ‘अर्थ’ आदि शब्दों के, जो निविंवाद-रूप से वेदों से स्वामी आदि अर्थों में प्रयुक्त होते हैं और परमेश्वर-वाचक नहीं हैं, अर्थ को बतलाने वाला ‘ईश्वर’ शब्द भी यहाँ परमेश्वर-वाचक नहीं है। आधिदैविक और आध्यात्मिक दृष्टियों से, (१) “ईश्वरः सर्वेषां भूतानां गोपायितादित्यः” और (२) “ईश्वरः सर्वेषामिद्रियाणां गोपायितात्मा” मंत्र का प्रयोग निरुक्तकार ने किया है। इस से भी स्पष्ट है कि निरुक्त-कार ‘ईश्वर’ शब्द को सामान्य-रूप से स्वामी के ही अर्थ में प्रयुक्त करते हैं। अथर्ववेद के मंत्रों में भी ‘ईश्वर’ का यही अर्थ है।
‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास के प्रथम युग पारिणी और पतंजलि के उपर्युक्त ग्रंथो में देखा जाता है जहां ‘ईश्वर’ शब्द का इतनी बार प्रयोग किया जाना और एक बार भी परमेश्वर के अर्थ में प्रयोग न होना, आकस्मिक बात नहीं हो सकती। इन ग्रन्थों के समकालीन या निर्विवाद-रूप से इन से प्राचीन ग्रन्थो मे भी, ईश्वर शब्द परमेश्वर के अर्थ में प्रयोग नहीं किया गया है। ऐसा प्रतीन होता है कि वैदिक ग्रन्थों में इसका अर्थ सामान्य रूप से समर्थ या स्वामी था, और पीछे से राजा या शासक हो गया। इन दोनों अर्थों के समय को हम ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास का प्रथम युग कह सकते हैं। इसके बाद ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास का मध्ययुग के रूप में महाभाष्य के ग्रन्थों को लिया जा सकता है जिन में ‘ईश्वर’ शब्द के ऊपर के अर्थ के साथ साथ परमेश्वर का अर्थ भी मिलता है। ऐसे ग्रंथों के समय को हम इस शब्द के इतिहास का मध्ययुग कह सकते हैं। एक समय तक निश्चय रूप से इस शब्द का एक अर्थ (राजा या समर्थ) मे प्रयुक्त होना और दूसरे समय में लगभग निश्चय रूप से दूसरे अर्थ (परमेश्वर) में प्रयोग होना मध्यकाल के विषय में सोचने ओर लिखने को विवश होना पड़ रहा है जिसमे ईश्वर शब्द के क्रमोन्नति विकास को देखा जा सकता है जहा साक्ष्य के रूप में मनुस्मृति ओर भगवत गीता है जिसमे मनुस्मृति में ईश्वर के रूप में प्राचीनतम राजाओ का प्रयोग है वही भगवतगीता में ईश्वर के लिए परमेश्वर शब्द प्रयुक्त हुआ है। मनुस्मृति का उदाहरण ले लीजिये -(4) ब्राम्ह्णो आयमानो हि पूर्व, ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुल 4 (199) अर्थात, ब्राम्ह्ण पैदा होते ही पृथिवी पर सब भूतों का राजा या स्वामी हो जाता है। (6) हन्याकौरमिवेश्वरः (9/278)। यहाँ भी टीका में ‘ईश्वरः’ का अर्थ राजा किया है।
भगवद्गीता में ईश्वर शब्द क्रमोन्नति के विकास कि सीडिया चढ़ते हुये परमेश्वर का रूप ले लेता है ओर बहुत अधिक परमेश्वर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे- भूतानामीश्वरोऽपि सन् । (4/6) समवस्थितमोचरम्। (13/28) सभं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । (13/27) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (18/60) इत्यादि। पर दो तीन जगह भगवत गीता में भी ईश्वर का प्रयोग राजा या शासक के रूप में किया गया है जो विकासक्रम से पीछे ले आता है जैसे- ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी (16/17) दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् (18/43) इन दोनों स्थलों पर वही प्राचीन समर्थ या शासक का अर्थ है। ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास में जहा इस शब्द को वेदों सहित मनुस्मृति कि यात्रा करते हुये सामान्य राजा, शासक के बोध के साथ परमेश्वर तक का सम्मान मिला वही भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने परमेश्वर के साथ राजा शासक में प्रयुक्त किया परिणाम स्वरूप भगवान के मुख से प्रयोग हुआ ईश्वर शब्द अधिकांशतया परमेश्वर के अर्थ में होने लगा। इसी अवस्था को हम ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास का अंतिम युग कहते है।यह लिखने से पूर्व समस्त उपनिषदो पर एक दृष्टि डालने पर ईश्, केन, कठ आदि प्राचीन दस उपनिषदों में ‘ईश्वर’ शब्द परमेश्वर के अर्थ में एक बार भी प्रयुक्त हुआ नहीं मिला जबकि बृहदारण्यक उपनिषद् को छोड़ ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग इन उपनिषदों में बिलकुल भी दिखाई नही दिया। अलबत्ता यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय (या ईशावास्योपनिषद्) की तरह ही ‘ईश्’ शब्द मुण्डकोपनिषद् में (जैसे “यदा पश्यः पश्यते ईशम्”) में भो प्रयुक्त हुआ है।
नवीनतम उपनिषदों में ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग न केवल बहुत अधिक मिलता है, किंतु बराबर परमेश्वर के अर्थ में मिलता है। जैसे- “ईश्वरः परम्रो देवः (यह्मविद्योपनिषद् 0)। “ईश्वरः शिव एव च (अथर्वशिणोपनिषद् 2)। “ईश्वरः सर्वभूतानाम्” (महानारायणोपनिषद् 17.5) इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यहाँ ‘ईश्वर’ शब्द केवल परमेश्वर का अर्थ रखता है। इसो से ये उपनिषद् ‘ईश्वर’ के इतिहास के तृतीय युग से संबंध खते हैं उपनिषद्-विषयक उपर्युक्त विचार से ही ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास हे तीनों युगों के उदाहरण मिल जाते हैं। इसी तरह समस्त दार्शनिक साहित्य में शत प्रतिशत रूप से ‘ईश्वर’ शब्द परमेश्वर के ही अर्थ में प्रयोग किया गया है। अतएव कहा जा सकता है कि ‘ईश्वर’ शब्द के अर्थ का विकास के लिए भी ‘ईश्वर’ शब्द को लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी ओर यह ‘ईश्वर’ शब्द आज कल कोई साम्प्रदायिक शब्द नहीं है। सनातन धर्म, सिख धर्म, जैनधर्म सहित सभी वैष्णवजन व संप्रदाय-विशेष, सभी ईश्वर में परमेश्वर की कामना,ध्यान कर ईश्वर को जगदुत्पादक, जगन्नियंता, सर्व अंतर्यामी सब का स्वामी और उपास्य तथा देवाधिदेव परमेश्वर के अर्थ में करते हैं। शैवधर्म के द्वारा ‘ईश्वर’ शब्द का प्रचार का ही परिणाम है कि इससे शिव की व्यापकता और प्राचीनता के दर्शन की होड हर शिवालय में देखी जा सकती है। वास्तव में आज पूरी दुनिया शिवमय होने को तत्पर है इसी धर्म के द्वारा परमेश्वरार्थक ‘ईश्वर’ शब्द धीरे धीरे हिन्दुओं में प्रचलित हुआ। ‘ईशान’ और ‘ईश्वर’ दोनों शब्द एक ही धातु से बने हैं। तो भी ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग इसी प्रकार शिव के लिये साक्षात् क्रम से नहीं हुआ। तंत्र ग्रंथों में भी ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयाग शिव के लिए अत्यत पाया जाता है। अनेक तंत्रों का प्रारम्भ ‘पार्वती उवाच’ के साथ साथ ‘ईश्वर उवाच’ इन शब्दों से हो होता है। शैव दर्शनों में भो ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग अत्यधिक ही नहीं, किन्तु पारिभाषिक रूप से भी, शिव के लिए पाया जाता है। ‘ईश्वरप्रत्यभिज्ञासूत्र’, तथा ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ आदि के देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शैव दर्शनों में ‘ईश्वर’ शब्द पारिभाषिक रूप से शिव को संबोधित करता है तभी तो कालिदास ने कहा है- यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषयः श-दो यथार्थाक्षरः (विक्रमोर्वशो)। अर्थात् ‘ईश्वर’ केवल शिव के लिए ही प्रयुक्त हो सकता है।
आत्माराम यादव पीव