प्राचीनता और नवीनता दो विरोधी धारायें नहीं हैं। समाज की उन्नति के लिए इन दोनों को समन्वय बड़ा आवश्यक है। विज्ञान के नवीन आविष्कारों का और अनुसंधानों का लाभ लेने के लिए हमें सदा नवीनता का समर्थक रहना चाहिए। इसी से सभ्यता का विकास होता है। इसीलिए कालिदास जैसे महाकवि ने अपनी वैज्ञानिक सोच का परिचय देते हुए कहा है कि प्राचीन के साथ नवीन को भी अपनावें। दोनों में कुछ अच्छाईयां हैं। दोनों का समन्वय करें।
समाज की उन्नति तथा सुव्यवस्था के लिए कतिपय निर्धारित नियम रीति कहलाते हैं जो कुछ समय पश्चात परंपरायें बन जाती हैं। ये परंपरायें कुछ समय बाद रूढिय़ां बन जाती हैं। रीति का जितना सुंदर, सलौना स्वरूप है उतना निर्मल और स्वच्छ परंपरा का नही है और जितना परंपरा का है उतना रूढि का नही है। इसलिए रूढि़वाद को समाज की सड़ी गली व्यवस्था माना जाता है। यही कारण है कि रूढि़वाद से कई लोगों को घृणा होती है। इस रूढि़वाद को हमारे वेदों ने उचित नही माना। उसने भी इसे समाप्त करने की शिक्षा दी है। ऋ 9-23-2 में आया है :-
अनु प्रत्नास: आयव: पदे नवीयो अक्रमु:।
रूचे जनंत सूर्यम।।
अर्थात जिस प्रकार हमारे पूर्वजों ने नवीन मार्ग को अपनाया, उन्होंने प्रकाश के लिए सूर्य सदृश ज्योति उत्पन्न की। उसी प्रकार हम भी परंपरागत चीजों पर निर्भर न रहें। अनुसंधान का क्रम अनवरत चलता रहना चाहिए।
यहां अनुसंधान का अभिप्राय परंपराओं की समीक्षा से भी है। हम ये देखें कि जो परंपरायें हमें प्राचीनता के नाम पर मिली हैं, या हमारा पीछा कर रही हैं, वे समय के अनुसार और प्रकृति के नियमों के अनुसार कितनी तर्कसंगत हैं या उनमें कितना जंग लग गया है। समीक्षा के नाम पर या आधुनिकता के नाम पर आप परंपराओं को छोड़ नही सकते। हां उन्हें समीक्षित अवश्य कर सकते हैं। एक पिता ने अपना कारोबार किस प्रकार खड़ा किया, क्या कायदे कानून उसने उस कारोबार की सफलता के लिए बनाये? इन सबकी समय बीतने पर समीक्षा तो संभव है, किंतु आप सारी व्यवस्था को ही शार्षासन नही करा सकते। यदि आप सारी व्यवस्थाओं को शीर्षासन कराने की गलती करते हैं तो परिणाम आशा के विपरीत ही आयेंगे।
हमारे यहां मानव समाज की स्थापना के लिए हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने बहुत सी आदर्श व्यवस्थायें स्थापित की थीं। इनमें विवाह की परंपरा भी एक बहुत ही आदर्श व्यवस्था थी। विवाह का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पत्ति था। संतानोत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई उद्देश्य नही था। समाज में कोई किसी प्रकार का अनाचार या दुराचार न फैले, इसलिए एक पत्नी और एक पति की व्यवस्था का विकास किया गया। वर को विवाह के समय प्रतिज्ञा करायी जाती है कि ममेयमस्तु पोष्या (अ 14/1/52) अर्थात यह वधु आज से मेरी पोष्या होगी। इसके पालन पोषण का सारा प्रबंध मैं करूंगा।
नारी असहाय नही है कि उसे कोई पालने की जिम्मेदारी ले। अपितु वह हमारे परिवार की निर्माता होगी, संतति का निर्माण करेगी, परिवार समाज, राष्ट्र और विश्व मानसिकता के बीजों का उसमें आरोपण करेगी और इस प्रकार एक स्वस्थ और सुंदर सामाजिक परिवेश को बनाने में सहायक होगी। इसलिए हमारे प्राचीन समाज में मातृ सत्तात्मक परिवारों के मिलने के पर्याप्त उदाहरण हैं। हमारे वेदों कहा गया है कि जाया पतिं वहति (ऋ 10/32/3) पति पत्नी को विवाहती हैं अर्थात विवाह में वरण का अधिकार कन्या का है। वह अपनी जिंदगी के लिए एक अच्छे जीवन साथी का वरण करती हैं। उसे अपने लिए चुनती हैं, इसलिए वर को वर कहा जाता है। ये दोनों मिलकर फिर संसार को दिव्य संतति प्रदान करते हैं इसलिए ये दोनों एक जान हो जाते हैं तभी तो इन्हें दंपत्ति कहा जाता है।इस विवाह को गृहस्थ धर्म का सबसे पवित्र बंधन कहा गया है। इसे पाणिग्रहण संस्कार भी कहा जाता है। पाणि का अर्थ हाथ है-हाथ को पकड़ लेना ग्रहण कर लेना मानो अब कहीं कोई दगा नही होगी, कोई अपवित्रता नही होगी, कोई कपट नही होगा, और न ही कोई धोखा देगा। हाथ पकड़ लिया तो संस्कार में बंध गये, जिसे जीवन भर निभाएंगे। दुख सुख सभी के साथी बनकर साथ साथ चलते रहेंगे।
इस पवित्र संस्कार के इस पवित्र भाव को पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने की हमारे प्रवृत्ति ने पलीता लगाया है। कही पति ने अपनी पोष्या नही माना, कही पत्नी ने पोष्या होना स्वीकार नही किया तो कहीं उसने पति को पोष्य मानकर भी उसके साथ समन्वय किया। परंपराएं कुछ बोझ सा लगने लगीं। जिसका परिणाम ये हुआ कि समाज की परंपराओं को रूढि़वाद की जंग लगने लगीं। जिसका परिणाम ये हुआ कि समाज की परंपराओं को रूढि़वादी मानकर कुछ युवक युवती विवाह को ही एक धोखा मानने लगे।उन्होंने समाज मे प्रचलित परंपराओं की समीक्षा करनी उचित नही समझी अपितु परंपराओं को ही परिवर्तित करने की मूर्खता करनी आरंभ कम दी। आज भारतीय समाज में विवाह की इस आदर्श परंपरा के शीर्षासन का दुखद काल चल रहा है।
इसी का परिणाम आया है समलैगिंक संबंधों के प्रति कुछ युवक युवतियों का आकर्षण। इन संबंधों को ईसाईयत, इस्लाम या हिंदू धर्म की मान्यताओं से मिलान करके न देखें। इन्हें केवल प्रकृति के नियमों से बांधकर देखें कि क्या प्रकृति में किसी अन्य यौनि में भी ऐसा होता है? पशु पक्षी भी क्या ऐसा करते हैं? या अपनी वंश वृद्घि के लिए संतानोत्पादन करना ही श्रेयस्कर समझते हैं। यदि वहां ऐसा नही है तो मानव को भी अपना धर्म समझना चाहिए। वह अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग न करें।
समाज शब्द अपने आप में एक सुसंस्कृत सुसभ्य और मानवीय गुणों से भरे हुए लोगों के समुदाय का नाम है। इसे आप कूड़े करवट की संज्ञा नही दे सकते। किंतु जब मनुष्य अपने समाज की रीतियों को तोडऩे लगे और प्रकृति के विरूद्घ आचरण करने लगे तो तब ये कहा जा सकता है कि उससे अच्छा तो पशु और पक्षियों का समाज है जो अपने नियमों पर और प्रकृति के नियमों पर अटल रहता है-आज भारत में संविधान की मूल भावना से विपरीत आचरण करते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 को हटाने की बात कुछ लोग उठा रहे है। यह धारा समलैगिंक संबंधों की विरोधी है। यह धारा हमें मानव का धर्म सिखाती है कि तेरी मर्यादायें क्या हैं, तेरी सीमायें क्या हैं, यौन के विषय में तुझे ऐ मानव क्या क्या करना है, और क्या-क्या नहीं करना ? इसका हमारे दण्ड विधान में होना हमारी उस मानसिक दुर्बलता को झलकाता है जो सामान्यत: एक दुष्पृवृत्ति के रूप में हमारे भीतर छिपी रहती है अर्थात अपाकृतिक मैथुन या समलैंगिक संबंध स्थापित करना। ये संबंध सहमति के आधार पर भी अनैतिक ही माने जाने चाहिए। अनैतिकता सहमति से भी पनप सकती है। किसी भी व्यक्ति की सहमति से समाज के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े तो अनैतिक ही कहा जाना चाहिए। हमें अपनी प्राचीन परंपराओं की समीक्षा की आवश्यकता है। विवाह को समीक्षित करने की आवश्यकता है। कामुकता अनाचार और व्यभिचार को बढ़ावा देना पशु समाज से भी बदत्तर स्थिति को आमंत्रित करना होगा। आज जब पश्चिमी देश हमारे विवाह संस्कार को गृहस्थ जीवन की पवित्रतम परंपरा मान रहे हैं, तो हमें उनकी जूठन खाने की बजाय अपनी सदपरंपरा पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। विवाह के बंधन को एक संस्कार मानकर उसे और परिष्कृत व संस्कारित करने की आवश्यकता है।
सुन्दर लेख के लिए बधाई