महबूबा मुफ़्ती की जीत के मायने

mufti_mehboobbaडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती राज्य की विधान सभा के लिए अनन्तनाग से चुन ली गई हैं । यह सीट उनके पिता मुफ़्ती मोहम्मद की मौत के कारण रिक्त हुई थी । वैसे तो किसी राज्य के मुख्यमंत्री का किसी विधान सभा सीट के लिए उपचुनाव में जीत जाना बड़ी ख़बर नहीं है । लेकिन महबूबा की जीत की ख़बर केवल ख़बर नहीं बनी बल्कि वह महाख़बर बन गई । यहाँ तक की पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी इस चुनाव में खासी रुचि दिखाई जा रही थी ।
इस पर चर्चा करने से पहले यह जान लेना भी जरुरी है कि आतंकवादियों ने इस चुनाव का बायकाट करने का आदेश जारी किया था और इश्चहार लगा कर , मतदान करने वालों को सबक़ सिखा देने की धमकी दी हुई थी । आतंकवादियों द्वारा यह धमकी देने का एक ही अर्थ निकाला जा सकता है कि वे प्रदेश की आम जनता से कट गए हैं और अब केवल बंदूक़ के बल पर अपना दबदबा बनाए रखना चाहते हैं । इस धमकी के बावजूद चौंतीस प्रतिशत मतदान हुआ जो घाटी की हालत देखते हुए केवल संतोषजनक ही नहीं बल्कि उत्साह वर्धक भी कहा जा सकता है ।
दरअसल यह मतदान पीडीपी-भाजपा गठबंधन को लेकर किया गया जनमत संग्रह भी कहा जा सकता है । ऐसा प्रचार काफ़ी देर से किया जा रहा है कि कश्मीर का आम आदमी , पीडीपी से नाराज़ हो गया है क्योंकि उसने सत्ता में बने रहने की ख़ातिर भारतीय जनता पार्टी से समझौता कर लिया है । भारतीय जनता पार्टी और पीडीपी का प्रदेश में सरकार बनाने के लिए समझौता न्यूनतम साँझा कार्यक्रम के आधार पर हुआ है । मोटे तौर पर दोनों दल अपने वैचारिक मुद्दों पर विद्यमान हैं । लेकिन घाटी में यह प्रचारित किया जा रहा था कि भाजपा मुस्लिम विरोधी पार्टी है । आम चुनाव में जनता ने प्रदेश में भाजपा को सत्ता के रास्ते से दूर रखने के लिए पीडीपी को जिताया था । लेकिन पार्टी ने तो उस जनादेश के विपरीत जाकर भारतीय जनता पार्टी के साथ ही मिल कर सत्ता में भागीदारी निश्चित कर ली । कहा जा रहा था कि घाटी के कश्मीरी मुसलमान पीडीपी के इस विश्वासघात से सख़्त ख़फ़ा हैं और वे महबूबा मुफ़्ती को सबक़ सिखाने के लिए वेकरार है । पीडीपी से मुसलमानों की नाराज़गी का यह तथाकथित ख़ौफ़ इतना घर कर गया था कि पार्टी के भीतर भी महबूबा मुफ़्ती के कुछ शुभचिन्तकों ने उन्हें यह चुनाव न लड़ कर विधान परिषद में मनोनयन के सुरक्षित विकल्प को अपनाने की सलाह दी । इसे महबूबा की दिलेरी ही कहा जाएगा कि उसने एक मुझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह पीडीपी-भाजपा गठबंधन का निर्णय प्रदेश की आम जनता से ही करवाने का निर्णय किया । वे चुनाव में स्वयं उम्मीदवार बनीं । इसलिए इस चुनाव में महबूबा मुफ़्ती का भविष्य ही दाँव पर नहीं लगा हुआ था बल्कि आतंकवादियों और नैशनल कान्फ्रेंस दोनों की ही साख भी दाँव पर लगी हुई थी । आतंकवादियों की साख तो जनता ने ३४ प्रतिशत मतदान करके मिट्टी में मिला दी । आम तौर पर घाटी में ४५-५० के बीच मतदान होता है और उसे सम्मानजनक मतदान का दर्जा दिया जाता है । उपचुनावों में सामान्य से कम ही मतदान देखने को आता है । लेकिन चुनाव वाले दिन ख़राब मौसम के बावजूद ३४ प्रतिशत मतदान एक प्रकार से जनता की अदालत में आतंकवादियों की हार ही मानी जाएगी ।
नैशनल कान्फ्रेंस को भी इस चुनाव से बहुत आशा थी । फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला , बाप-बेटे की जोड़ी को लगता था कि जनता पीडीपी के इस तथाकथित विश्वासघात से क्रोधित होकर उसके पास चली आयेगी । यही कारण था कि बाप बेटे की इस जोड़ी ने चुनाव में धुंयाधार प्रचार किया था । सोनिया कांग्रेस भी इस चुनाव में अपनी वापिसी का रास्ता तलाश रही थी । यहाँ तक वैचारिक आधार का प्रश्न है , सोनिया कांग्रेस घाटी में पीडीपी और नैशनल कान्फ्रेंस दोनों का प्रतिरुप ही मानी जाती है । भाजपा का विरोध करने में यह दोनों दलों से भी आगे है । सोनिया कांग्रेस को आशा थी कि प्रदेश की जनता भाजपा विरोध के कारण उसे जिता सकती है । इसलिए इस चुनाव के परिणाम की ओर सभी की आँखें लगी हुई थीं । लेकिन चुनाव परिणामों में महबूबा मुफ़्ती की जीत ने सभी की ग़लतफ़हमी दूर कर दी । इस चुनाव से इतना तो ज़ाहिर है कि रियासत का आम आदमी अपने यहाँ अमन चैन चाहता है । वह अपने नेताओं का चुनाव ख़ुद करना चाहता है । आतंकवादी प्रदेश की आम जनता को यह अधिकार देना नहीं चाहते । वे बंदूक़ के बल पर आम जनता को बंधक बना कर रखना चाहते हैं । यदि जनता को विश्वास हो जाए कि बंदूक़ का डर समाप्त हो गया है तो वह अपने मत की अभिव्यक्ति करती है । अनन्तनाग की जनता ने तो बंदूक़ का भय होते हुए भी अपने मत की निष्पक्ष अभिव्यक्ति की है । महबूबा बारह हज़ार के भी ज़्यादा अन्तर से अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी को पराजित कर विधान सभा के लिए चुन ली गईं । नैशनल कान्फ्रेंस के प्रत्याशी को तो कुल मिला कर दो हज़ार वोटों के आसपास ही संतोष करना पडा । दिल्ली में बैठे तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया को इसीलिए हैरानी होती है कि इतनी बड़ी तादाद में मतदाता मतदान केन्द्रों पर क्यों आए ? यदि आए भी तो उन्होंने महबूबा मुफ़्ती को वोट कैसे डाल दिए क्योंकि इस राष्ट्रीय मीडिया के अनुसार तो घाटी के सारे मुसलमानों ने महबूबा की पार्टी को इस्लाम विरोधी घोषित कर रखा है । महबूबा मुफ़्ती की जीत ने यह भी सावित कर दिया है कि दिल्ली में बैठ कर कश्मीरियों के मन को सही सही पढ़ लेने के तथाकथित विशेषज्ञ ज़मीनी सच्चाई से कितनी दूर हैं ।
महबूबा मुफ़्ती की इस जीत से उन लोगों की ताक़त तो बढेगी ही जो कश्मीर घाटी में शान्ति देखना चाहते हैं साथ ही उस मौन बहुमत की हिम्मत भी बढ़ेगी जो आतंकवादियों के साथ नहीं है । पीडीपी के अन्दर भी महबूबा मुफ़्ती की ताक़त में वृद्धि होगी । उनकी अपनी पार्टी के भीतर भी एक ऐसा ग्रुप है जो भाजपा-पीडीपी गठबन्धन की मुख़ालफ़त करता है । मुफ़्ती मोहम्मद सैयद की मौत के बाद वह ग्रुप महबूबा को कमज़ोर कर पार्टी के भीतर अपनी महत्ता बढ़ाने की ताक़त चाहता था । ज़ाहिर है अनन्तनाग ने उनकी आशा पर पानी फेर दिया है ।
आतंकवादियों की निराशा इसी से झलकती है कि उन्होंने चुनाव परिणाम निकलने के कुछ घंटे बाद ही सुरक्षा बलों पर आक्रमण कर दिया । यह महबूबा मुफ़्ती का बढ़ा हुआ आत्मविश्वास ही था कि वे उन सुरक्षा कर्मियों को श्रद्धांजलि अर्पित स्वयं गईं और उन्होंने स्पष्ट कहा भी कि जिन लोगों ने आक्रमण किया है वे राज्य के हितों से खिलवाड़ तो कर ही रहे हैं साथ ही वे इस्लाम के नाम पर भी कलंक हैं । ऐसी हिम्मत इससे पहले किसी मुख्यमंत्री की नहीं हुई । उमर अब्दुल्ला और सोनिया कांग्रेस ने भी अपनी निराशा का प्रकटीकरण किया है । उनका कहना है कि चुनावों में धाँधली हुई है । चुनावों में धाँधली किसे कहते हैं और वह कैसे होती है , इसे अब्दुल्ला परिवार से बेहतर कौन जानता है । इसी अब्दुल्ला परिवार ने देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक नेता पंडित जवाहर लाल नेहरु की छत्रछाया में विधान सभा के पहले चुनाव में सभी ७५ सीटें हिना चुनाव लड़े जीत लीं थीं । उमर ये भी जानते ही होंगे कि उनकी दादी लोक सभा के लिए किस प्रकार की धाँधली से जीतीं थीं । महबूबा की जीत उनके विरोधियों को तो निराश करेगी ही लेकिन इससे भाजपा-पीडीपी गठबन्धन को निश्चय ही बल मिलेगा ।

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