ललित गर्ग
उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों की ही तरह ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिक्रिया में इसे विकास की जीत कहा है तो मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने प्रधानमंत्री के विकास के ‘विजन’ को और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रणनीतिक कुशलता को इस जीत का आधार बताया है। लेकिन यह जीत इसलिये भी संभव हो पायी है कि भाजपा के अलावा देश के अन्य राजनीतिक दलों ने अपनी विश्वनीयता खो दी है। इन चुनावों में विरोधी दलों की सुस्ती भाजपा की जीत का एक बड़ा कारक बनी है। इस जीत का बड़ा फायदा भाजपा को हाल ही में गुजरात में होने वाले चुनावों में मिलने वाला है। अगर गुजरात चुनाव जीत जाती है तो 2019 की जीत सुनिश्चित है।
एक तरह से इन चुनावों को आदित्यनाथ योगी सरकार के कामकाज की परीक्षा माना जा रहा था, इस परीक्षा में वे सफल हुए हंै। योगी सरकार की मन और मंशा दोनों पवित्र हैं, वे जनता की सेवा करना चाहते हैं, उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाना चाहते हैं। फिर भी योगी जब से मुख्यमंत्री बने हंै, उन्हें भाजपा में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय परिवेश में एक कद्दावर का नेता माना जाता है, उनकी कार्यशैली की सराहना भी हुई है, वे भाजपा में मोदी के विकल्प के रूप में भी देखे जाते हैं। ये स्थितियां तो पहले से कायम हंै, लेकिन इन निकाय चुनावों के नतीजों ने योगी को राजनीतिक तौर पर व्यापक परिवेश में मजबूत किया है। इन नतीजों का श्रेय मुख्यमंत्री को इसलिए भी दिया जाएगा कि उन्होंने पूरे प्रदेश में धुआंधार प्रचार किया था, जबकि सपा नेता अखिलेश यादव, बसपा प्रमुख मायावती और कांग्रेस की ओर से किसी बड़े नेता ने इसमें प्रचार नहीं किया। पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने निकाय चुनाव में इस हद तक अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाई थी। इन परिणामों का असर केवल यूपी की राजनीति तक सीमित रहने वाला नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति पर इसका व्यापक असर पड़ सकता है। इसके लिये भाजपा को अपनी पीठ ठोकने का अधिकार है, लेकिन उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बाद निकाय चुनावों में भी मिली जीत उसकी जिम्मेदारियों को बढ़ाने वाली है। इस जिम्मेदारी का अहसास होना जरूरी है।
प्रश्न यह भी है कि आदित्यनाथ ने चुनाव प्रचार के लिए श्रम किया लेकिन विपक्षी दल पूरे दमखम का प्रदर्शन करने से बचते क्यों दिखाई दिये? हैरत नहीं कि इसकी एक वजह नतीजे प्रतिकूल आने का अंदेशा रहा हो। वे अपनी सियासी सुस्ती के लिए किसी अन्य को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते और न ही ऐसी कोई दलील दे सकते हैं कि उन्होंने तो इन चुनावों को पूरी तैयारी से लड़ा ही नहीं। लगता यह भी है कि विपक्ष में कहीं-न-कहीं भाजपा के बढ़ते जनमत की बौखलाहट है। वह पहले से ही मानकर चल रही है कि भाजपा की जीत निश्चित है। ऐसी स्थितियों में विपक्षी दल अपना जनाधार कैसे मजबूत करेंगे? यह एक अहम प्रश्न है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी को पिछले विधानसभा चुनावों के बाद जिस तरह हाशिये पर डाल कर देखा जा रहा था उसमें कितनी सच्चाई रही, इन चुनावों ने दिखा दिया। सशक्त लोकतंत्र के लिये सशक्त विपक्ष जरूरी है, यह बात सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को समझना जरूरी है। विपक्ष को मनोबल दृढ़ रखना होगा, व्यापक तैयारी करनी होगी, विकास में ठहराव या विलंबन (मोरेटोरियम) परोक्ष में मौत है। जो भी रुका, जिसने भी जागरूकता छोड़ी, जिसने भी सत्य छोड़ा, वह हाशिये में डाल दिया गया। आज का विकास, चाहे वह एक राजनीतिक दल का है, एक राजनेता का है, एक व्यक्ति का है, चाहे एक समाज का है, चाहे एक राष्ट्र का है, वह दूसरों से भी इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि अगर कहीं कोई गलत निर्णय ले लेता है तो प्रथम पक्ष बिना कोई दोष के भी संकट में आ जाता है। इसलिये प्रतिपक्ष की सुदृढ़ता जरूरी है।
लोकतंत्र में व्यापक बदलाव दिखाई दे रहे हैं। यह एक प्रांत के निकाय चुनाव को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागरूकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि चुनाव को लेकर जनता कितनी उत्साहित है। हमने देखा कि किस तरह निकाय चुनाव नतीजों का सीमित राजनीतिक महत्व होने के बावजूद वे राज्य विशेष की राजनीति के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति की भावी दशा-दिशा का भी सूचक-संदेशवाहक बने हैं। चूंकि वे आम जनता के रुख-रवैये से परिचित कराते हैं इसलिए सीमित महत्व के बावजूद उनकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती। इसी के साथ यह भी सही है कि कई बार निकाय चुनावों के नतीजे कुछ और होते हैं और विधानसभा या फिर लोकसभा के कुछ और। यह बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। निकाय चुनाव हो या फिर विधानसभा या लोकसभा के चुनाव- इन चुनावों की जीत एक बड़ी जिम्मेदारी का सबब होते हैं। संतुलित समाज व्यवस्था इस सबब का हार्द है। व्यवस्थागत शांति केवल एक वर्ग की खुशहाली से नहीं आती। एक वर्ग अगर साधन-सम्पन्न एवं सुविधा-सम्पन्न हो गया, तब पूंजीवादी व्यवस्था पर अब तक प्रहार क्यों किया जाता रहा था? और दूसरा वर्ग जिसमें कुछ लोग ऐसे हों जिन्हें पेट में घुटने चिपकाकर सोना पडे़ तो खुशहाली के सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाएंगे और वही पुरानी कहावत चरितार्थ होती रहेगी कि अगर दुनिया में कहीं भी गरीबी है तो दुनिया के सभी भागों की सम्पन्नता के लिए खतरा है। जीत के बाद यदि जनाधार के विश्वास पर खरे नहीं उतरते हैं तो हार का खतरा भी सामने खड़ा रहता है। इसलिये राजनीति को अब मिशन मानकर चलना ही होगा।
केंद्र में भाजपा को सत्तासीन कराने में उत्तर प्रदेश में चाहे लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव भाजपा को मिली जबर्दस्त कामयाबी का बड़ा योगदान था। अब सोलह नगर निगमों में से अधिकतर पर काबिज होकर भाजपा ने जहां राज्य में अपनी चुनावी सफलता का क्रम बरकरार रखा है, वहीं आलोचकों को फिलहाल खामोश कर दिया है। राज्य की 198 नगरपालिकाओं में सौ से ज्यादा पर भाजपा ने जीत दर्ज की है, वहीं 438 नगर पंचायतों में से भी ज्यादातर उसी के कब्जे में गई हैं। इसके अलावा, भारी संख्या में भाजपा के पार्षद विजयी हुए हैं। इस चुनाव की खास बात यह रही कि प्रदेश में पिछली बार सत्ता में रही सपा एक भी नगर निगम पर काबिज नहीं हो सकी। कांग्रेस की स्थिति तो और भी खराब है। अलबत्ता बसपा की स्थिति सपा और कांग्रेस से तनिक बेहतर है। इसलिये कांग्रेस एवं सपा को अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है।
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव परिणाम गुजरात में कितना असर दिखाएंगे, इसका फिलहाल आकलन करना कठिन है, लेकिन इतना अवश्य है कि जहां कांग्रेस गुजरात में इन चुनावों का उल्लेख करने से बचेगी वहीं भाजपा उन्हें अपनी उपलब्धि के तौर पर रेखांकित करेगी। जो भी हो, यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि निकाय चुनाव नतीजे आते ही एक बार फिर से ईवीएम के खिलाफ रोना-पीटना मच गया है। यह चुनाव आयोग एवं चुनाव प्रणाली को धुंधलाने वाली गंदी राजनीति है। अगर ईवीएम की गड़बड़ी ने भाजपा की मदद की तो फिर 16 नगर निगमों में से 2 विपक्ष के पास कैसे चले गए? यह संयोग ही है कि दोनों नगर निगम उस बसपा के खाते में गए जिसने ईवीएम के खिलाफ सबसे ज्यादा शोर मचाया था। प्रतिपक्ष, जो सदैव अल्पमत में ही होता है, अपनी हार के लिये चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर ऐसे आरोप लगाता रहा है, लेकिन यह लोकतंत्र के लिये घातक है। आज तो हारने वाले नेता चुनाव प्रणाली को समस्या बना रहे हैं– समाधान नहीं दे रहे हैं। इससे लोगों का विश्वास टूटता है।