डा. राधेश्याम द्विवेदी
मनुवाद व ब्राह्मणवाद दो स्वार्थ-परक शब्द पिछले 100 साल में भारत की राजनीति में बहुत आये। दूसरे शब्द हैं जैसे की ‘अल्पसंख्यक”, ‘बहुसंख्यक”, “साम्प्रदायिकता”, ‘दलित”, “महा-दलित”, “हरिजन”, “सर्वहारा-वर्ग”,और भी कुछ शब्द हैं जिनको सभी राजनीतिक दल अपने- अपने फायदे के अनुसार परिभाषित करते हैं। समय आने पर खुद अपने ही दिये “परिभाषा” से मुकर जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है “मनुवादी” शब्द बहन जी ने 15-20 साल पहले इस शब्द का उपयोग समाज के कुछ लोगों को गरियाने और नीचा दिखाने के लिये करती थी। वो उंची जाति के क्रिया-कलापों और राजनैतिक गतिविधियों को मनुवादी कहती थी। समय के साथ उन्होने इस शब्द की परिभाषा बदल दिया और कथित मनुवादियों के सहयोग और समर्थन से सरकार बनाई। उसी तरह कुछ अर्ध-शिक्षित बुद्धिजीवी अपने “सीमित ज्ञान” के आलोक में ज्ञानी ब्राह्मणों के रचनायों को झूठा ठहराने के लिये नये शब्द “ब्राह्मणवाद” का सहारा लिया और अपने सुविधानुसार इस शब्द को परिभाषित किया। कभी-कभी किसी-किसी के द्वारा समूची ब्राह्मण जाति की गतिविधियों को ब्राह्मणवाद की संज्ञा दी जाती है। इस तरह “मनुवादी’ “ब्राह्मणवादी” शब्द की कोई परिभाषा नही बल्कि स्वार्थी नेतायो और बुद्धिजीवियों की मनगढ़ंत किदवंतियाँ हैं।
मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता :-महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है। मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं-
जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।
(अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।)
‘मनुवाद’ का नकारात्मक अर्थ:- वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मण -वाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है। सेक्युलरिज्म की तरह बिना अर्थ जाने भारतीय राजनीति विशेषकर दलित राजनीति में जिन दो शब्दों का सर्वाधिक उपयोग या दुरपयोग हुआ है वे है “मनुवाद और ब्राह्मणवाद” ।
मनु कोई ब्राह्मण नहीं :- अधिकांश लोगों में भ्रम है कि मनु कोई एक व्यक्ति था जो ब्राह्मण था । तथ्य यह है कि मनु क्षत्रिय थे और एक नहीं अनेक थे, जार्ज और हेनरी की तरह । कम से कम दस मनुओं का जिक्र आया है ।मनु के बारे में दूसरा भ्रम मनु सिद्धान्त को मनुवाद बना देना है । सिद्धान्त और वाद में बहुत अंतर होता है । सिद्धान्त का आधार सत्य होता है जबकि वाद का आधार परंपरा या सुविधा होता है । सही बात तो यह है कि मनु स्मृति में मनु सिद्धान्त नाम की भी कोई चीज नहीं है अपितु यह आदर्श नियमों का समूह मात्र है जो क्रमशः जुडते गए । कहना नहीं होगा कि मनु स्मृति में योग्यता को सर्वोच्च माना गया है इसलिए अकर्मणय और आलसी लोगों ने इसे अपने विरुद्ध मान लिया और वे ही लोग भ्रम फैलाने में जुट गए ।मनु स्मृति की मूल भावना पवित्र है, जो योग्य के योग्य का प्रतिपादन करती है ।
ब्राह्मण वाद के बारे सीमित सोच :- जहां मनुवाद कोई वाद नहीं है वहीं ब्राह्मणवाद एक प्रबल वाद है लेकिन बडे आश्चर्य की बात है कि मनुवाद की आलोचना करने वाले कभी भी ब्राह्मणवाद की आलोचना नहीं करते । किसी नियम, कानून या परम्परा के तहत जब किसी व्यक्ति को उसकी जाति, धर्म, कुल, रंग, नस्ल, परिवार,भाषा, प्रान्त विशेष में जन्म के आधार पर ही किसी कार्य के लिए योग्य या अयोग्य मान लिया जाए, ब्राह्मणवाद कहलाता है । जैसे पुजारी बनने के लिए ब्राह्मण कुल में पैदा होना । ब्राह्मण वाद के बारे में आम जनता सोच यहीं तक सीमित है । कम से कम दलित चिन्तक तो यही तक सोच पाते है कि ब्राह्मण का मंदिर का पुजारी बनना ही ब्राह्मणवाद है । यदि सभी ब्राह्मणों को पूजा-पाठ और पूजारी बनने से रोक दिया जाए तो ब्राह्मणवाद भी समाप्त हो जाएगा, बस इतनी सी सोच है इनकी । यद्यपि यह ब्राह्मणवाद है, पर यही ब्राह्मणवाद नहीं है । ब्राह्मणवाद का दायरा बहुत बडा है और हर क्षेत्र में व्याप्त है।ब्राह्मणवाद हर वाद का पितामह है, इसलिए हर वाद जो जन्म के आधार पर किसी योग्यता का निर्धारण करता है अपने स्वरूप में ब्राह्मणवाद ही है । फिर चाहे वह नारीवाद हो,किसानवाद हो, अल्पसंख्यकवाद हो या फिर आरक्षणवाद हो; सभी के सभी ब्राह्मणवाद ही है, क्योंकि इनका निर्धारण योग्यता से नहीं जन्म से होता है ।
आरक्षण व्यवस्था- ब्राह्मणवाद का शुद्ध रूप आरक्षण व्यवस्था में देखने को मिलता है फिर चाहे वह महिलाओं के नाम पर हो या फिर किसानों, अल्पसंख्यकों,ओबीसी अथवा दलित वर्ग के नाम पर हो; विशुद्ध रूप से ब्राह्मणवाद ही है । ब्राह्मणवाद का एक रूप ओर है वो है वंशानुगत होने की प्रवृति । आज कोई भी महिला,कोई भी किसान, कोई भी पिछडा, कोई भी अल्पसंख्यक, कोई भी दलित संपन्न और सक्षम हो जाने के बाद भी आरक्षण की सुविधा का खोने को तैयार नहीं है । ब्राह्मणवाद का तीसरा लक्षण है विशेषाधिकार । एक किसान मर्सडीज रखकर भी इनकम टेक्स देने से इन्कार कर सकता है । एक महिला, दलित विषेष कानून का सहारा लेकर किसी को भी गिरफतार करवा सकता है । अर्थात इनके वचन ही सत्य और स्वप्रमाणित मान लिए जाते है। जैसे किसी समय ब्राह्मणों के वचनों को सत्य माना लिया जाता था। प्राचीन काल में ब्राह्मण समाज से ही शिक्षित लोग आते थे, जो समाज के नीति और नियत को निर्धारित करते थे, लेकिन जो विसंगतियाँ हैं वो समय के साथ साथ खरा नही उतर रही हैं। समय के साथ कुछ स्वार्थी लोगों ने अपने फायदे के लिये इसका उपयोग किया है। इसके लिये समूची ब्राह्मण जाति को दोषी नही ठहराया जा सकता है। आज भारत की सभ्यता और संस्कृति इस लिये अमर है, क्योकि ब्राह्मणों ने इसको अपने ज्ञान और लेखनी से निःस्वार्थ एक पीढी से दूसरे पीढी तक आगे बढाया है। आज भी बहुसंख्यक ब्राह्मण परिवार मांस और मदिरा का सेवन नही करते हैं। जो परिवार पवित्र होगा वही पुजारी बनेगा।