यज्ञ करने वाला व्यक्ति कभी निर्धन नहीं होताः आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री

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मनमोहन कुमार आर्य

               आज रविवार दिनांक 16-7-2023 को आर्यसमाज, धामावाला-देहरादून के सत्संग में यज्ञ, भजन, सामूहिक प्रार्थना एवं वैदिक विद्वान आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री, सहारनपुर का व्याख्यान हुआ। सत्संग प्रातः 8.00 बजे से आरम्भ होकर दो घंटे बाद 10.00 बजे समाप्त हुआ। अपने व्याख्यान में आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि संसार में चारों तरफ अविद्या फैली हुई है। ऐसे समय में जो लोग वेद मार्ग पर चल रहे हैं उन पर ईश्वर की बहुत बड़ी कृपा है। आचार्य जी ने यज्ञ को कल्प बताया। उन्होंने कहा कि सृष्टि की आदि उत्पन्न ऋषियों ने समाधिष्ठ होकर वेद मन्त्रों के अर्थों को प्राप्त किया था और इसके आधार पर ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की थी। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद का ऐतरेय, यजुर्वेद का शतपथ, सामवेद का सामपथ तथा अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण-ग्रन्थ हैं। उन्होंने बताया कि शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में यज्ञ की चर्चा है। आचार्य जी ने श्रोताओं को बताया कि जो यज्ञ बिना मन्त्रों के किया जाता है वह तामस यज्ञ होता है। उन्होंने कहा कि रश्मि का अर्थ होता है सब पदार्थों से रस को ग्रहण वाली सत्ता सूर्य। सूर्य की रश्मियां जल व ओषधियों आदि से रस को सोखने का कार्य करती हैं। सृष्टि को स्वस्थ तथा शुद्ध रखना सब मनुष्यों का कर्तव्य हैं।

               आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य को प्रातः व सायंकाल गोघृत एवं यज्ञ सामग्री से 16-16 आहुतियां देकर दैनिक यज्ञ करना चाहिये। दैनिक यज्ञ करने से मनुष्य दिन में होने वाले पापों से बचता है। आचार्य जी ने श्रोताओं को बताया कि यज्ञ का नाम विष्णु है। विष्णु का अर्थ व्यापक होना होता है। यज्ञ करने से यज्ञ में डाले गये घृत आदि सुगन्धित एवं पोषण करने वाले पदार्थों का धूम्र बनता है जो सारे वातावरण में व्याप्त हो जाता है। सुगन्धि के प्रसार से दुर्गन्ध का नाश होकर वायु सुगन्धित हो जाती है। आचार्य जी ने उदाहरण देकर बताया कि यज्ञ करने वाला व्यक्ति कभी निर्धन वा गरीब नहीं होता। आचार्य जी ने मनुष्यों के नित्य कर्मों पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि मन्त्र परमात्मा से प्राप्त वेदों में ही हैं। अन्य मनुष्य कृत ग्रन्थों में लिखे संस्कृत श्लोकों की संज्ञा मन्त्र नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि मन्त्रों को बनाने वाला केवल परमात्मा है। वेद के मन्त्रों के द्रष्टा ईश्वरनिष्ठ, योगनिष्ठ एवं वेदज्ञान से सम्पन्न ऋषि होते हैं। समाधि अवस्था में ऋषियों को वेद के मन्त्रों के अर्थों का सत्य-सत्य ज्ञान होता है। आचार्य जी ने बताया कि यज्ञ में आहुतियों के देने से पूर्व जो मन्त्र बोले जाते हैं वह पूरोवाक् कहे जाते हैं। इन स्तुति-प्रार्थना-उपासना, स्वस्तिवाचन तथा शान्तिकरण आदि के मन्त्र बोलने से यज्ञ एवं हृदय की भूमि पवित्र होती है। आचार्य जी ने यह भी बताया कि वेद के तीन प्रमुख विषय ज्ञान, कर्म एवं उपासना हैं।

               आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि परमात्मा सब मनुष्यों का मार्गदर्शक है। मनुष्य की आत्मा जब तक परमात्मा का ध्यान, चिन्तन और यज्ञ नहीं करती तब तक वह प्रकाशित नहीं होती है। उन्होंने कहा कि जैसे यज्ञ में डाली गयी समिधा अग्निमय होकर प्रकाशित होती है उसी प्रकार से ईश्वर के ध्यान, चिन्तन एवं यज्ञ करने से जीवात्मा ईश्वर से जुड़कर प्रकाशित होती है और वह दुर्गुण, दुःख एवं दुव्र्यस्नों से छूट जाती है। विद्व़ान आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री ने बताया कि सरलता का अर्थ अहंकारशून्य होना होता है। जो मनुष्य जीवन में सरलता को प्राप्त नहीं होता वह यज्ञ की समिधा के समान सरल नहीं बनता। आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि यज्ञ में श्रद्धा का होना भी आवश्यक है। यदि यज्ञ करने वाले मनुष्य के अन्दर श्रद्धा नहीं होगी तो उसका यज्ञ सफल नहीं होगा।

               आचार्य जी के व्याख्यान के बाद समाज के प्रधान श्री सुधीर गुलाटी जी ने आर्यसमाज के एक नये सदस्य श्री सुधांशु वर्मा जी का परिचय दिया। उन्होंने आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री को यज्ञ पर उत्तम व्याख्यान देने के लिए धन्यवाद भी दिया। आर्यसमाज के दस नियमों को पढ़ा वा सुना भी गया। इसके बाद आर्यसमाज के युवा मन्त्री श्री नवीन भट्ट जी ने शान्तिपाठ कराया। सत्संग की समाप्ति के बाद प्रसाद वितरण हुआ। सभी सदस्य एक दूसरे से मिले और उनके हालचाल पूछें। आज के आयोजन में स्वामी श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम के बच्चे तथा स्त्री-पुरुष बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

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