चुनाव की तैयारी

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चुनाव लड़ना या लड़ाना कोई बुरी बात नहीं है। राजनीतिक दल यदि चुनाव न लड़ें, तो उनका दाना-पानी ही बंद हो जाए। चुनाव से चंदा मिलता है। अखबारों में फोटो छपता है। हींग लगे न फिटकरी, और रंग चोखा। बिना किसी खर्च के ऐसी प्रसिद्धि किसे बुरी लगती है ? इसलिए हारें या जीतें, पर राजनेता और राजनीतिक दलों के लिए चुनाव बहुत जरूरी है।
यों तो संविधान के अनुसार देश में हर पांचवें साल चुनाव होते थे; पर इंदिरा गांधी ने यह व्यवस्था तोड़ दी। बस, फिर क्या था ? चादर फटी, तो फटती ही गयी। अब तो वह इतनी फट चुकी है कि थेगली लगाने की जगह ही नहीं बची। शायद ही कोई महीना हो, जब कहीं न कहीं चुनाव या उपचुनाव न होते हों।
नगर, जिला, राज्य, देश.. और फिर भी मन न भरे तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव। इनसे पीछा छुटे तो छात्रसंघ और सहकारी संस्थाओं के चुनाव। इसके अलावा गली मोहल्ले की धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं भी तो हैं। सुना है कि अब तो ‘गुंडा सभा’ का मुखिया भी चुनाव से ही तय होता है। ये तो भला हो पूर्व चुनाव आयुक्त श्री शेषन का, जिनके कोड़े से चुनावी शोर घट गया। वरना लोकतंत्र का उत्सव होने के बावजूद ये बुजुर्गों और बीमारों के लिए परेशानी का कारण बन जाते थे।
लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने काम संभाला है, तबसे चुनाव को एक नयी प्रतिष्ठा मिल गयी है। मोदी और शाह का हर भाषण जनता को चुनावी भाषण जैसा ही लगता है। इन्होंने पूरी पार्टी को चुनावी मशीन बना दिया है। बाकी पार्टियां जब तक दौड़ने के लिए जूते पहनती हैं, तब तक ये आगे निकल जाते हैं।
हमारे शर्मा जी भा.ज.पा. वालों की इस सक्रियता से बहुत परेशान हैं; पर इसे वे अपने मुंह से कह नहीं सकते। इसलिए प्रायः किसी और तरह उनके दिल का दर्द छलक जाता है।
– वर्मा, ये अच्छी बात नहीं है। मोदी और शाह हमेशा चुनाव की बात करते रहते हैं। अभी 2017 चल रहा है; पर उन्होंने 2019 के चुनाव का बिगुल बजा दिया है। शाह कह रहे हैं कि उन्हें 350 से अधिक सीट जीतनी हैं। तुम उन्हें समझाओ कि इतनी जल्दी ठीक नहीं है।
– शर्मा जी, इतनी मेरी औकात नहीं है; पर आपको इससे क्या परेशानी है ?
– परेशानी तो है ही। पिछली बार उन्होंने साल भर पहले लंगोट कस लिया था, तो हमारी सीट 44 रह गयीं। इस बार वो जिस तरह दहाड़ रहे हैं, उससे डर लगता है कि दहाई की ये संख्या घटकर कहीं इकाई में न रह जाए ?
– शर्मा जी, जो आपकी नियति है, वो बचा-खुचा तो आपको मिलेगा ही; पर आपको चुनाव की तैयारी से किसने रोका है ?
– वर्मा जी, सच ये है कि हमारी पार्टी के पास पैसे की बहुत कमी हो गयी है। अब कोई कार्यकर्ता ए.सी. गाड़ी और खानपान के मोटे भत्ते के बिना काम नहीं करता। फिर दिन भर की मेहनत के बाद रात का भी प्रबंध करना पड़ता है। वरना उनका शरीर टूटा सा रहता है।
– शर्मा जी, ये आदतें तो आपके पुरखों ने ही डाली हैं; पर पैसे की तो आपकी पार्टी को कभी कमी नहीं रही..?
– तुम ठीक कह रहे हो; पर अब हमारी सरकारें दो-ढाई जगह ही बची हैं। वहां से भी इस बार पैर उखड़ने की संभावना है। इसलिए बड़े उद्योगपति बैरंग लौटा रहे हैं; और जो पैसा बाहर है, वो लाना भी मुश्किल हो गया है। मोदी और जेतली ने सब रास्ते बंद कर दिये हैं।
– वैसे शर्मा जी, आपके यहां भी तो कई साल से चुनाव की तैयारी हो रही है। सोनिया मैडम देश पर कृपा करके अध्यक्ष पद छोड़ना चाहती हैं; पर युवा हृदय सम्राट राहुल बाबा तैयार ही नहीं है।
– लेकिन पार्टी और देश के चुनाव में बड़ा अंतर है वर्मा।
– पर आपके नेता तो कांग्रेस को ही देश मानते थे। ‘इंदिरा इज इंडिया’ का नारा आपको ध्यान होगा। इसलिए चुनाव तो इधर भी हो रहा है और उधर भी। आप पार्टी के अंदर व्यस्त हैं और अमित शाह बाहर; लेकिन चुनाव चाहे जब भी हो, दोनों जगह के निर्णय निश्चित हैं।
– अच्छा, वो क्या वर्मा ?
– राहुल बाबा अपनी घरेलू पार्टी के अध्यक्ष बनेंगे और 350 से अधिक सीट लेकर मोदी देश के प्रधानमंत्री।
यह सुनकर शर्मा जी का चेहरा उतर गया। टी.वी. बता रहा था कि राहुल बाबा अगले महीने छुट्टी मनाने फिर विदेश जाएंगे। बाहर एक गाड़ी घंटाघर पर होने वाली अमित शाह की सभा का प्रचार कर रही थी।

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