विश्वगुरू के रूप में भारत-10

राकेश कुमार आर्य


यद्यपि हाल ही के वर्षों में रोगी यूरोप भारत की योग पद्घति की ओर झुका अवश्य है, उसे कुछ-कुछ पता चला है कि निरे भौतिकवाद से भी काम नहीं चलने वाला और यह भी निरे भौतिकवाद ने उसकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है। तब हारा थका और भौतिकवाद से पराजित यूरोप और संसार के अन्य देश भारत की ओर लौटते दिखायी दे रहे हैं।
हमारे शरीर शास्त्री ऋषि पूर्वजों ने देखा कि हमारे शरीर में 8 चक्र हैं। जिन्हें उन्होंने शरीर के विभिन्न भागों में कल्पित किया। इन 8 चक्रों को आप: चक्र मूर्धाचक्र, सहस्रार या ब्रह्मरन्ध्र चक्र, ज्योति चक्र अर्थात आज्ञा चक्र, रस: चक्र अर्थात विशुद्घ चक्र, अमृत चक्र अर्थात अनाहत चक्र, ब्रह्मचक्र मणिपूरक चक्र (नाभि मूल के पास) भू: चक्र=स्वाधिष्ठान चक्र (मूलाधार चक्र से दो अंगुल ऊपर) भुव: चक्र पेड़ू के पास (मूतेन्द्रिय के स्रोत के पास) स्व:चक्र=मूलाधार चक्र (अर्थात गुदा मूल और उपस्थ मूल के बीच में) कहा जाता है। हमारे ऋषियों ने स्थूल शरीर को स्वस्थ रखने के लिए इन अदृश्य 8 केन्द्रों को या चक्रों को प्राणायाम के माध्यम से सक्रिय और सचेष्ट रखने का प्रयास किया। (तैत्तिरीय आरण्यक प्रयास 10 अनु. 27) में आया है :-

ओ३म् आपो-ज्योति रसोअमृतं ब्रह्म
भूर्भुव: स्वरोम्।
इस मंत्र में आप:, ज्योति, रस:, अमृतम्, ब्रह्म, भू., भुव: और स्व: ये 8 शब्द हैं जो कि ईश्वरवाची हैं। जब प्राणायाम करते हैं तो उस समय इस मंत्र का धीरे-धीरे और शरीर के आठों केन्द्रों का मानसिक स्पर्श करते हुए हम जप करते हैं। उस समय जितनी गहराई से हमारा जप चलता है और जप में जितनी तल्लीनता व श्रद्घा होती है उतने ही अनुपात में हमारी इंन्द्रियों के दोष उनसे छूटते जाते हैं। दोषमुक्त इन्द्रियों से इन्द्रियों का स्वामी अर्थात मन हमारे आधीन होने लगता है। तब वह हमें इधर-उधर लेकर नहीं भागता। मन का इस प्रकार स्थिर हो जाना ही स्वस्थ=अपने आप में स्थित हो जाना है। इस प्रकार भारतीय ऋषियों ने और चिकित्साशास्त्रियों ने उसी व्यक्ति को स्वस्थ माना है जो कि अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है। इसी अवस्था को जितेन्द्रियता की स्थिति कहा जाता है। हमारे देश में प्राचीनकाल में लगभग हर व्यक्ति जितेन्द्रिय होता था, इसीलिए समाज में किसी भी प्रकार का अपराध नहीं था। सर्वत्र शांति थी और धर्म का राज था। लोग अपने आप ही एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते थे। घरों में ताले नही पड़ते थे। क्योंकि लोगों में किसी भी प्रकार का लोभ नहीं था।
कैप्टेन सिडेनहम का कहना है-”हिन्दू सामान्यत: विनम्र, आज्ञापालक, गम्भीर, अनाक्रामक, अत्यधिक स्नेही एवं स्वामिभक्त किसी की बात को शीघ्रता से समझने में दक्ष, बुद्घिमान, क्रियाशील, सामान्यत: ईमानदार, दानशील, परोपकारी संतान की तरह प्रेम करने वाले विश्वासपात्र एवं नियम पालन करने वाले होते हैं। जितने भी राष्ट्रों से मैं परिचित हूं, सच्चाई एवं नियमबद्घता की दृष्टि से ये उनसे तुलना करने योग्य हैं।”
स्ट्राबों का कहना है कि-”वे (अर्थात भारतीय) इतने ईमानदार हैं कि उन्हें अपने दरवाजों पर ताले लगाने की अथवा किसी भी अनुबंध के बंधनकारी होने के लिए कोई पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं पड़ती।”
वास्तव में यह बात सत्य है हमारे पूर्वज अपने मुंह से निकली वाणी का और शब्दों का ध्यान रखते थे। अभी भी जिन लोगों की अवस्था 80-90 वर्ष की है वे अपनी जुबान का ध्यान रखते हैं। अपने दिये वचन का ध्यान रखते हैं। जबकि आजादी के उपरांत जन्मी पीढ़ी की स्थिति दयनीय है, वह तो दिये वचन की बात तो छोडिय़े लिखे वचन की भी खाल उधेड़ती है और उससे भी मुकरने का हर संभव प्रयास करती है। इसका कारण ये है कि अब हम पर पश्चिमी संस्कृति हावी, प्रभावी होने लगी है। उसी का परिणाम है कि अब हमारे घरों में मजबूत से मजबूत ताले लगे होते हैं। मनुष्य सुधरने के स्थान पर बिगड़ता जा रहा है। उसकी गतिविधियां सन्देहास्पद रहती है और हर व्यक्ति को संदेह से देखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि अब हमारे घरों में सीसी कैमरे भी लगने लगे हैं। जिनकी दृष्टि में भद्रजन भी रखे जाते हैं। जो चोरों पर नजर रखते थे-उन पर चोर नजर रखते हैं। आजादी मिलने के पश्चात भारत ने यही उन्नति की है।
इदरीसी 11वीं शताब्दी में भारत के विषय में कहता है-”स्वाभाविक रूप से भारतीयों का न्याय की ओर झुकाव है और अपने व्यवहार में वे इससे कभी भी पीछे नहीं हटते हैं। उनका सत्य, विश्वास, ईमानदारी तथा अपने वचन के प्रति निष्ठा सर्वविदित है। अपने इन गुणों के कारण वे इतने प्रसिद्घ हैं कि चारों ओर से लोग दौड़ कर इनके देश में जाते हैं।”
एक विद्वान का कहना है कि अब से दो सौ वर्ष पूर्व आपको किसी भी धन के लिए लिखित रसीद देने की या आपके हाथों में सौंपे गये किसी भी विश्वसनीय कार्य के लिए किसी लिखित वचन की आवश्यकता नहीं थी। तीन सौ वर्ष पूर्व आपका अत्यंत विस्तृत महाजनी का व्यवसाय मौखिक रूप से ही चलता था। यहां तक कि भारतीयों के ऊपर सभी लोग को पूर्ण विश्वास रहता था।
हमारी ऐसी सम्मानपूर्ण स्थिति इसीलिए थी कि हमारे ऋषि पूर्वजों ने हमारे इन्द्रिय जन्य दोषों का उपचार करने के लिए हमें भीतर से स्वस्थ करने के उपाय खोजे। उन्होंने अष्टांगयोग का सहारा लिया और लोगों को बताया कि वह ईश्वर हमें हर क्षण देखता है, इसलिए किसी भी प्रकार के सीसी कैमरे की आवश्यकता उन्होंने नहीं मानी। चरक जैसे चिकित्साशास्त्रियों ने प्रकृति के साथ रहकर प्रकृति का मित्र बनकर चलने के लिए लोगों को प्रेरित किया और स्वस्थ रहने के लिए लोगों को अपने वैद्यक ग्रंथ प्रदान किये। भारत का जब तक संपूर्ण भूमंडल पर शासन रहा तब तक संपूर्ण भूमंडल आयुर्वेद से ही स्वस्थ रहता था। आजकल के चिकित्साशास्त्रियों ने मानव शरीर का परीक्षण किया है तो उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि मानव शरीर में 8 अंत:स्रावी ग्रन्थियां होती हैं। ये ग्रन्थियां भीतर ही भीतर रस बनाती हैं और हमारे शरीर को हृष्ट पुष्ट एवं स्वस्थ रखने में सहायक होती हैं। इन ग्रन्थियों के नाम हैं-पिट्यूटरी ग्रन्थि, यह मस्तिष्क के अध: स्तल में पायी जाती है और सारे शरीर का संतुलन बनाकर रखती है। दूसरे ग्रन्थि थायराइड है। यह श्वासनलिका के निकट गर्दन में होती है। यदि यह कार्य कम करने लगे तो व्यक्ति निस्तेज हो जाता है। तीसरी ग्रन्थि एड्रीनल युग्म है। ये दो होती हैं। दोनों गुर्दों में एक-एक। अचानक आयी घटनाओं में यह ग्रन्थि ही व्यक्ति से वीरता के कार्य कराती है। चौथी ग्रन्थि पैंक्रियाज है। यह नाभि में होती है। इससे निकलने वाला रस भोजन को पचाने में सहायक होता है जिसे इन्सुलिन कहते हैं, यदि यह रस न निकले तो मनुष्य में सुगर या मधुमेह का रोग जन्म ले लेता है। पांचवीं ग्रन्थि थाइमस है-यह कण्ठचक्र और हृदयचक्र के निकट छाती के ऊपर भाग में कहीं स्थित होती है। यह किशोरावस्था तक ही सक्रिय होती है। उसके पश्चात यह अपना कार्य करना बंद कर देती है। छठी ग्रन्थि पिनिअल है। यह मूर्धाप्रदेश में स्थित होती है। इसका संबंध मस्तिष्क व यौन अंगों से भी रहता है। सातवीं ग्रन्थि पैराथाइरॉयड है। ये कण्ठ जिह्व में पायी जाती है। इनसे हारमोंस का निर्माण होता है। जिससे रूधिर में कैल्सियम और फास्फोरस की मात्रा का अनुपात निश्चित रहता है। इसके पश्चात आठवीं ग्रन्थि है गोनाड का यौन ग्रन्थियां स्त्रियों की यौन ग्रन्थियों को ओवरीज कहा जाता है। इन ग्रन्थियों के रस से युवतियों की सुंदरता व सुकुमार भावनाएं अर्थात यौनाकर्षण निर्भर करता है।
आज के चिकित्साशास्त्रियों ने इन अंत:स्रावी ग्रन्थियों की खोज करके अपने आपको बहुत बड़ा तीस मारखां सिद्घ करने का प्रयास किया है। जबकि उनकी यह सारी खोज तैतिरीय आरण्यक के उपरोक्त मंत्र से आगे नहीं जा सकी है। हमारे ऋषि के उपरोक्त आठ शब्द इन आठ ग्रन्थियों के केन्द्रों को ही छूने वाले हैं। हमारा प्राणायाम मंत्र इन आठ ग्रन्थियों को ही सक्रिय रखने की एक अचूक साधना है। जिसे साधकर व्यक्ति को दवाइयां लेने की आवश्यकता नहीं होगी। परंतु ऐसा कोई-कोई उपाय या ऐसी कोई साधना हमारे पश्चिमी चिकित्सा शास्त्रियों ने नहीं बतायी है। एक प्रकार से उन्होंने कोई नई बात न कहकर हमारे ऋषियों के चिंतन की पुष्टि ही की है।
क्रमश:

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