मनुष्य-जन्म का उद्देश्य विद्या प्राप्त कर ईश्वर-साक्षात्कार करना है

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-मनमोहन कुमार आर्य

                संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति, इन तीन अभौतिक व भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है। ईश्वर व जीव अभौतिक वा चेतन हैं तथा प्रकृति भौतिक वा जड़ सत्ता है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी तथा जीवों के कर्मों के अनुसार उनके जन्म व मृत्यु की व्यवस्था करने वाली सत्ता है। हमें अपने मनुष्य जीवन के कर्मों के अनुसार ही सुख व दुःख प्राप्त होते हैं। संसार में जीवात्माओं की संख्या अनन्त है क्योंकि कोई भी मनुष्य व विद्वान जीवात्माओं की सही संख्या जान नहीं सकता। परमात्मा के ज्ञान में जीवों की संख्या परिमित है। जीवात्मा स्वरुप से सत्, चित्त, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान, एकदेशी, ससीम, अनादि, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा है एवं सत्यासत्या वा पाप-पुण्य आदि कर्मों का करने वाला है। यह अतीत में संसार में विद्यमान प्रायः सभी योनियों में जन्म ले चुका है और अनेक बार मोक्ष भी प्राप्त कर चुका है। जीवात्मा को मरने से डर लगता है। इसका कारण आत्मा में पूर्वजन्मों की मृत्यु के संस्कार हैं। जीवात्मा के पाप-पुण्य कर्म ही उसके भावी जन्म का निर्धारण कराते हैं। यदि हम पुण्य अधिक करते हैं और पाप कम, तो हमारा मनुष्य जन्म होना निश्चित होता है अन्यथा इसके विपरीत होने पर हमें पशु, पक्षियों आदि नीच योनियों में जाना पड़ता है। संसार में हम अनेक परिस्थितियों में मनुष्यों व पशु, पक्षियों आदि को देखते हैं वह सब अपने पूर्व जन्मों के कारण से हैं। इसका अन्य कोई तर्क व युक्ति सिद्ध उत्तर नहीं है। अतः वैदिक मान्यताओं और ईश्वर के कर्म फल सिद्धान्त को जानकर हमें पाप व बुरे कर्म करने से बचना चाहिये। हमें जीवन में ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, माता-पिता की सेवा, ज्ञानी अतिथियों का सेवा सत्कार तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता व सहयोग का भाव रखना चाहिये। ऐसा करके ही हम इस जीवन में सुखी रह सकते हैं और अपने परजन्म को भी उन्नत व सुखी बना सकते हैं।

                परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। हमारे इस मनुष्य जन्म का उद्देश्य क्या है? परमात्मा ही वेद में इसका उत्तर देते हैं कि ज्ञान प्राप्ति एवं सद्ज्ञान के अनुरूप कर्मों को करना ही हमारा उद्देश्य है। संसार में मुख्य ज्ञान वेदों का ही है। वेदाध्ययन से हमें ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि व समाज का यथार्थ ज्ञान होता है। हमारे कर्तव्य क्या है, यह भी वेद हमें बताते हैं। वेद व वैदिक साहित्य को पढ़कर विदित होता है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यों के कर्म फल भोगने सहित विद्या प्राप्ति करने के साथ ईश्वरोपासना, यज्ञादि सद्कर्मों को करना है। ऐसा करने से ही मनुष्य स्वस्थ रहकर सुख भोग सकता है। सुख भोगते हुए हमें सुखों में लिप्त नहीं होना चाहिये अपितु परमार्थ के कार्य भी करने चाहियें। ऐसा करने से हमारा यह जन्म व परजन्म सुधरता वा उन्नत होता है। परमात्मा ने मनुष्य शरीर में ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने के लिए हमें इन्द्रियां दी हैं। हमें वेद ज्ञान को प्राप्त कर ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना है। ईश्वर का साक्षात्कार ही मनुष्य को जन्म व मरण के दुःखों से मुक्ति एवं अक्षय सुख वा आनन्द प्रदान कराता है।

      हम यदि ईश्वर व जीवात्मा को नहीं जानेंगे तो हम ईश्वरोपासना में प्रवृत्त नहीं हो सकते। इससे हम ईश्वरोपासना व ईश्वर साक्षात्कार से वंचित रह जायेंगे। इसके विपरीत यदि हम वेद सहित इतर वैदिक साहित्य दर्शन, उपनिषद एवं मनुस्मृति आदि का अध्ययन करते हैं तो हमें ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप व इनके कर्तव्य-कर्मों का यथोचित ज्ञान हो जाता है। ईश्वर के स्वरूप व गुणों का ध्यान कर हम ईश्वर का सान्निध्य व निकटता प्राप्त कर सकते हैं और नियमित रूप से ईश्वर का ध्यान वा सन्ध्या आदि कर्मों को करके हम ईश्वर साक्षात्कार के निकट पहुंच सकते हैं अथवा साक्षात्कार कर सकते हैं। यही जीवात्मा का चरम लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद जीवात्मा के लिए कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रहता। इस लक्ष्य की प्राप्ति की तुलना में संसार के सभी प्रदार्थ, ऐश्वर्य, धन, सम्पत्ति तथा सुख तुच्छ हैं। हम कितना भी धन अर्जित कर लें, कुछ दिनों बाद हमें सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना होता है। परिग्रह से मनुष्य ईश्वर की उपासना से प्रायः विमुख हो जाता है। अतः धनोपार्जन और उसका शुभ कर्मों में व्यय व दान आवश्यक है। धन का अधिक परिग्रह मनुष्य को परजन्म में हानि पहुंचा सकता है। इसलिये अथाह धन की इच्छा मनुष्य के उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक व जीवन को जन्म-जन्मान्तर में अवनत कर सकती है। इस पर सभी मनुष्यों को समय समय पर विचार अवश्य करना चाहिये।

                ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि एवं नित्य सत्तायें हैं। हमारी इस सृष्टि से पूर्व भी ऐसी अनन्त सृष्टियां बन चुकी हैं और प्रलय को प्राप्त हो चुकी हैं। यह सृष्टि भी आगे चलकर प्रलय को प्राप्त होगी और उसके बाद पुनः सृष्टि होगी। इस रहस्य को जानकर और हर सृष्टि में अपने मनुष्य व अन्य सभी योनियों में जन्म लेने, सुख व दुख भोगने व अनेक बार मोक्ष प्राप्त करने का विचार कर मनुष्य को आत्मा के पतन के कार्य त्याग देने चाहियें। सभी भौतिक सुख अस्थाई होते हैं। अतः हमें जीवन का कुछ समय अवश्य ही नियमित रूप से ईश्वर की उपासना आदि कार्यों में लगाना चाहिये। वेद और सभी ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये और कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर की उपासना द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार का प्रयत्न करना चाहिये जिससे हम मोक्ष के अधिकारी बन सकें अथवा परजन्म में हमें श्रेष्ठ मानव जन्म मिल सके।                 सभी मनुष्यों को जीवन में सत्यार्थप्रकाश का अनेक बार अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश का बार-बार अध्ययन करने से हमारी प्रायः सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। हम इस संसार के अनेक रहस्यों को जान जाते हैं। ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के स्वरूप व अन्य सभी रहस्यों को भी जान जाते हैं। यह ज्ञान ही संसार में सभी धन व सम्पत्तियों से भी बढ़कर व लाभकारी है। जिस मनुष्य ने अपने इस मनुष्य जीवन में वेद, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया व ईश्वरोपासना को कल व भविष्य के लिए छोड़ दिया, उसे इस उपेक्षा की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। अतः अपने जीवन में, हम चाहे कितना भी व्यस्त क्यों न हों, स्वाध्याय व ईश्वरोपासना आदि कार्यों के लिए समय अवश्य निकालना चाहिये। इसी से हमें अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि प्राप्त हो सकती है। हमें राम, कृष्ण, विरजानन्द, दयानन्द, चाणक्य, श्रद्धानन्द, लेखराम, गुरुदत्त विद्यार्थी, हंसराज जी आदि महापुरुषों के जीवन चरित भी अवश्य पढ़ने चाहियें। इससे भी हमें सद्प्रेरणायें मिलेगीं और हमारा कल्याण होगा।

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