बन्दरगाह और मिशनरीस की संदिग्ध भूमिका

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अभी देश में भारतीय कंपनीयों के पास  लगभग  1500  मालवाहक समुद्री जहाज हैं; और 13 प्रमुख  बंदरगाह, जबकि 200 सामान्य . बन्दरगाह  पर माल खाली हो कर अगले  मार्ग पर जाने के  लिए जहाज को तैयार होने में लगने वाला समय ( टर्न अराउंड टाइम ) का परिवहन में बड़ी भूमिका होती है, जो कि अभी देश में लगभग  2.50 दिन है. जबकि वैश्विक औसत  0 .97  दिन , और स्पष्ट है कि देश को अपनी क्षमता बढ़ाने  की आवश्यकता है. इसी क्रम में केरल के तिरुवंतपूरम में  2015 में जब  कांग्रेस की सरकार थी गौतम अदानी की कंपनी को  अति आधुनिक सुविधाओं से युक्त एक   बंदरगाह के  निर्माण का कार्य एवार्ड किया गया था . लेकिन ये काम चलते-चलते अब पिछले चार महीनों से रुका पड़ा है , क्यूंकि चर्च और उसके पादरियों ने आपत्तियां उठा कर लोगों को भड़काकर इसके खिलाफ लामबंद कर दिया है . दूसरी ओर  वामपंथी पिनराई विजयन की सरकार नें कमर कस ली है कि वो कुछ भी इस काम को पूर्ण करवा के रहेगी. 
         लेकिन  चर्च का ये  रवैया कोई नया  भी नहीं है . कुछ वर्ष पूर्व वेदांता स्टरलाइट कॉपर प्लांट और कुडायकुनल पॉवर-न्यूकलीयर  प्लांट  को लेकर घटी घटनाओं  को केवल याद करने की जरूरत है .   (बंद हो चुके) तूतीकोरिन स्थित वेदांता स्टरलाइट कॉपर प्लांट  के संचालन के विरोध में चलने वाले आन्दोलन में सबसे आगे  जिन्हें लोगों ने खड़ा पाया था उनमें नक्सल और मिसनरीज़ प्रमुख रूप से थे. इसलिये  सुपरस्टार रजनीकांत को कहना पड़ा था कि आन्दोलन असामाजिक तत्वों के हांथों नियंत्रित है.  इस आन्दोलन में एक पादरी का नाम खूब उछला था, जिसका दावा था कि आन्दोलन को सफल बनाने के लिए मैदानी  गतिवीधीयों  के साथ-साथ  चर्च के अन्दर भी प्रार्थना चल रहीं हैं. जांच में ये बात खुलकर सामने आयी थी कि पादरी को इस काम के बदले  करोड़ों रूपए दिया गए थे. प्लांट से स्थानीय स्तर पर उद्धोगिक विस्तार , रोजगार सृजन के कारण व्यापारिक संगठन शुरू से आन्दोलन के खिलाफ थे, लेकिन ३४ ईसाई व्यापरिक संगठनों के दवाब के चलते उन्हें भी विरोध में उतरना पड़ा. अंततः  प्लांट बंद हो गया और विदेशी और देश के अन्दर उनके लिए काम करने वाले तत्व  भारत के जिन  आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना चाहते थे उनमें वो सफल हो गए. देश का कॉपर उत्पादन  ४६.१%  गिर गया. २०१७-१८ में जहां हमारा विश्व में पांच बड़े निर्यातकों में नाम था, २०२० के आते-आते हम आयातक हो गए.
             कुडनकूलम परमाणु सयंत्र का मामला भी अलग नहीं. धरना-प्रदर्शन,जन-आंदोलन जितना हो सकता था सब-कुछ अजमाया गया कि कैसे भी हो ये परियोजना अमल में लायी ही ना जा सके. तत्कालीन सप्रंग सरकार के एक मंत्री  नें यहाँ तक आरोप लगाया था कि इस मामले में रोमन-कैथोलिक बिशप के संरक्षण में चल रहे दो एनजीओ को ५४ करोड़ रूपए दिए गए हैं. सौभाग्य से इस मामले में मिशनरीज़  को सफलता हाथ न लग सकी, और परमाणु सयंत्र अस्तित्व में आ सका. इन हालातों में तो लगता है नोबल पुरुस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी नें ठीक ही कहा था कि-‘ कुछ लोगों ने सामाजिक बदलाव और  समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है. कन्वर्शन(धर्मांतरण) के लिए भी एनजीओ का इस्तेमाल किया जा रहा है. एनजीओ  एक वर्ग के लिए  सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि कैरियर बनाने का जरिया बन गया है.’ यही कारण है कि पिछले वर्ष गृह मंत्रालय नें कढ़े कदम उठाते हुए ४ बड़े ईसाई मिशनरीज़ संगठनों पर विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के अंतर्गत धन इकठ्ठा करने की अनुमति निरस्त कर दी थी. ये मिशनरीज़ दक्षिण भारत समेत झारखंड, मणिपुर  जैसे  वनवासी बाहुल्य क्षेत्रों में सक्रीय थीं. इसी प्रकार दो अन्य संगठन – राजनंदगाँव लेप्रोसी हॉस्पिटल एंड क्लिनिक और डान बास्को ट्राइबल डवलपमेंट सोसाइटी की भी अनुमति निरस्त कर दी गयी है.  और अभी हाल ही में ‘वर्ल्ड विज़न’ नाम के संगठन को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम  के दायरे में लाते हुए उसको विदेशों से प्राप्त होने वाले अनुदान पर रोक लगा दी गयी है. ये संगठन अमेरिकी गृह विभाग के वृहद संरचना का एक अंतर्गत चलने वाले तमाम  एनजीओ की  तरह ही एक अलग   उपक्रम है, जो कि विदेश कूटनीति के क्रियान्वन में एक हथियार की तरह उपयोग में लाया जाता है. इसका विस्तृत विवरण  इयान बुकानन लिखित ‘ द आर्मीज़ ऑफ़ गॉड:ए स्टडी इन मिलिटेंट क्रिश्चियनिटी’  नामक किताब में देखा जा सकता है.(द हिन्दू पोस्ट)
         वैसे  इसमें कुछ भी नया नहीं है . याद रहे कि जवाहरलाल नेहरु नें इसी बात को अपने शब्दों में इस तरह बताया है कि – ‘ एक समय था जब कहा जाता था कि आगे बढ़ती सेना के झंडे का अनुसरण उसके देश का व्यापार करता था. और कई बार तो ऐसा भी होता था कि बाइबिल आगे-आगे चलती थी, और सेना उसके पीछे- पीछे. प्रेम और सत्य के नाम पर आगे बढ़ने वाली  क्रिस्चियन मिशनरीज़ दरअसल  साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए  आउटपोस्ट[चौकी]  की तरह  काम करती थी. और यदि उन को किसी इलाके में कोई नुकसान पहुंचा दे तो फिर तो उस के देश को उस इलाके को हड़पने का, उससे हर्जाना बसूलने का बहाने मिल जाता था.[ ‘गिलिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ ; पृष्ठ- ४६३]
             आर्क बिशप की अगुआई में अदानी पोर्ट के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में मुख्य रूप से लैटिन चर्च का हाँथ बताया  जा रहा है. यहाँ तक कि स्थानीय मीडिया नें एक वायस मेसेज टेलीकास्ट कर  एक प्रमुख पादरी को आव्हान करते हुए दिखाया  कि यदि लोगों को इकठ्ठा करने के लिए जरूरी हो  तो church का घंटा भी बजाते रहो. अचम्भे की बात ये है कि आन्दोलन इस बात को जानते हुए भी हो रहा है कि इसके बन जाने के बाद  हमारे समुद्र तट पर ज्यादा  बज़न के सामान से लादे जहाज आ सकेँगे.  क्यूँ कि देश के बाकी तट की तुलना में तिरुवंतपूरम के इस तट की  गहरायी २० मीटर से अधिक है, जो कि सर्वाधिक है . साथ ही  सूदूर पूर्व और पश्चिम में स्थित  सिंगापूर,श्रीलंका और दुबई भेजना आसान हो जायेगा. इन लाभों को ध्यान में रखकर अब एक हिन्दुओं के संगठन ‘हिन्दू यूनाइटेड फ्रंट’ नें पोर्ट के पक्ष में मोर्चा सँभालने की ठान ली है.

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