अविद्या व रूढ़ियों से ग्रस्त पठित समाज भी ईश्वरीय ज्ञान वेद एवं वेदोक्त-सत्य-धर्म की उपेक्षा करता है

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मनमोहन कुमार आर्य

आज का समाज आधुनिक समाज कहा जाता है। आधुनिकता पुरातन का विलोम शब्द है। वर्तमान युग में विज्ञान ने उल्लेखनीय प्रगति की है। विज्ञान की इस प्रगति ने मनुष्य के जीवन को सुखी बनाने के अनेक साधन प्रदान  किये हैं। इससे समाज के अधिकांश लोगों को लाभ हुआ है। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी अभावग्रस्त है। उसे दो समय भरपेट रोटी वा भोजन के लिए भारी परिश्रम करना पड़ता है फिर भी अनेक परिवार अपने बच्चों की भूख व शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर पाते। यह सब व्यवस्था का दोष है जिसे बदलना आसान नहीं है। बातें तो सामाजिक न्यायकी की जाती हैं परन्तु आज भी अगड़ा पिछड़ा, ऊंच-नीच, दलित-पिछड़ा-सवर्ण आदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है। देश की सरकार का काम है कि वह सभी देशवासियों को एक समान, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करे परन्तु यह लक्ष्य मनुष्य के सिर पर सींग के समान कभी पूरा होने वाला नहीं है। पठित राजनीतिक लोगों ने देश में जो व्यवस्था बनाई है उसका अधिकांश लाभ तीन वर्ग उच्च, मध्ययम व निम्न वर्ग में से प्रथम दो वर्गों उच्च व मध्यम वर्ग को ही होता है। निम्न वर्ग आज 10 से 18 घंटों तक काम करने के बाद भी सुखी व निश्चिन्त जीवन व्यतीत नहीं कर पाता है जबकि समाज में कुछ इने-गिने लोगों के पास अथाह सम्पत्ति है जिससे सामाजिक व्यवस्था में भेदभाव व असंतुलन उत्पन्न हुआ है व इससे निर्बलों के प्रति अन्याय, शोषण व अत्याचार आदि भी होता है।

आज का समाज आर्थिक आधार सहित धार्मिक व सामाहिक आधार पर भी बंटा हुआ है। धार्मिक जनता भी गुरूडम व अनेक मत-सम्प्रदायों में विभाजित है। कोई एक गुरु का चेला है तो कोई दूसरे किसी गुरु व महाराज का। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन व सिख आदि भी अपने अपने को अलग अलग धर्म का मनुष्य मानते हैं। हिन्दुओं से इतर सभी मत, सम्प्रदाय, धर्म व मजहब आदि किसी व्यक्ति विशेष द्वारा विशेष काल में या उनके नाम से उनके अनुयायियों ने चलाये हैं। उनकी जो बाते उनके द्वारा वा उनके शिष्यों द्वारा लिखी गई पुस्तकों में मिलती हैं, वही उनके लिए ब्रह्म वाक्य हैं भले ही वह असत्य, अज्ञानयुक्त, भेदभावपूर्ण व देश व समाज सहित मनुष्यता के लिए अहितकर ही क्यों न हो। संसार के सभी मत-सम्प्रदायों में अज्ञान, अवैज्ञानिक मान्यताअयें, तर्क व युक्ति विरुद्ध अनेक मान्यतायें एवं सिद्धान्त हैं जिनका उल्लेख स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश’ में किया है। अपनी इस पुस्तक में स्वामी दयानन्द जी ने सभी मतों की मान्यताओं की सत्य की कसौटी पर परीक्षा कर यह भी बताया हैं कि सभी मतों में असत्य व अज्ञानयुक्त मान्यतायें विद्यमान हैं, उन सभी मान्यताओं का आचरण करना मनुष्यों के लिए उचित नहीं है।

 

स्वामी दयानन्द जी ने ईश्वर व जीवात्मा का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत कर मनुष्यों के सद्कर्मों पर भी प्रकाश डाला है जो वेदोक्त धर्म के अतिरिक्त किसी मत में नहीं किये जाते हैं। वैदिक सत्यज्ञान से पूर्ण इन मान्यताओं पर देश व विश्व के विज्ञ व धार्मिक सम्प्रदायों के आचार्यों को उन पर विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं किया गया। इसके विपरीत वह सभी अतार्किक व अयुक्तिसंगत असत्य व हानिकारक मान्तयाओं को परम्परा के अनुसार पहले से भी अधिक कड़ाई से मानते चले जा रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान का आधुनिक समाज सत्य को ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने में किंचित भी रूचि नहीं लेता। हमने यहां तक देखा है कि जो मत सत्य पर आधारित नियमों व मान्यताओं का प्रचार करते हैं, उस मत के अनुयायी व उसके बहुत से आचार्य भी अपने मत की बहुत सी सत्य व जीवन के लिए हितकर बातों का पालन नहीं करते। उनकी कथनी व करनी में भी अन्तर देखने को मिलता है। ऐसी स्थिति में संसार का कल्याण व विश्व में एक सत्य वैज्ञानिक मत जो तर्क व युक्ति प्रधान मानव जीवन के लिए आवश्यक हो यथा वेदोक्त ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र देवयज्ञ का अनुष्ठान, धार्मिक सभी अन्धविश्वासों का त्याग,पशुओं के प्रति दया व करूणा की भावना एवं उनके प्रति अंहिसा के भाव, समाज के सभी लोगों को समान समझना और उनकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना, जन्मना जातिवाद को समाप्त कर देश में गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित व्यवस्था लागू करना, सबके लिए समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना आदि विषयों पर देश को एकमत करना सम्भव नहीं दीखता। इसका परिणाम आने वाले समय में हिन्दू समाज, मानव जाति व भूमण्डल के लिए अच्छा नहीं होगा ऐसा हम अनुभव करते हैं।

 

मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है कि वह उसे जन्म देने वाले व पालन करने वाले माता-पिता की सेवा करे। इसके साथ ही वह इस संसार को बनाने वाले, पालन करने वाले, वेद ज्ञान देने वाले, कर्मफल की व्यवस्था करने वाले, मनुष्यों व प्राणियों को दुःखों से छुड़ाने वाले ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जाने व उसकी उचित रीति से स्तुति व उपासना आदि करे। यदि मनुष्य अपनी आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं करता और ईश्वर के जानने व यथार्थ उपासना में भी सचेष्ट नहीं रहता तो वह मनुष्य, मनुष्य की परिभाषा, मननशील होना और सत्यासत्य को जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य को छोड़ना, का व्यवहार न करने के कारण मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं होता। क्या किसी व्यक्ति के जनता के धन का गबन करने, मनुष्यता विरुद्ध काम करने वाले व्यक्ति को अच्छा मनुष्य कह सकते हैं? ऐसे मनुष्य को मनुष्य के वेश में पशु कहना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। दुर्भाग्यवश समाज में ऐसे लोग बड़ी संख्या में है। इससे विज्ञजनों में निराशा का महौल बनता है।

 

जब हम सत्य असत्य का मनन व चिन्तन करेंगे, विद्वानों से प्रश्नोत्तर शैली से शंका समाधान करेंगे, विशिष्ट विद्वानों के उपदेश सुनेंगे और वेदादि साहित्य सहित ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों का धार्मिक व सामाजिक साहित्य पढ़ेंगे तो हम समझते हैं कि मनुष्य सत्य के निकट पहुंच सकता है वा सत्य को जान सकता है। इसके लिए सभी को अपने अपने अनुचित स्वार्थ का त्याग करने सहित पुरुषार्थ पूर्वक विद्या का ग्रहण करना होगा और धार्मिक आचार्यों को सत्य का प्रचार करने का संकल्प लेना होगा। ऐसा करके ही समाज से अज्ञान वा अविद्या दूर हो सकती है। यह सम्भव तो है परन्तु सर्वत्र मनुष्यों को ऐसा आचरण करते हुए न देखकर यह असम्भव सा ही प्रतीत हो रहा है। इस कारण वर्तमान व भविष्य में अनेक उतार चढ़ाव आयेंगे जैसे कि महाभारतकाल के बाद हुए हैं। यदि हम लोग सम्भल जाये और हिन्दू समाज को अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि सहित सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग के कार्य में संयोजित कर सकें तो परिणाम अच्छे हो सकते हैं। मत-मतान्तर के आचार्यों व जानकरों का इन सिद्धान्तों के अनुकूल आचरण न देखकर हमें धार्मिक जगत में किसी बड़े सुधार आन्दोलन की सम्भावना दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। आर्यसमाज जो वेद प्रचार व सत्य के प्रचार का आन्दोलन है, वह भी वर्तमान में शिथिल है। ऐसी अवस्था में ईश्वर ही लोगों को सत्य को ग्रहण करने सहित सद्कर्मों को करने की प्रेरणा करें। इस चर्चा को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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