‘श्री कृष्ण द्वारा रणभूमि में अर्जुन को दिये उपदेशों के यथार्थ विषय’

0
1027

मनमोहन कुमार आर्य,

महाभारत युद्ध से पूर्व अर्जुन को युद्ध के विषय में भ्रम व विषाद हो गया था। उन्होंने श्री कृष्ण को रथ को रण भूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाने और अपने शत्रुओं को देखने की इच्छा व्यक्त की थी। वहां अपने मित्र व शत्रुओं को देखकर व युद्ध के परिणामों का विचार करके उन्हें विषाद हो गया था। उस अवसर पर उन्होंने कृष्ण जी से जो प्रश्न किये थे, उनका उत्तर ही वस्तुतः गीता नामक ग्रन्थ में मिलना चाहिये। ऋषि वेदव्यास जी द्वारा लिखे महाभारत ग्रन्थ में अर्जुन व श्रीकृष्ण के संवादों व प्रश्नोत्तरो को ही गीता नाम के ग्रन्थ के रूप में जाना जाता है। अर्जुन ने क्या पूछा और उनका उत्तर क्या है, यह ज्ञान ही वस्तुतः गीता है। गीता में अन्य विषयों के जो श्लोक मिलते हैं वह गीता का अंग न होकर महाभारतकार के बाद समय-समय पर कुछ लोगों ने अपने किन्हीं उद्देश्ययों को पूरा करने के लिए मिलाये गये प्रतीत होते हैं। अर्जुन ने श्री कृष्ण से जो प्रश्न किये थे उन्हें आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान रहे स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक ‘मूल गीता में श्री कृष्ण अर्जुन संवाद’ में प्रस्तुत किया है। यह ग्रन्थ मात्र 40 पृष्ठों का अति उपयोगी ग्रन्थ है। इसमें गीता नामक ग्रन्थ से कुल 40 श्लोकों का संकलन किया गया है। समस्त गीता ग्रन्थ में अर्जुन के श्री कृष्ण से किये गये अनेक प्रश्नों का उत्तर नहीं आया है। इसका कारण कालान्तर में गीता में नये श्लोकों की मिलावट व कुछ श्लोकों का हटाया जाना है। स्वामी विद्यानन्द जी द्वारा संकलित अर्जुन के सभी प्रश्नों को हम पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे पूर्व स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का वक्तव्य प्रस्तुत है। वह लिखते हैं ‘श्रीकृष्ण को सारथि बना, धनुषबाण ले, रथ पर सवार होकर अर्जुन युद्धक्षेत्र में किसलिए गया था? निश्चय ही युद्ध करने के लिए। उसे यह भी पहले से पता था कि उसके प्रतिद्वन्द्वी कौन हैं? प्रतिद्वन्द्वियों में प्रमुख कौन हैं? उन सबको भी वह भलीभांति जानता था। तब दोनों सेनाओं के बीच खड़ा होकर उन्हें जानने में क्या तुक थी? (अर्जुन ने उन सबको पहले) देखा ही था और (उन्हें युद्ध भूमि में) देखकर अर्जुन के मन में कुछ शंकाएं उठी थीं जो उसके युद्ध में प्रवृत होने में बाधक बन रही थी तो श्रीकृष्ण का उपदेश उन शंकाओं के समाधान तक सीमित रहना चाहिए था। अर्जुन ने अपने मन को उद्विग्न करने वाली शंकाओं तथा युद्ध के परिणामस्वरूप होने वाली हानियों को इस रूप में प्रस्तत किया था।’

1- पूज्य गुरुजनो और बन्धु-बांधवों की हत्या कल्याणकारिणी नहीं होगी।
2- जिनके लिए राज्यभोग और सुख चाहिएं वे सब तो यहां मरने के लिए खड़े हैं।
3- जिन्हें मारकर मैं तीनों लोकों का राज्य भी नहीं चाहता तो क्या एक पृथिवी के राज्य के लिए उनका हनन करना उचित होगा?
4- माना कि ये आततायी हैं, तब भी क्या स्वजनों को मारकर हम सुखी रह सकेंगे?
5- यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्र लोभ के वशीभूत हो बुद्धि खो बैठने से कुल के क्षय और मित्रद्रोह करने के पाप को नहीं देख रहे हैं-तो क्या हमें भी इस दोष और पाप से बचने के विषय में विचार नहीं करना चाहिये?
6- कुल का नाश हो जाने पर कुल धर्म का नाश हो जायेगा।
7- कुल धर्म के नष्ट होने पर अधर्म के राज्य का विस्तार हो जायेगा।
8- अधर्म के फैल जाने पर स्त्रियों का आचरण दूषित हो जायेगा।
9- स्त्रियों के दूषित हो जाने पर उनसे वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होती हैं।
10- वर्णसंकर, कुल नष्ट करने वालों को और कुल दोनों को, नरक में ले जाते हैं। ऐसे कुलों के पितर अन्न जल के अभाव में दुःख पाते हैं।
11- इन दोषों के कारण समस्त जाति-धर्म और परम्परागत कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं।
12- जिनके कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं वे सदा के लिए दुःखरूप नरक में पड़े रहते हैं।
13- तब क्या यह दुःख और चिन्ता की बात नहीं है कि हम राज्य पाने के लोभ में स्वजनों की हत्या के पाप में प्रवृत्त हो रहे हैं?
14- क्या मेरे लिए यह अच्छा नहीं होगा कि धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर मुझ निहत्थे को मार डालें?
15- पूजा के योग्य भीष्म पितामह तथा आचार्य द्रोण की ओर मैं बाण कैसे फेंक सकूंगा?
16- क्या ऐसे पूज्य महानुभावों को मारकर जीने की अपेक्षा भीख मांगकर पेट भर लेना उचित नहीं होगा?
17- क्या यह उचित होगा कि मैं गुरुओं के खून से सने भोगों को भोगूं?
18- क्या हम जानते हैं कि हम दोनों–कौरवों तथा पाण्डवों–में कौन जीतेगा?
19- क्या पृथ्वी के निष्कण्टक समृद्ध राज्य पर मेरा आधिपत्य इन्द्रियों को सुखाने वाले मेरे शोक को दूर कर देगा?
20- अज्ञान के कारण मैं दीनता के भाव से ग्रस्त हो गया हूं। इसलियए जो मेरे लिए निश्चय रूप से हितकर हो, वह मुझे बताइए।

इन प्रश्नों पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी लिखते हैं ‘क्या श्री कृष्ण ने अपने उपदेश में इन प्रश्नों का उत्तर दिया है? हमारे विचार में 18वें प्रश्न को छोड़कर शेष प्रश्नों को तो उन्होंने छुआ तक नहीं। परन्तु यह कैसे हो सकता था कि श्रीकृष्ण जैसे प्रौढ़ विद्वान् और कुशल वक्ता ने उत्तर न दिया हो। और फिर, अर्जुन भी उत्तर पाये बिना कहां छोड़ने वाला था। …… महाभारत में जहां समय-समय पर श्लोक डाले गए हैं, वहां निकाले भी गए हैं। गीता मूलतः महाभारत का ही अंग है। हो सकता है कि इस घटने-बढ़ने में ही श्रीकृष्ण के उत्तर निकल गए हों। अस्तु।’

गीता की सच्चाई वा स्वामी विद्यानन्द जी के एतद्विषयक विचारों को जानने के लिए पाठकों को स्वामी जी की पुस्तक को पढ़ना चाहिये। यह पुस्तक आर्य-प्रकाशन, 816 कूण्डे-वालान अजमेरी-गेट, दिल्ली-110006 से 25 वर्ष पूर्व सन् 1993 में प्रकाशित हुई थी। तब इस 40 पृष्ठीय पुस्तक का मूल्य मात्र 3.00 रुपये था। इस पुस्तक की भूमिका स्वामी जी ने 3-21 अर्थात् 19 पृष्ठों में दी है। पुस्तक की कुल पृष्ठ संख्या 40 है।

हम अनुभव करते हैं कि जब किसी विद्वान से कोई प्रश्न करता है तो वह विद्वान उस प्रश्न से संबंधित विषयों व बातों को ही अपने उत्तर में प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण जी विद्वान थे और योगेश्वर होने के साथ अपने समय के एक बुद्धिमान नीतीज्ञ राजा भी थे। अतः गीता ने उपर्युक्त प्रश्नों से अतिरिक्त जिन विषयों का वर्णन किया गया है वह प्रक्षेप ही हो सकते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर इस ग्रन्थ का अध्ययन कर श्रीकृष्ण जी के ज्ञान से परिचय प्राप्त करेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here