“वेद ने ही सबसे पहले बताया कि सभी प्राणियों में एक जैसा जीवात्मा है”

0
86

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम मनुष्य हैं। हम वेदों एवं अपने पूर्वज ऋषियों आदि की सहायता से जानते हैं कि संसार में जितनी मनुष्येतर
योनियां पशु, पक्षी, कीट-पतंग व जीव-जन्तु आदि हैं, उन सबमें हमारी आत्मा के समान
एक जैसी जीवात्मा विद्यमान है। यह जीवात्मा शरीर से पृथक एक सत्य, सनातन एवं
चेतन सत्ता है। जीवात्मा इच्छा व द्वेष आदि गुणों से युक्त तथा अल्पज्ञ है। जीवात्मा में
ज्ञान एवं कर्म करने की सामर्थ्य होती है परमात्मा द्वारा जो उसे मनुष्यादि जन्म मिलने
पर शरीर की सहायता से ज्ञानपूर्वक कर्म करने में परिणत होती हैं। मनुष्य योनि उभय
योनि है जिसमें जीवात्मा पूवजन्मों के कर्मों को भोगता भी है और नये कर्म करता है।
कर्मों का फल उसे इस जन्म व परजन्मों में भोगना होता है। मनुष्य के पाप क्षमा नहीं
होते। कोई मत व उसका आचार्य किसी मनुष्य के पाप कर्मों की ईश्वर से सिफारिश करके
पाप कर्मों के दण्ड रूप फलों को क्षमा नहीं करा सकता। यदि कहीं ऐसा कहा व माना जाता है, तो वह असत्य एवं भ्रमित करने
वाली मान्यता है। सत्य सिद्धान्त यह है कि मनुष्य जो शुभ व अशुभ तथा पाप व पुण्य रूपी कर्म करते हैं, उसके फल उन्हें
अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं। ईश्वर भी किसी के कर्मों के फलों को बिना भोगे क्षमा नहीं कर सकता। यदि ईश्वर पाप कर्मों को
क्षमा करता तो उसकी न्याय व्यवस्था कायम नहीं रह सकती थी। वह व्यवस्था भंग होकर अव्यवस्था में बदल जाती। वेदों के
अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि ईश्वर ने अनादि काल से आज तक किसी मनुष्य व मत-सम्प्रदाय के अनुयायी के
किसी पाप कर्म को क्षमा नहीं किया है।
हम मनुष्य इस लिये बने हैं क्योंकि हमारे पूर्वजन्म के कर्म संख्या की दृष्टि से आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म थे।
जिन जीवात्माओं के पूर्वजन्मों में मनुष्य योनि में किये गये कर्म आधे से अधिक शुभ होते हैं, उनका मनुष्य जन्म होता है और
जिन मनुष्यों के कर्म आधे से अधिक अशुभ या पाप कर्म होते हैं, उनका जन्म नीच प्राणी योनियों जो पशु, पक्षी एवं कीट, पतंग
आदि योनियां हैं, उनमें जन्म होता है। इन पशु योनियों में सुख कम तथा दुःख अधिक होते हैं। इन पशु आदि योनियों को
बनाकर परमात्मा ने यह सन्देश दिया है कि मनुष्य श्रेष्ठ कर्म करें और पशु आदि योनियों में जन्म लेने बचे। इस सृष्टि को
बनाने वाला सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर जीवों का माता व पिता सहित आचार्य, राजा व न्यायाधीश भी है। ईश्वर, जीव व
प्रकृति इस संसार में अनादि, नित्य व अविनाशी सत्तायें हैं। ईश्वर अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार प्रत्येक कल्प के
आरम्भ में मनुष्यादि प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं और कल्प की अवधि पूर्ण होने पर सृष्टि की प्रलय करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति
का कारण जीवों को जन्म देकर उनके पूर्वजन्मों व पूर्वकल्प में किये गये कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान कराना है।
ईश्वर इसके साथ सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य योनि के जीवों के कल्याणार्थ उन्हे ंसब सत्य विद्याओं का ज्ञान वेद प्रदान कर
करते व कराते हैं। वेद की शिक्षाओं का पालन ही मनुष्य का धर्म व वेदविरुद्ध आचरण ही अकर्तव्य व पाप होता है।
मनुष्य को मनुष्य जीवन उसके पूर्वजन्मों में किये गये आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्मों के कारण मिलता है। ईश्वर,
वेद, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की संसार के लोगों को यह सिद्धान्त एक बहुत बड़ी देन है। आश्चर्य है कि संसार के लोग
मुख्यतः विदेशों में उत्पन्न मत-मतान्तर वेदों की इस सत्य व तर्कपूर्ण मान्यता को न तो स्वीकार करते हैं और न ही ध्यान देते
हैं। यदि वह वेद प्रदत्त इस सत्य मान्यता को मान लें तो उनका मत व धर्म संकट में आकर समाप्त हो सकता हैं। विदेशी मतों के
अनुयायियों सहित भारत के वह लोग जो वेदों से दूर हैं जो मांसाहार आदि का प्रयोग व सेवन करते हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि
सभी प्राणियों में हमारे ही समान जीवात्मा है जिन्हें हमारे ही समान सुख व दुःख की अनुभूति होती है। हम इस तथ्य से भी
अपरिचित हैं कि अतीत के अनन्तावधि काल में हमारे इस जन्म से पूर्व इन सभी योनियों में जन्म हुए हैं। यह आवागमन

2

चलता आ रहा है। इन सभी पशु आदि योनियों में हमारे कुटुम्बों के लोग जो हमसे पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, जन्म लिये हुए
हो सकते हैं। यदि हम मांसाहार करते हैं, तो इसका अर्थ यह है कि हम परमात्मा की सन्तानो उसके पुत्र-पुत्रियों सहित अपने
बिछुड़े हुए कुटुम्बियों, सम्बन्धियों तथा बन्धु-बांधवों का हनन कर उनका आहार कर करा रहे हैं। यह मनुष्य जैसे मननशील
प्राणी के लिये किसी भी स्थिति में उचित नहीं है। यह पाप एवं अधम कर्म है। इसको हमें समझना है एवं तुरन्त मांसाहार का न
केवल सेवन करना बन्द करना है अपितु किसी भी प्राणी को अनावश्यक किंचित कष्ट नहीं देना है।
वर्तमान में देश देशान्तर के शिक्षित मनुष्य, मत-मतान्तरों के आचार्य एवं शासकगण इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि
जैसा जीवात्मा उन सबका है वैसे ही जीवात्मा सभी प्राणियों व जीव-जन्तुओं में भी विचरण कर रहे हैं। सभी प्राणियों को ईश्वर
ने इनके पूर्वकर्मों का भोग करने के लिये उन योनियों में भेजा है। हमें मनुष्य जीवन में स्वयं भी अपने पूर्वकर्मों का भोग करना
है और आगामी जीवन के लिये श्रेष्ठ कर्मों को करना है। हमें सत्यासत्य एवं ईश्वरीय जन्म-मरण व्यवस्था पर विचार करके
सभी थल-जल-नभ चरों के लिये भी उनके जीवन के अनुकूल सुविधाजनक वातावरण प्रदान करना है जिससे वह अपने कर्मों
का भोग कर सकें। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो मनीषी अपनी आत्मा को दूसरे प्राणियों की आत्मा के समान जानता है और
दूसरे प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान जानता था, उस धीर व विवेक पुरुष को किसी प्रकार का शोक व मोह नहीं
होता। जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि सभी प्राणी समान हैं व ईश्वर की प्रजा हैं तो जिस प्रकार एक परिवार के सदस्य आपस
में शोषण एवं अन्याय नहीं करते उसी प्रकार वह विज्ञ व विप्रजन भी किसी प्राणी के प्रति अन्याय, शोषण व अत्याचार नहीं
करते। इस ज्ञानयुक्त दृष्टि से पशु आदि प्राणियों की हत्या करना व मांसाहार जघन्यतम अपराध व पाप सिद्ध होता है।
परमात्मा मनुष्यों को उनके इस कर्म का क्या दण्ड देगा, इसका विचार किया जा सकता है। हम कल्पना कर सकते हैं कि
परमात्मा आगामी जीवन में भी हमें वैसे ही पशु बनायेगा जिनकी हमने हत्या की व कराई है और जिनका मांस खाया है। जब
परजन्म में अन्य मनुष्य व प्राणी हमारा हनन करेंगे तो हमें कितना दुःख होगा इसकी हमें कल्पना कर लेनी चाहिये। आश्चर्य
है कि हमारे अधिकांश मत-मतान्तर इस ज्ञान से कोरे हैं। वह स्वयं भी मांसाहार करते हैं व अपने अनुयायियों को भी कराते हैं
अर्थात् उन्हें रोकते नहीं है। इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि परजन्मों में परमात्मा इनकी क्या स्थिति कर सकता है।
वैदिक धर्मी एवं वेदानुयायी होने के कारण हमें इस बात का सन्तोष है कि हम इस पाप से बचे हुए हैं। हम ईश्वर एवं उसके दिये
वेदज्ञान के लिये आभारी हैं। ईश्वर व ऋषियों के द्वारा यह वेदज्ञान हम तक पहुंचा और हम जीवन के अनेक तथ्यों व रहस्यों
को जानकर जिन्हें मत-मतान्तर के आचार्य एवं अनुयायी नहीं जानते, लाभान्वित हो रहे हैं। ईश्वर के इस संसार का
त्यागपूर्वक भोग करते हुए अपने इस जन्म व भावी जन्म का सुधार कर रहे हैं।
आर्यों अर्थात् वेदानुयायियों के पांच महायज्ञों व पांच महान् कर्तव्यों में बलिवैश्वदेव यज्ञ भी एक कर्तव्य वा यज्ञ है।
इस कर्तव्य को सभी प्राणियों में एक समान जीव होने की भावना से ही निर्धारित गया प्रतीत होता है। इस यज्ञ में हम सभी
प्राणियों को अन्न व भोजन प्रदान करने की कोशिश करते हैं। बलिवैश्वदेव यज्ञ में गो, कुत्ता, बिल्ली, आकाशस्थ विचरण करने
वाले पक्षी एवं चींटी आदि को भी अन्न व भोजन प्रदान किया जाता है। मातायें भोजन बनाती हैं तो वह भी प्रथम रोटी गाय के
लिये निकालती हैं तो रसोई घर में तैयार कुछ लवणादिमुक्त पदार्थों से चूल्हें की अग्नि में आहुतियां दिया करती थीं। हमारा
अनुमान है चूल्हें की अग्नि में जो अन्न व पकाये गये पदार्थों की आहुतियां दी जाती थी, उसका कारण वायुस्थ जीव-जन्तुओं
तक भोजन पहुंचाना हो सकता है। उन तक भोजन पहुंचता है या नहीं, परन्तु भावना तो यही प्रतीत होती है। यह श्रेष्ठ एवं
मंगल भावना है। हमारे एक दिवंगत मित्र श्री शिवनाथ आर्य कहा करते थे कि यज्ञ में बलिवैश्वदेव यज्ञ की जो आहुतियां दी
जाती हैं उससे हम उस भोजन व अन्न को असंख्य सूक्ष्म जीव-जन्तुओं तक पहुंचाते हैं जिससे उस मात्रा में हम श्रेष्ठ कर्म करने
के लाभार्थी बन जाते हैं। हम यज्ञ करके लाभार्थी बनते हैं या नहीं, इस भावना से ऊपर उठकर हमें श्रेष्ठ कर्मों को हमें बिना
किसी स्वार्थ भावना के करना चाहिये। इससे निश्चय ही सृष्टि के संचालक एवं पालक परमात्मा की हमारे प्रति प्रसन्नता होगी
जिससे हम अनेक हानियों से बच सकते हैं और हमें अनेक लाभ भी प्राप्त हो सकते हैं।

3

हम ईश्वर, वेदज्ञान सहित अपने सभी पूर्वज ऋषि-मुनियों-ज्ञानियों के ऋणी हैं जिन्होंने हमें ईश्वर-जीव-प्रकृति
नामक त्रैतवाद के सिद्धान्त सहित सभी प्राणियों में एक समान जीवात्मा होने तथा उनके द्वारा मनुष्यों के समान ही सुख व
दुःख का अनुभव किये जाने का ज्ञान व सिद्धान्त दिया है। सबसे अधिक आभारी हम ऋषि दयानन्द जी के हैं। उन्होंने
सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थ लिखकर
हमें ज्ञान से सम्पन्न किया है जिससे हम अपने सभी कर्तव्यों व अकर्तव्यों को जानकर कर्तव्यों में प्रवृत्त होकर जन्म-
जन्मान्तरों में सुख व आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं। सभी वैदिक धर्मियों का कर्तव्यों है कि वह बिना किसी लाभ के भी वेद
का प्रचार जन-जन में करें जिससे हमारा प्रिय वैदिकधर्म और इसका प्रचारक आर्यसमाज जीवित रहते हुए मानवता का
कल्याण करने के प्रमुख कर्तव्य व अग्रणीय भूमिका को निभा सके। वेदों का ज्ञान हम ही संसार को दे सकते हैं, अन्य कोई नहीं
दे सकता। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,712 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress