जम्मू कश्मीर सरकार का अन्त और बकरा विचारधारा की प्रासांगिकता

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

जम्मू कश्मीर सरकार का अन्त में अन्त हो ही गया । भारतीय जनता पार्टी ने पीडीपी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया । इससे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती को त्यागपत्र देना पडा । दूसरी कोई भी सरकार बनने की संभावना नहीं थी । इसलिए चौबीस घंटे के अन्दर अन्दर प्रदेश में राज्यपाल का शासन लागू हो गया । लेकिन आख़िर सरकार गई क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले यह पता लगाना जरुरी है कि आख़िर सरकार बनी ही क्यों थी ? पीडीपी यानि पीपुल्ज डैमोक्रेटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी का आपस में वैचारिक आधार दूर दूर तक नहीं मिलता था । लेकिन फिर भी दोनों ने मिल कर सरकार बनाई थी । पीडीपी के 28 विधायक थे और भाजपा के पच्चीस विधायक थे । कांग्रेस के 15 और अब्दुल्ला परिवार की नैशनल कान्फ्रेंस के 12 विधायक थे । सात निर्दलीय थे । इस गणित में 86 सदस्यीय विधान सभा में भाजपा या पीडीपी को शामिल किए बिना प्रदेश में कोई भी सरकार नहीं बन सकती थी । पीडीपी ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं हो सकती थी जिसमें नैशनल कान्फ्रेंस शामिल हो और भारतीय जनता पार्टी किसी ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं हो सकती थी जिसमें सोनिया कांग्रेस शामिल हो । अत: भाजपा और पीडीपी की सरकार के बिना कोई विकल्प ही नहीं था । विधान सभा के लिए चुनाव जिस उत्साह से हुआ था और लोगों ने जिस जोशोखरोश के साथ चुनावों में हिस्सा लिया था , उसके बाद भी सरकार न बना पाना ग़लत संकेत देता । यही कारण था कि भाजपा और पीडीपी ने अपने मूल मुद्दों को परे रख कर साँझा कार्यक्रम  के आधार पर सरकार बनाने का निर्णय किया । वैसे कश्मीर में पीडीपी मोटे तौर पर उस समूह का बदले हुए रूप में प्रतिनिधित्व करती है जिसे शेख़ अब्दुल्ला के वक़्त में बकरा पार्टी कहा जाता था । उन दिनों बकरा पार्टी की निष्ठा पाकिस्तान के प्रति थी और इक्कीसवीं शताब्दी में पीडीपी के समर्थन का आधार अलगाववादी ही माने जाते हैं । कम से कम बकरा पार्टी नुमा लोगों की हिमायत पीडीपी को हासिल थी या है । इसलिए जब पीडीपी ने राष्ट्रवादी तत्वों का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा से हाथ मिलाया तो बकरा पार्टी का सींग उठाना स्वभाविक ही था । इधर जम्मू में यह प्रश्न उठना भी लाज़िमी था कि भाजपा पीडीपी जैसी बकरों से समर्थित पार्टी से हाथ कैसे मिला सकती है ? लेकिन जम्मू कश्मीर में विधान सभा चुनावों में पीपुल्ज वरडिक्ट के आधार पर तो यही सरकार बन सकती थी । कश्मीर घाटी में  बकरा विचारधारा का प्रभाव और रणनीति शेख़ अब्दुल्ला के समय ही शुरु हो गई थी । परन्तु लगता है महबूबा मुफ्ती अन्त तक बकरा पार्टी के वैचारिक आधार और प्रशासन की सीमाओं में संतुलन साधने में ही लगी रहीं और अन्ततः उसमें असफल हो गईं । अब वे कह रही हैं कि मैंने ग्यारह हज़ार पत्थर फेंकने वाले युवकों को रिहा कर दिया , इसका सीधा अर्थ है वे बकरा पार्टी के प्रभाव में ही काम कर रही थीं । या फिर एक साथ दो नावों में सवारी करने की नई तकनीक विकसित कर रही थीं । बीच बीच में उनकी सरकार सशस्त्र बलों के जवानों पर एफ़ आई आर भी दर्ज करवाती थीं । इसका सीधा अर्थ है वे उस क्षेत्र में प्रवेश कर गईं थीं , जहाँ उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में नहीं जाना चाहिए था । वह क्षेत्र अलगाववादियों का वैचारिक क्षेत्र था । वैसे तो महबूबा मुफ़्ती की पार्टी के लिए यह कोई नया क्षेत्र नहीं था , इसी क्षेत्र ने उनकी पार्टी को पाला पोसा था । लेकिन भाजपा-पीडीपी सरकार के नए प्रयोग से आम कश्मीरी को लगने लगा था कि शायद पीडीपी भी अलगाववादियों की बकरा विचारधारा के छायाजाल से मुक्त होकर घाटी में शान्ति स्थापना के लिए सचमुच काम करेगी । सरकार के इस प्रयोग से उत्साहित होकर ही कश्मीर घाटी के लोग और कश्मीर पुलिस के सिपाही भी आतंकवादियों से लोहा लेने लगे थे । पहली बार ऐसा हुआ कि जम्मू कश्मीर पुलिस के जवानों ने आतंकवादियों ने लोहा लिया । वे कश्मीर में शान्ति की तलाश में शहीद भी हुए । लेकिन शायद महबूबा मुफ़्ती अब अमन पसन्द करने वाले कश्मीरियों के साथ क़दम से क़दम मिला कर चल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी । सुरक्षा बल आतंकियों का सफ़ाया करने में लगे थे और महबूबा सुरक्षा बलों को घेरने वाले पत्थरमारों को बचाने की कोशिश किसी न किसी बहाने करती नज़र आ रही थीं । दरअसल कश्मीर घाटी में लडाई उस दौर पर पहुँच गई थी कि आपको किसी एक के साथ साफ़ तौर पर खड़े होना ही पड़ेगा । या तो आम कश्मीरी के साथ या फिर बकरों के साथ । आतंकवादियों द्वारा शुजात बुखारी और एक और गुज्जर सैनिक औरंगज़ेब की अमानुषिक हत्या इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि अब महबूबा ज़्यादा देर मध्यमार्गी नहीं हो सकती थी ।

महबूबा मुफ़्ती की अपनी सीमाएँ हैं । जिन अलगाववादियों ने कभी पीडीपी का समर्थन किया था उनका नियंत्रण सीमा पार के शासकों के हाथ में है । उन शासकों की इस छद्म युद्ध को लेकर एक पूरी रणनीति है । वे कश्मीर घाटी में काम कर रहे अलगाववादी गुटों या फिर उनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन से पले बढ़े राजनैतिक दलों को उस निर्धारित रणनीति से एक ईंच भी दाएँ बाएँ होने की अनुमति नहीं देते । शुजात बुखारी की निर्मम हत्या को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा । बुखारी मोटे तौर पर वह सब कुछ लिखते कहते थे जो अलगाववादियों को पसन्द था । वे अपने तरीक़े से सुरक्षा बलों की कार्यवाही का विरोध ही करते थे । प्रत्यक्ष या परोक्ष पत्थरमारों का भी वे समर्थन करते थे । लेकिन अब वे कश्मीर घाटी में शान्ति स्थापना की बात भी करने लगे थे । बुखारी के पास भी शान्ति स्थापना की बात करने के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं था । वे स्वयं भी सीधे या टेढ़े तरीक़े से पीडीपी से जुड़े हुए माने जा सकते थे । उनका भाई महबूबा मुफ़्ती की सरकार में मंत्री था । अलगाववादियों के समर्थन से सीटें जीतने वाली पीडीपी अब सत्ता में थी । इसलिए वह घाटी में शान्ति की इच्छुक थी । पीडीपी या महबूबा को अब अलगाववादियों के एजेंडा और शान्ति स्थापना के बीच संतुलन साधना था । लेकिन सीमा पार के नियंत्रक इस क्षेत्र में अपनी रणनीति से हट कर किसी और प्रयोग के लिए थोड़ा सा स्पेस देने के लिए भी तैयार नहीं हैं । बुखारी इसी स्पेस तलाशने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धो बैठे । अरसा पहले अब्दुल गनी लोन के साथ भी यही हुआ था । बुखारी और औरंगज़ेब की हत्या के बाद महबूबा मुफ़्ती को कोई साहसिक निर्णय लेना था । उसकी पार्टी को अब कौन सा रास्ता चुनना है ? अलगाववादियों की सहानुभूति से सीटें जीतने का पुराना रास्ता या फिर शान्ति स्थापना का नया रास्ता ।
महबूबा मुफ़्ती की सरकार एक दूसरे मोर्चे पर भी फ़ेल हुई । वह ऐसा मोर्चा था जिससे लोहा पीडीपी ही ले सकती थी । यह काम महबूबा को सरकार की मुख्यमंत्री होने की हैसियत से नहीं बल्कि अपनी पार्टी की मुखिया होने की वजह से करना था । इसमें सुरक्षा बलों की भी कोई भूमिका नहीं हो सकती थी । वह था मारे गए आतंकवादियों को दफ़नाए जाने पर निकाले जाने वाले जनाजों में एकत्रित होती भीड़ और आतंकियों को घेरे जाने और मुठभेड़ करते सुरक्षा बलों पर पथराव करते कुछ युवक । ये लोग कौन हैं ? क्या वे ऐसे मौक़ों पर इच्छा से आते हैं या फिर किसी सिस्टम से बँधे अनिच्छा से आते हैं ? महबूबा मुफ़्ती अच्छी तरह जानती होंगी कि इसके लिए जमायत जैसी संस्थाओं का नैटवर्क प्रयोग में लाया जाता है जिसका संगठन कश्मीर घाटी, ख़ासकर दक्षिण कश्मीर में फैला हुआ है । जमायत के पीछे आतंकियों का हाथ है । इसी नैटवर्क के आदेश पर पत्थरमार काम करते हैं और इसी के आदेश पर आतंकियों के जनाजों में इच्छा अनिच्छा से छातियाँ पीटते हैं । इस नैटवर्क को यदि पीडीपी चाहती तो तोड़ सकती थी या फिर कम से कम तोड़ने का प्रयास तो कर सकती थी । लेकिन यह प्रयास न तो अपने समय में नैशनल कान्फ्रेंस ने किया और न ही यह प्रयास पीडीपी ने किया । हो सकता है ये दोनों पार्टियाँ अपनी अपनी सुविधा के अनुसार इस नैटवर्क का दुरुपयोग अपनी राजनीति के लिए करती हों । चुनाव का बायकाट करने में हुर्यियत के साथ साथ यह नैटवर्क भी काम करता है । चुनाव के बायकाट के कारण नैशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी , दोनों को ही सीटें जीतने में आसानी हो जाती है । फारुक अब्दुल्ला , जो श्रीनगर लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में विजयी हुए , वे बायकाट के कारण ही हो सके । अन्यथा उनके जीतने की संभावना नहीं थी । इस नैटवर्क को तोड़ने में सोनिया कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं हो सकती , क्योंकि घाटी में अब कांग्रेस का नामलेवा भी कोई नहीं बचा है । वस्तुस्थिति तो यह है कि कश्मीर घाटी का प्रत्येक राजनैतिक दल घाटी को अशान्त रखना चाहता है । क्योंकि घाटी के दोनों मुख्य राजनैतिक दल पारिवारिक दल ज़्यादा हैं जिनमें आम जनता की भूमिका बहुत कम है । यदि आम जनता को आज़ादी से मतदान का अधिकार मिल जाए तो घाटी में नया युवा राजनैतिक नेतृत्व उभर सकता है और दोनों दलों का पारिवारिक नेतृत्व हाशिए पर आ जाएगा । इसलिए दोनों राजनैतिक दल चुनाव के बहिष्कार की कामना करते रहते हैं ।
लेकिन पीडीपी के भीतर भी इन प्रश्नों को लेकर कहीं न कहीं बहस चलती रहती है । पूर्व वित्त मंत्री जाने माने अर्थशास्त्री द्राबु का पिछले मार्च में मंत्रिमंडल से निष्कासन इसी बहस का परिणाम कहीं जा सकती है । प्रो० द्राबु ने इस सत्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकारने का साहस किया था कि कश्मीर घाटी  के भीतर की समस्या राजनैतिक नहीं है बल्कि यह सामाजिक समस्या है । द्राबु की इस स्वीकारोक्ति को तो पीडीपी , नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस समेत कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता था , क्योंकि इन तीनों राजनैतिक दलों की दुकानदारी कश्मीर की समस्या को राजनैतिक बनाने से चलती है । जबकि कश्मीर घाटी में यह सामाजिक तनाव , वहाँ प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार , सरकारी नौकरियों को बेचने , विकास के नाम पर आया सारा पैसा कुछ गिने चुने परिवारों में बँट जाने से पैदा होता है । इससे आम कश्मीरी का सिस्टम में विश्वास खंडित होता है । कुछ साल पहले जब जब उस समय के राज्यपाल जगमोहन ने घाटी में इन बीमारियों को दूर कर सामाजिक तनावों को कम करने की कोशिश की थी तो कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस ने उनको निकाल कर ही दम लिया था । यही हश्र द्राबु का हुआ । उन्होंने पिछले सत्तर साल से , निहित स्वार्थों द्वारों कश्मीर घाटी का शोषण करने के लिए जो राजनैतिक आवरण तैयार किया हुआ था और उस आवरण के नीचे जोंक की तरह आम कश्मीरियों का ख़ून चूस रहे थे , उनको बेपर्दा कर दिया । द्राबु को सत्य बोलने की क़ीमत चुकानी पडी । और वहीं से महबूबा मुफ़्ती ने यह संकेत भी दे दिया कि वे कश्मीर घाटी में शान्ति स्थापना के लिए एक ख़ास सीमा से आगे नहीं जा सकती । द्राबु उस सीमा से आगे चले गए थे और उनकी राजनैतिक हत्या कर दी गई । परन्तु शुजात बुखारी तो उस सीमा तक नहीं गए थे । सीमा तक जाने की बात तो दूर वे तो पीडीपी के अलगाववादी संतुलन के भीतर रह कर ही लिख बोल रहे थे । अलबत्ता उन्होंने समस्या को हल किए जाने पर कुछ ज़्यादा ज़ोर देना शुरु कर दिया था । यह करके उन्होंने उस सीमा को पार कर लिया था जो सीमा पार के नियंत्रणों ने घाटी के राजनैतिक-अलगाववादी-आतंकवादी समूहों के लिए तय कर रखी है । क्योंकि सीमा पार वालों की रणनीति में सुलगती कश्मीर घाटी फ़िट बैठती है , शान्त कश्मीर घाटी नहीं । बुखारी यह सीमा पार करने के अपराध में मारे गए । इसलिए वक्त आ गया था कि महबूबा मुफ़्ती को तय करना था कि वे और उनकी पार्टी एक स्थान पर रुक कर क़दमताल ही करेगी या कश्मीर में शान्ति के लिए आगे भी बढ़ेगी ?
लेकिन लगता है वे निर्णय नहीं कर पाई । वैसे द्राबु को बर्खास्त कर उन्होंने अपनी पार्टी की सीमा और रणनीति का एक संकेत तो कुछ मास पहले दे ही दिया था । परन्तु बुखारी की हत्या और औरंगज़ेब की शहादत ने महबूबा मुफ़्ती की आगे की यात्रा पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया था । महबूबा मुफ़्ती के पास इस प्रश्नचिन्ह को पार कर जाने का या तो साहस नहीं था या फिर वहीं रुके रहना उनकी पार्टी की रणनीति का हिस्सा ही था । और भाजपा के पास इस हालत में कोई विकल्प नहीं बचा था । पीडीपी के इस क़दमताल के साथ भाजपा तो नहीं चल सकती थी । भाजपा तो मध्यमार्गी नहीं हो सकती थी । उसके लिए कश्मीर में व्याप्त समस्याओं का तार्किक समाधान करना उसकी विरासत का हिस्सा था । उसने पीडीपी को लेकर एक प्रयोग यह भी किया था । बकरा विचारधारा का कश्मीरीकरण किया जाए । बकरे कश्मीर का अरबीकरण कहने के काम में पिछली कई शताब्दियों से प्रयासरत हैं । भाजपा के इसी प्रयोग के कारण आम कश्मीरियों में आतंकवादियों से लोहा लेने का संकल्प और साहस पैदा हुआ था । जब तक आम कश्मीरी को अपनी ही सरकार की मंशा और नीयत का स्पष्ट पता न चल जाए तब तक वह आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अपनी आबाज कैसे बुलन्द कर सकती है ? इसी मोड़ पर आकर महबूबा मुफ़्ती लड़खड़ा गईं और उसने आम कश्मीरियों के विश्वास को तोड़ा । इसी मोड़ पर औरंगज़ेब की शहादत सरकार के आगे प्रश्न बन कर खड़ा हो गई । महबूबा मुफ़्ती उसका जबाब नहीं दे सकी । इस हालत में भाजपा के आगे भी कोई विकल्प नहीं बचता था । उसे कश्मीर घाटी के आम कश्मीरी के साथ चलना था , उसे औरंगज़ेब की शहादत को सलाम करना था । यह सलाम महबूबा मुफ़्ती से समर्थन वापस लेकर ही किया जा सकता था । उसने बैसा ही किया । वैसे जब कभी दशकों बाद अभिताव मट्टू पेपर्ज का ख़ुलासा होगा तो और कई राज खुलेंगे , क्योंकि माना जाता है महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी की रणनीति बनाने में अमिताभ मट्टू की भी बहुत भूमिका रहती है ।
लेकिन भाजपा-पीडीपी के इस प्रयोग को सही परिप्रेक्ष्य में जानने के लिए बकरा विचार धारा को जान लेना जरुरी है ।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की स्वीकारोक्ति–  कश्मीर घाटी में बकरा पार्टी किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं है बल्कि यह एक विचारधारा  है , एक आईडिया है , जो कश्मीर घाटी में से कश्मीरियत को सोख कर उसका अरबीकरण करना चाहती है । यह कुछ उसी प्रकार की स्थिति है , जिसके बारे में कभी एम जे अकबर ने कहा था कि पाकिस्तान मात्र किसी देश का नाम ही नहीं है बल्कि वह एक आइडिया है । यदि इसकी व्याख्या की जाए तो इसका अर्थ होगा कि कोई व्यक्ति जो हिन्दुस्तान में रहता है उसे पाकिस्तानी बनने के लिए पाकिस्तान जाने की भी जरुरत नहीं है बल्कि यदि वह पाकिस्तान के आईडिया से जुड़ गया है तो हिन्दुस्तान में रहता हुआ भी वह पाकिस्तानी बन सकता है ।  घाटी में बकरा विचारधारा के आईडिया के  पैरोकार अरसा पहले अरबस्तान  से आकर बसे या तो अरब हैं या फिर मध्य एशिया के वे जन समुदाय हैं जो सदियों पहले अपना मज़हब छोड़ कर अरबों की क़तार में शामिल हो गए थे । वे इस क़तार में कैसे शामिल हुए , इसकी अलग कहानी है । इस अवधारणा को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के स्पष्टीकरण से ज़्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है । वे हिन्दुस्तान के पहले शिक्षा मंत्री थे । इससे पहले वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रधान भी रह चुके थे । मुसलमानों के वे बहुत बड़े नेता थे । उन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया था । यही कारण था कि वे विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए और उन्होंने हिन्दुस्तान में रहना ही उचित समझा । हिन्दुस्तान ने भी उन्हें मुल्क का शिक्षा मंत्री बना कर उनका सम्मान किया । भारत विभाजन का विरोध वे दो कारणों से करते थे । उनका कहना था कि हिन्दुस्तान के जिस हिस्से को पाकिस्तान बनाया जाएगा , वहाँ तो पहले से ही मुसलमानों का राज है । अस्सी प्रतिशत मुसलमान वहाँ हैं । देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था भी लागू हो जाएगी तब भी वहाँ मुसलमानों का ही राज रहेगा । इसलिए पाकिस्तान बनाए जाने वाले इलाक़े में मुसलमानों के लिए भयभीत होने की कोई वजह नहीं है । लेकिन मुस्लिम बहुल इलाक़े हिन्दुस्तान में से निकल जाने के कारण , शेष बचे हिस्से में मुसलमानों की संख्या बहुत कम रह जाएगी । इसलिए आज़ाद हिन्दुस्तान में उनकी हैसियत में बहुत फ़र्क़ पड़ जाएगा । लेकिन उन दिनों मुसलमानों का नेतृत्व जिनके हाथ में था , उन्होंने मौलाना की एक न सुनी । विभाजन होकर रहा । मुसलमानों द्वारा ठुकरा दिए जाने के बावजूद मौलाना निराश नहीं हुए । इसलिए उन्होंने पाकिस्तान में न जाकर यहीं रहना ज़्यादा बेहतर समझा । लेकिन इसके साथ ही मौलाना ने हिन्दुस्तान में मुसलमानों की संरचना पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणी की जिसकी ओर बाद के अध्येताओं ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया । यह अनजाने में भी हो सकता है या फिर जानबूझकर कर भी हो सकता है । कश्मीर घाटी लम्बित समस्या में मुसलमानों के बारे में , उनके व्यवहार या सामाजिकता के बारे में अध्ययन करने से पहले मौलाना की यह टिप्पणी धरातल का काम कर सकती है । मौलाना ने लिखा है ,”हिन्दुस्तान के 95 प्रतिशत मुसलमान हिन्दुओं की औलाद हैं । पाँच प्रतिशत मुसलमान विदेशी विजेताओं के साथ आए थे । बाद में वे पाँच प्रतिशत मुसलमान , जिनमें मेरा परिवार भी शामिल है, यहाँ हिल मिल गए ।” कितने हिल मिल गए , यह प्रश्न विवाद का नहीं है । यदि वे ऐसा कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे । लेकिन एक तथ्य उन्होंने लिखना शायद मुनासिब नहीं समझा । वह यह कि ये पाँच प्रतिशत मुसलमान जिनके पूर्वज हिन्दुस्तान को जीतने के लिए आए थे और उन्होंने उसे सचमुच जीत भी लिया था , अभी भी अपने आपके 95 प्रतिशत हिन्दुस्तानी मुसलमानों, जो उनके अपने शब्दों में ही हिन्दुओं की ही औलाद हैं , का नेता मानते हैं । इनको लगता है कि इन हिन्दुओं की औलाद का नेतृत्व करने और इन्हें मार्गदर्शन प्रदान करने का खुदाई अधिकार इनके पास है । इन हिन्दुओं की औलादों के वे नेता हैं , यह बात उनके मनोविज्ञान में से नहीं निकलती । इस मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में कश्मीर घाटी की राजनीति और वहाँ की समस्या को समझने में सहायता मिल सकती है । लेकिन इससे पहले कश्मीर घाटी में बकरा पार्टी का अर्थ जानना जरुरी है ।

मौलाना की स्वीकारोक्ति का कश्मीर घाटी में स्वरूप– 

कश्मीर घाटी में अरब से बरास्ता ईरान सैयदों का आना चौदहवीं शताब्दी से ही शुरु हो गया था । घाटी में कश्मीरियों के राज के अन्त में इन सैयदों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । यदि कोटा रानी को कश्मीर की अंतिम हिन्दू साम्राज्ञी मान लिया जाए तो यह माना जा सकता है कि 1339 में कश्मीर से कश्मीरियों का शासन छिन गया था । कोटा रानी की हत्या कर 1339 में शाहमीर ने कश्मीर के शासन पर अधिकार जमा लिया था ।  लेकिन शाहमीर तो स्वात घाटी का ही रहने वाला था । शाहमीर के बारे में कहा जाता है कि वह महाभारत के अर्जुन की कुल परम्परा का था । लेकिन अब वह अर्जुन की कुल परम्परा और विरासत को बहुत पीछे छोड आया था । उसने इस्लाम मज़हब स्वीकार कर लिया था । इस वंश ने दो सौ साल तक राज किया । इन्हीं दो सौ साल में कश्मीर घाटी में संस्कृति और मज़हब के मामलों में बकरा परम्परा विकसित हुई । ( बकरा परम्परा की अवधारणा और उसके नामकरण की व्याख्या आगे की गई है ) शाहमीर शासन के बाद मध्य एशिया के मुग़लों और बाद में अफगानों का राज रहा । इस कालखंड में बकरा परम्परा और भी सुदृढ़ हुई और कश्मीर घाटी में मंदिर तोड़े गए । अनेक स्थानों पर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाई गईं । आज भी उन कश्मीरियों के वंशज जो इस कालखंड में इस्लामी मज़हब में दीक्षित हो गए थे , मस्जिदों के सामने इबादत करते हुए भी ये पुरानी कहानियाँ सुनाते हुए मिल जाएंगे । जिन दिनों पश्चिमोत्तर में महाराजा रणजीत सिंह मुगलों व अफगानों से लोहा लेते हुए पुनः स्वराज्य की स्थापना का प्रयास कर रहे थे , उन दिनों कश्मीर घाटी में भी विदेशी सत्ता से छुटकारा पाने की सुगबगाहट शुरु हो गई थी । इसमें सफलता महाराजा रणजीत सिंह  को ही मिली । उन्होंने कश्मीर घाटी से भी इन विदेशी शासकों का अन्त किया था । उन्होंने तो आगे गिलगित बल्तीस्तान तक को विदेशी शासन से मुक्त करवा लिया था । लेकिन महाराजा रणजीत सिंह द्वारा कश्मीर घाटी को मुक्त करवा लेने से पहले ही कश्मीर घाटी में कश्मीरी सांस्कृतिक धारा के समानान्तर बकरा सांस्कृतिक धारा  स्थापित हो चुकी थी । इन दोनों धाराओं में भयंकर आंतरिक संघर्ष चलता रहता था ।
कश्मीर घाटी के मुसलमानों की जनसंख्या भी ,मौलाना के शब्दों का ही सहारा लेना हो तो , 95 प्रतिशत हिन्दुओं की औलाद है और पाँच प्रतिशत उन मुसलमानों की ,जिनके पूर्वज कश्मीर को जीतने आए थे और उसे जीत कर यहीं बस गए । जीत कर यहीं बसने वाले अपनी पहचान छिपाते भी नहीं । वे गौरव से उसका प्रदर्शन करते हैं । सैयद तो इसमें सबसे आगे हैं । वे अरब के सम्मानित कबीले से ताल्लुक़ रखते हैं । इसलिए अपने नाम के आगे बाक़ायदा सैयद लिखते हैं ताकि कोई ग़लती से भी उनको कश्मीरी न समझ ले । बाक़ी जो जिस देश से आया है या उसके जिस स्थान विशेष से आया है, उसकी पूँछ अभी भी अपने साथ चिपकाए घूमता है । मसलन गिलानी , हमदानी , करमानी, खुरासानी , बुखारी , अन्द्राबी इत्यादि इत्यादि । ऐसा शायद वे कश्मीरियों को डराने के लिए या फिर हर पल उनको याद दिलाने के लिए कि हमारे बाप दादा ने तुम्हारे बाप दादा को पराजित किया था , करते होंगे । वे अपने आपको आम कश्मीरी से श्रेष्ठ समझते हैं । अरब , ईरान, इराक़,मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान से आए ये मुसलमान सदा ही कश्मीरियों पर भारी रहे । यह अलग बात है कि यदि मौलाना आज़ाद की शब्दावली का ही प्रयोग करना हो तो मध्य एशिया के लोग भी हिन्दू या बौद्धों की औलाद ही माने जाएँगे । धीरे धीरे कश्मीरी भी इन हमलावरों के मज़हब में ही चले गए लेकिन इसके बाबजूद वे इन बाहरी मुसलमानों की नज़र में उनके रुतबे तक नहीं पहुँच सके । यह ठीक है कि देश के शेष प्रान्तों में भी इन विदेशी मुसलमानों का ही राज रहा लेकिन देश के शेष प्रान्तों और कश्मीर घाटी में एक अन्तर था । देश के शेष प्रान्तों में अधिकांश हिन्दू इस्लामी शासकों के भय , लालच या प्रभाव में आकर इस्लाम में मतान्तरित नहीं हुए थे जबकि कश्मीर घाटी में अधिकांश हिन्दु इस्लाम में मतान्तरित हो चुके थे । इस्लाम में मतान्तरित हो जाने के बाद उन्हें लगा होगा कि वे भी घाटी की राजनीति में बराबर के हिस्सेदार हो गए हैं और यह हिस्सा उन्हें मिलेगा भी । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इस्लामी शासकों की नज़र में वे हिन्दुओं की औलाद ही रहे और अरब से आने वाले मुसलमानों , ख़ासकर सैयदों की नज़र में उनकी हैसियत दोयम दर्जे की ही रही ।
अरब और मध्य एशिया से आने वाले मुसलमान  कश्मीरियों में हिलमिल पाए या नहीं , यह विवादास्पद है । सच तो यह है कि उनकी इच्छा कश्मीरियों में हिल मिल जाने की कभी थी ही नहीं बल्कि वे तो यह कोशिश करते रहे कि 95 प्रतिशत कश्मीरी इन पाँच प्रतिशत में घुलमिल जाएँ और चिनारों के विशालकाय पेड़ों को खजूर के पेड़ कहना शुरु कर दें । शारीरिक तौर पर कश्मीरियों ने चाहे इनके आगे पराजय स्वीकार कर ली लेकिन मानसिक रूप से कश्मीरियों ने इनके आगे हथियार नहीं डाले । कश्मीरियों को नियंत्रित करने  के लिए वे समय समय पर अनेक तरीक़े इस्तेमाल करते रहे हैं और अभी भी करते रहते हैं । मस्जिदों पर नियंत्रण और उनका अपनी रणनीति को आगे बढ़ाने में प्रयोग करना , सबसे प्रभावशाली तरीक़ा है ।  कश्मीर घाटी में प्रत्येक छोटी बड़ी मस्जिद का एक वाईज होता है । सीधी साधी भाषा में कहा जाए तो यह मस्जिद का इन्चार्ज होता है और मस्जिद में नमाज़ इत्यादि पढ़ाने के अलावा हम मज़हबों को उपदेश भी देता है । कभी कभी फ़तवे भी जारी करता है । अपने उपदेश में वह केवल मज़हबी नुक़्तों पर बात करेगा , ऐसा कुछ नहीं है । अनेक बार तो वह मज़हब को छोड़ कर बाक़ी सभी मुद्दों पर धुँआधार आग उगलता है । श्रीनगर की एक मस्जिद,  जामिया मस्जिद कहीं जाती है अर्थात बहुत बड़ी मस्जिद है , इसलिए इनके वाईज भी साधारण वाईज न होकर मीरवाइज़ कहलाते हैं । कश्मीर घाटी में इस्लाम के बाद जब मस्जिदें बननी शुरु हुईं तो ज़ाहिर है उनके मीरवाइज़ भी बाहर से आने वाले अरबों,तुर्कों,पठानों और मध्य एशियाई कबीलों के मौलवी बनाए गए । ताकि  इन मीरवाइजों के माध्यम से कश्मीरियों को नियंत्रण में रखा जा सके ।  ऐसे प्रयास इस्लामी विजयों के शुरुआती दौर से ही किए गए । लेकिन कश्मीरियों ने जितना संभव हो सका , अपने तरीक़े से इसका विरोध किया । उन्होंने ऋषि परम्परा को ज़िन्दा रखा । उन्होंने अपने ज़ियारत खाने खोल लिए । कश्मीरी अपने ज़ियारत खानों में नतमस्तक होने लगे और मीरवाइज़ कश्मीरियों के इस पतन पर छाती पीटते रहे । मौलवी मस्जिद में अरबों की जीत की कहानियाँ सुनाते  रहे , कश्मीरी चरारे शरीफ़ में नुन्द ऋषि के आगे सिजदा करते रहे और लल्लेश्वरी के बाख रटते रहे । बाहर से आकर कश्मीर को जीतने वाले पाँच प्रतिशत मुसलमानों के सैयद घाटी में छाती चौड़ी करके इतराते थे तो 95 प्रतिशत हिन्दुओं की औलाद मुसलमानों ने अपने शेख़ आगे कर दिए । उनके पास उंचे क़द का सैयद है तो इनके पास शेख़ हैं । शेख़ वह मुसलमान है जो उँची जाति के हिन्दु से मतान्तरित हुआ है । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा में इसका ज़िक्र किया है ।
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर घाटी को इन विदेशी शासकों से मुक्त तो कर दिया लेकिन घाटी से बकरा परम्परा की संस्कृति को समाप्त करने का उन्हें समय नहीं मिल सका । अलबत्ता वे अपने देहान्त से पहले स्वात, हुंजा , नग्गर ,जम्मू , लद्दाख , कश्मीर ,गिलगित और बल्तीस्तान इत्यादि को मिला कर एक सशक्त रियासत का निर्माण जरुर कर गए । रणजीत सिंह के देहान्त के बाद इस रियासत की बागडोर महाराजा गुलाब सिंह और उनके वंशजों के हाथ आई , जिसे रियासत के इतिहास में डोगरा राजवंश के नाम से याद किया जाता है । डोगरा राजवंश के शासकों ने घाटी में बकरा परम्परा के सांस्कृतिक प्रभाव को समाप्त कर कश्मीरियत की परम्परा को पुनः स्थापित करने के अनेक प्रयास किए । लेकिन ब्रिटिश शासकों के षड्यंत्रों एवं रणनीति के चलते कश्मीरियों एवं डोगरों में अविश्वास पैदा करने का प्रयास किया और कुछ सीमा तक उन्हें इसमें सफलता भी मिली । यह अलग बात है कि डोगरा राजवंश को चुनौती देते समय भी , घाटी में दो अलग फ़्रंट विकसित हो गए । पहला , मज़हब से निरपेक्ष रह कर चुनौती देने वाले कश्मीरियों का और दूसरा बकरों का ।

बकरा पार्टी का अर्थ और उसका नामकरण —
कश्मीर घाटी के इतिहास में कई सौ साल बाद ऐसा वक़्त आखिर आ ही गया जब एक शेख़, जिसका नाम मोहम्मद अब्दुल्ला था, ने पाँच प्रतिशत के नेतृत्व को हाशिए पर धकेल कर 95 प्रतिशत हिन्दुओं की औलाद वाले कश्मीरियों का परचम फहरा दिया । 1931 में जब शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने कश्मीर घाटी में महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ मोर्चा बाँध कर विद्रोह किया तो शुरु में उनकी सहायता मौलाना आज़ाद द्वारा चिन्हित इन्हीं ‘पाँच प्रतिशत’ मुसलमानों ने की थी । जामा मस्जिद के मीर वायज यूसुफ़ शाह ने ही उन्हें कश्मीरियों से रूबरू करवाया था । जामा मस्जिद में जुम्मे की नमाज़ के बाद मोहम्मद अब्दुल्ला को आम कश्मीरी से मुख़ातिब होने का मंच  मीरवायजों ने ही दिया था । उनको लगता था कि मोहम्मद अब्दुल्ला भी उनके नियंत्रण में उसी प्रकार रहेगा जैसे अब तक सैयदों के मजहबी मजहबी नियंत्रण में कश्मीरी रह रहे थे । लेकिन शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला धीरे धीरे उनकी छाया से बाहर होने लगा । कश्मीर घाटी के कश्मीरियों का नेतृत्व सचमुच एक कश्मीरी के हाथ में आने लगा । तब यक़ीनन ‘इन पाँच प्रतिशत’ को चिन्ता होने लगी और उन्होंने शेख़ के हाथों से नेतृत्व छीनने की कोशिश शुरु की । इनमें सैयद कुल के वे लोग जो अरसा पहले ईरान के विभिन्न शहरों यथा गिलान , करमान , हमदान , अन्द्राव इत्यादि से या तो आक्रमणकारियों या फिर उन सूफ़ी कलन्दरों के साथ जिन्होंने कश्मीर को मतान्तरित करने में मुख्य भूमिका निभाई , आकर घाटी में बस गए थे ,शामिल थे।  अरब इरान से आने वाले इन लोगों का घाटी की मस्जिदों पर नियंत्रण रहता था और अब तक भी उन्हीं के हाथों में है । मीरवायज यूसुफ़ के चेले भी खुले रूप में शेख़ अब्दुल्ला के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आए थे ।

लेकिन शेख़ में भी आख़िर ख़ून तो कश्मीरी ही था । सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाने से पहले शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला अपनी आत्मकथा में गौरव से यह बताने का मोह नहीं छोड़ सके कि हम भगवान दत्तात्रेय की पूजा करने वाले ब्राह्मणों के वंशज हैं । दरअसल कोटा रानी के बाद पहली बार कश्मीरियों को अपनों में से कोई नेता मिला था , जो सत्ता से टकरा सकता था । नहीं तो अभी तक कश्मीरियों को अरब इरान से आने वाले सैयद या फिर मध्य एशिया से आने वाले मुग़ल ही हाँकते रहे । यही लोग कश्मीर के सांस्कृतिक जीवन पर नियंत्रण रखते थे ।  बदली परिस्थितियों में शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने इन सैयदों के पैर नहीं लगने दिए । अलबत्ता यदि सैयद कश्मीरियों के फोलोयर बन कर चलना चाहें तो कश्मीरियों को क्या एतराज़ हो सकता था । परन्तु सैयद कश्मीरियों के नेतृत्व में उनके पीछे चलें , यह भला कैसे संभव हो सकता था । इस लिए ‘इन पाँच प्रतिशत’ ने शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का विरोध करना शुरु कर दिया । ऐसा नहीं कि मुख़ालफ़त करने वाला समुदाय उस समय के शासन को उखाड़ना नहीं चाहता था । उद्देष्य उसका भी सत्ता बदलना ही था । झगड़ा इस बात को लेकर था कि इस आन्दोलन का नेतृत्व किनके हाथ में रहे । कश्मीरी शेख़ अब्दुल्ला इस आन्दोलन के स्वभाविक नेता के तौर पर उभरे थे । लेकिन घाटी के वे लोग जिनका मूलस्थान अरब , ईरान और मध्य एशिया है वे किसी भी तरह इस आन्दोलन का नेतृत्व कश्मीरियों से हथियाना चाहते थे । अरब से आने वाले सैयद कुल के लोग , कश्मीरियों को हेय मानते थे फिर चाहे वह हिन्दु कश्मीरी हों या इस्लाम को भी स्वीकार कर लेने के बाद बना  मुसलमान कश्मीरी । जिन कश्मीरियों ने इस्लाम मज़हब के प्रभाव को भी स्वीकार कर लिया , अरबी महापुरुषों के नाम पर अपने नाम रखने शुरु कर दिए , पूजा पद्धति में नमाज़ को भी शामिल कर लिया , कश्मीरी दर्शन शास्त्र में इस्लामी दर्शन का भी अध्ययन शुरु कर दिया ,उनको भी मध्य एशिया से आए इन लोगों ने हेय दृष्टि से ही देखा ।
कश्मीरियों का नेतृत्व करने के प्रश्न पर अरब-इरान-मध्य एशिया के इस समुदाय और कश्मीरियों में धीरे धीरे झगड़ा बढ़ने लगा तो शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के संघर्ष काल में ही इस संघर्ष गाथा का नामकरण हो गया , शेर-बकरा की लडाई । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ कश्मीरियों को शेर कहा जाने लगा और यूसुफ़ शाह के चेलों को बकरा कहा जाने लगा ।  यह नामकरण कब हुआ और किसने किया , इसका पता लगाना तो आसान नहीं है लेकिन कश्मीरी जनमानस ने इसे जल्दी ही स्वीकार कर लिया और कश्मीर की राजनीति का मूल्याँकन इसी शब्दावली में होने लगा । कश्मीरियों की पार्टी शेर पार्टी कहलाई और अरब-इरानियों-मध्य एशियाई आक्रमणकारियों के वंशजों की पार्टी बकरा पार्टी कहलाई । दूसरी पार्टी के मुल्ला मौलवी ज़्यादातर लम्बी दाढ़ी रखते थे , उस के चलते ही उनका नामकरण बकरा पार्टी हुआ होगा , ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है । अरब प्रदेश से लेकर मध्य एशिया तक से कश्मीर को फ़तह करने के लिए आए लोगों की पहचान ही कश्मीर घाटी के मानस में बकरा पार्टी के नाम से जानी गई । कश्मीर घाटी के इन बकरों का मानसिक जुड़ाव ज़्यादातर पाकिस्तान के साथ रहता था । यही कारण था कि 1947 में पाकिस्तान बनने पर कुछ बकरे तो पाकिस्तान चले गए और कुछ उस जम्मू संभाग में चले गए , जिसके कुछ हिस्से पर आज भी पाकिस्तान ने क़ब्ज़ा किया हुआ है । मीरवायज युसूफ शाह भी पाकिस्तान भाग गए । यह भी कहा जाता है कि वे कश्मीर घाटी में ही रहकर बकरों को लामबन्द करने के इच्छुक थे लेकिन शेख़ अब्दुल्ला ने उनको पाकिस्तान भगा दिया । शेर पार्टी का अर्थ मोटे तौर पर कश्मीरियों , चाहे वे हिन्दु हों या मुसलमान , की पहचान से माना जाता था/है । लेकिन इसका अर्थ यह न लिया जाए कि सब कश्मीरी एक साथ एक जुट होकर शेर पार्टी की सफ़ों में चले गए । बहुत से कश्मीरी भी समय और हालत देख कर बकरों की भीड़ में शामिल हो गए । कुछ इक्का दुक्का बकरों का भी सही अर्थों में कश्मीरीकरण हो चुका था और वे भी शेर पार्टी में चले गए थे । इस शेर पार्टी का नेता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को माना जाता था । शेर पार्टी और बकरा पार्टी में भयंकर झगड़ों के ये क़िस्से कश्मीरी लोक साहित्य तक में दाख़िल हो गए । कई बार तो ऐसी उत्तेजना भी हो जाती थी कि श्रीनगर में राजनैतिक रूप से सक्रिय बकरों को राजनैतिक रूप से सक्रिय कोई इक्का दुक्का  शेर दिखाई दे गया तो वे तुरन्त बिना किसी कारण के उसकी पिटाई कर देते थे । इसी प्रकार यदि राजनैतिक रूप से सक्रिय शेरों के हत्थे राजनैतिक रूप से सक्रिय कोई बकरा चढ गया तो वे भी उतनी ही तत्परता से उसको धो डालते थे । श्रीनगर में अनेक तलाक़ इसी शेर बकरा की शिनाख्त व जहनियत के कारण हो गए ।  उन दिनों अख़बारों में शेर बकरों की इस लड़ाई की कहानियों की चर्चा भी होती रहती थी ।  अपने नेता की शेर से उपमा करने का रिवाज देश के अन्य प्रान्तों में भी प्रचलित है । मसलन महाराजा रणजीत सिंह को या फिर उसके बाद लाला लाजपत राए को शेर-ए-पंजाब कहा जाता है । लेकिन यह पहली बार हुआ कि किसी समुदाय के लोगों ने अपनी पार्टी को ही शेर पार्टी कहना शुरु कर दिया हो । कुछ साल पहले तक तो स्थानीय लोग इस शेर-बकरा लड़ाई की और इसके नामकरण की चर्चा  बहुत ही ज़ोर से करते थे लेकिन आजकल मद्धम स्वर में करते हैं । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला  ( यह भी इतिहास की त्रासदी कही जाएगी कि कालान्तर में शेरे कश्मीर कहे जाने वाले शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ही बकरों की शरण में चले गए ) ने उर्दू में लिखी अपनी आत्मकथा आतिश-ए- चिनार की शुरुआत ही शेर-बकरा के प्रकरण से की है । कश्मीर घाटी की राजनीति में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में शुरु हुआ शेर-बकरा का यह झगड़ा किसी न किसी रूप में आज तक भी चल रहा है । दरअसल कश्मीर घाटी में लम्बे अरसे से राजनैतिक लड़ाई इसी शेर-बकरा की पृष्ठभूमि में लड़ी जा रही है । मीरवाइजों के नेतृत्व में गिलानियों , खुरासानियों और बुखारियों ने कश्मीरियों पर अपना शिकंजा कसने के प्रयास निरंतर जारी रखे और वे प्रयास अब भी जारी हैं ।
कश्मीर घाटी में सैयदों और बहावियों द्वारा फैलाई जा रही यह बकरा विचारधारा ही घाटी में क़हर ढा रही है । पीडीपी को साथ लेकर भाजपा ने इसी विचारधारा को घाटी में अप्रासांगिक बनाने के लिए यह नया प्रयोग किया था । इसमें कुछ सीमा तक सफलता भी मिली । लेकिन एक सीमा से आगे महबूबा मुफ़्ती ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया । अब भाजपा के पास सरकार से हाथ खींच लेने के सिवा कोई विकल्प नहीं था । और उस ने उसी विकल्प का चयन किया । वह कश्मीरियों से विश्वासघात नहीं कर सकती थी ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,066 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress