अखिलेश आर्येन्दु
विकासवाद प्राणी विकास का आधुनिक सिद्धांत है। यह विश्वभर में पढ़ा-पढ़ाया जाता है। अनेक चर्चाएं और शोध इस पर किए जाते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है कि प्राणी विकास का यह सिद्धांत वैज्ञानिक दृष्टि और मानक के अनुसार सत्य है। मैंने विज्ञान में स्नातक करते समय इसे इण्टर मीडिएट और बीएससी की कक्षाओं में पढ़ा था। लेमार्क और डार्विन जैसे अनेक जीव वैज्ञानिकों का सृष्टि विज्ञान का सिद्धांत मैंने पढ़ा था। इसमें ईश्वर की कहीं भूमिका न होने के कारण मैंने विकास के सिद्धांतों को कभी स्वीकार नहीं किया था। साहित्य, दर्शन, संस्कृति और अध्यात्म मेरे जीवन के साथ-साथ रहे हैं। इसलिए यह कभी नहीं स्वीकार कर पाया कि सृष्टि उत्पत्ति और जीवों का विकास धीरे-धीरे अपने आप हुआ, इसमें ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। सत्यार्थप्रकाश, वैदिक सम्पत्ति, वैदिक सम्पदा, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसे अनेक ग्रंथों का प्रणयन करने के कारण आधुनिक विज्ञान का कोई भी सिद्धांत मैंने बिना विचार किए स्वीकार नहीं किया। भारत की नई पीढ़ी सोशल मीडिया और नए विचारों के साथ चलती है, लेकिन धर्म, अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान के सम्बंध में वह चिंतन उस तरह नहीं करती, जैसे अन्य विषयों पर करती है। इसलिए विकासवाद के सम्बंध में वह अपने स्कूल व कालेज की पुस्तकों में जो पढ़ती है उसे हूबहू मान लेती है। यही कारण है कि इतिहास और विज्ञान की अमान्य बातें भी बिना चिंतन किए मान लेती है। जबकि उसे प्रत्येक सिद्धांत, सूत्र और नियम पर स्वतंत्र मन से चिंतन करना चाहिए।
आधुनिक विज्ञान और वेद विज्ञान
आधुनिक विज्ञान ने अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं। मानव चन्द्रमा और अन्य ग्रहों -उपग्रहों की सैर कर आया है। अनगिनत आविष्कार हो चुके हैं और हो रहे हैं। मोबाइल, कम्प्यूटर, आधुनिक युद्ध प्राणालियां और शल्य चिकित्सा सहित विज्ञान का प्रत्येक क्षेत्र अपनी उपलब्धियों पर गर्व कर रहा है। लेकिन कुछ क्षेत्र और सिद्धांत ऐसे हैं जहां नए सिरे से चिंतन करने की आवश्यकता है। और यह क्षेत्र है- जीव विज्ञान का विकासवाद। विकासवाद पूर्णतया विज्ञान मूलक बताया जाता है। आधुनिक विज्ञान का मतलब यूरोपियन साइंस से है। हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि आधुनिक विज्ञान का विकास यूरोपियन देशों में हुआ। भारत में जब यूरोपियन विज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ तो उसके साथ उन देशों की भाषाएं और संस्कृतियाँ भी साथ आईं। भारत में पाश्चात्य संस्कृति का अंधाधंुध प्रचार-प्रसार और स्वीकारता का एक कारण यह भी है।
विकासवाद का सिद्धांत डारविन और लेमार्क का माना जाता है। जीव विज्ञान का सृष्टि उत्पत्ति का सिद्धांत विकासवाद का सिद्धांत है। विकासवाद के अनुसार प्राणी अथवा जीवन-तत्त्व का प्रथम आविर्भाव जलों में उद्भिद् के रूप में हुआ। इसके अनुसार जल-मिट्टी-वायु आदि के संयोग से एक प्रकार की सूक्ष्म काई बनी। उसी में पुनः जल-वायु का विलक्षण प्रभाव प्राप्त कर समस्त जलीय तथा धरती के तृण, लता, वृक्ष, गुल्म, ओषधि, वनस्पति तथा विविध वृक्षों आदि का क्रमशः विकास हुआ। कालानन्तर में इसी मूल जीव-बीज से सर्वप्रथम जल में ही एक दूसरी जीवन-शाखा चली। यह जीवन-शाखा एक कोशकीय प्राणी अमीबा कहा गया। फिर द्विकोशकीय प्राणी बनें और विकासक्रम में आगे बहुकोशकीय प्राणियों का विकास जल से थल और जल-थल दोनों पर रहने वाले प्राणियों का हुआ । और धीरे-धीरे विकास होता हुआ जलीय कीट, मछली, मेढक, सर्प, कछुआ, वराह, रीछ, बन्दर, बनमानुष आदि विभिन्न प्राणिस्तरों को पार करता तथा विकास होता हुआ आधुनिक मानव ( हामोसेपियंस) बन गया। इसमें लाखों-करोड़ों वर्ष लग गए।
आधुनिक विकासवाद का सिद्धांत यह भी बताता है कि मनुष्य का विकास चल रहा है और आगे चलकर मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से अतिविकसित मानव बन जाएगा। लेकिन यह नहीं बताता कि अतिविकसित होने के बाद मनुष्य और कितना विकसित होगा।
विज्ञान का एक नियम है, वह नियम है विज्ञान का कोई भी सिद्धांत या नियम अंतिम नहीं कहा जा सकता है। उसमें हमेशा परिवर्तन की संभावना बनी रहती है। लेकिन आधुनिक विकासवाद का सिद्धांत डारविन ने जो दिया था वह नव डारविनवाद के बाद उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
अब हम विचार करें कि विकासवाद का जो सिद्धांत विज्ञान की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है, क्या वह चिंतन, तर्क और विज्ञान के नियम के अनुसार सत्य है? विकासवाद में पृथ्वी की उत्पत्ति हुए 4 अरब वर्ष के लगभग हुए हंै। इसके अनुसार यह प्रारम्भ में अग्नि का जलता हुआ गोला थी। लाखों वर्षों में वर्षा होने से यह ठंठी हुई। वर्षा और भूकम्प के कारण कहीं समुद्र, नदी बन गए और कहीं-कहीं समतल और मरुथल। पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति करोड़ वर्ष पूर्व हुई। हैकल नामक वैज्ञानिक के अनुसार प्राणियों के विकासक्रम में मनुष्य का विकास हुआ। अमीबा से लेकर आधुनिक मनुष्य बनने तक में लगभग बाइस करोड़ वर्ष लगे। डाक्टर गैडी के अनुसार मछली से मनुष्य होने में 53 लाख 75 हजार पीढ़ियाँ बीतीं। इतनी ही पीढ़ियाँ अमीबा से मछली बनने में लगीं। इसके हिसाब से अमीबा से आज तक लगभग एक करोड़ पीढ़ियाँ बीत चुकीं हैं। कोई पीढ़ी एक दिन और कोई सौ वर्ष तक जीवित रहती है। यदि सबका औसत 25 वर्ष मान लें तो इस हिसाब से प्राणियों के प्रादूर्भाव को आज 25 करोड़ वर्ष होते हैं। यह देख चुके हैं कि जीव वैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी के निर्माण के करोड़ों वर्षों बाद प्राणियों की उत्पत्ति हुई। इस हिसाब से प्राणियों की उत्पत्ति आज तक 25 करोड़ वर्ष हुए। यह गणना विकासवादियों द्वारा निर्धारित अवधि ( दस करोड़ वर्ष) से आगे निकल गई है। इससे यह पता चलता है कि पृथ्वी और प्राणियों की उत्पत्ति का जो सिद्धांत विश्वभर में प्रचलित है वह तर्क, गणना और नियम के धरातल पर खरा नहीं है।
विज्ञानवेत्तओं ने विकासवाद को सही ठहराने के लिए पथ्वी की आयु का निर्धारण अनुमान के आधार पर किया। इसमें सूर्य ताप, भूताप, समुद्रक्षार, भौगर्भिक प्रकार और रेडियोएक्टिविटी प्रमुख है, जो इस तरह है-
1-सूर्य के पात द्वारा 18 से 20 मिलियन वर्ष ( एक मिलियन का अर्थ है दस लाख)
2- भूताप के द्वारा 20 से 60 मिलियन वर्ष
3-समुद्र जल के द्वारा 100 मिलियन वर्ष
4- भूगर्भ के द्वारा 100 मिलियन वर्ष
5- रेडियोएक्टिविटि के द्वारा 100 मिलियन वर्ष
अब इसमंे किसे अंतिम रूप से स्वीकार किया जाए, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है।
प्राणी विकास और विकासवाद
विकासवाद में प्राणियों के विकासक्रम में जो अंग अशक्त हो जाता है वह आगे चलकर कुछ पीढ़ियों में समाप्त हो जाता है। इसके उदाहरण में वे मनुष्य की पूँछ का धीरे-धीरे समाप्त होना बताते हैं। इसी तरह जिस अंग का प्रयोग अधिक किया जाता है वह अंग कुछ पीढ़ियों में सशक्त हो जाता है। एक और नियम विकासवादियों ने प्रस्तुत किया है। इसके अनुसार प्राण रक्षा के लिए जिस क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती, उसका अभ्यास नहीं रहता। अभ्यास न रहने से वह अंग अशक्त हो जाता है। भोजन के लिए प्रयत्न, प्राकृतिक संघर्ष और शत्रुओं से रक्षा के लिए प्राणी को अनेक परिवर्तनों में से गुजरना पड़ता है। उनमें से जो स्वयं को परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित कर लेता है वे बच जाते हैं और जो ऐसा नहीं कर पाते वे हमेशा के लिए समाप्त हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से शरीर में धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहा और प्राणी विभिन्न योनियों में बँट गया। आधुनिक विकासवाद मानता है कि क्रमिक विकास में उसकी इच्छा तथा उसको पूरा करने के लिए किए गए चिर कालीन अभ्यास के परिणाम स्वरूप होने वाले आकृति परिवर्तन के उदाहरण के रूप में अफ्रीका के मरुदेश में पाए जाने वाले लम्बी गर्दनवाले जिराफ़ का उल्लेख किया जाता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जिराफ़ पहले ऐसा नहीं था, जैसा आज देखा जाता है। जिराफ़ ने जब वृक्षों के नीचे वाले पत्ते खा लिए तो ऊपर वाले पत्ते खाने की इच्छा हुई। अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह गर्दन उठा-उठाकर प्रयत्न करने लगा। चिरकाल तक ऐसा करने से उसकी गर्दन लम्बी हो गई।
वैज्ञानिकों के इस मान्यता पर विचार करने से आकृति-परिवर्तन की यह मान्यता युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। जिराफ़ की गर्दन इस लिए लम्बी हो गई कि वृक्षों की नीचे वाली पत्तियां समाप्त हो गईं थीं अब उन्हें भोजन के लिए ऊपर की पत्तियों को प्राप्त करना आवश्यक था। लेकिन यदि वृक्षों की
ऊपर की पत्तियों को खाने के लिए जिराफ़ को गर्दन बार-बार उचकाना पड़ता था तो जिराफ़ को गर्दन बढ़ाने की अपेक्षा वृक्षों पर चढ़कर खाने की प्रवृत्ति का विकास उसमें क्यों नहीं हुआ। और बकरी जब नीचे की पत्तियाों को चुग लेती है तब तने पर या टहनियों पर अगले पैर टिकाकर पत्ते चुग लेती है। अनगिनत वर्षों से वह उसी तरह अपना पेट भरती रही है। परन्तु आज तक न उसकी गर्दन बढ़ी, न उसका अगला भाग लम्बा हुआ, और न उसके लिए चारे की कमी हुई। जिराफ़ के सम्बंध में जो मान्यता चली आ रही है उस पर कोई विचार नहीं किया गया, आज तक। जबकि यह मान्यता विज्ञानसंगत है ही नहीं। विचारणीय बात यह है कि जिराफ़ को अपना गर्दन बढ़ाने के बजाय बन्दर की तरह पेड़ पर चढ़ने की प्रवृत्ति का विकास उसमें क्यों नहीं हुआ? इसी तरह मनुष्य लाखों वर्षों से उत्तरी धु्रव तथा ग्रीन लैंड जैसे अतिशाीत प्रधान देशों में बसा हुआ है,किन्तु शीत से बचने की इच्छा तथा आवश्यकता को होतेे हुए भी उसके शरीर पर रीछ जैसे बाल पैदा नहीं हुए। एक उदाहरण और। राजस्थान की मरुभूमि में रहने वाली भेंड़ के बाल जैसे होते हैं वैसे ही हिमालय के शीत प्रधान स्थान पर रहने वाली भेंड़ के होते हैं। जब कि विकासवाद के अनुसार शीत प्रधान स्थान
वाली भेंड़ों के शरीर पर ही बाल उसको शीत से बचाने के लिए होने चाहिए। विकासवाद के अनुसार आत्मरक्षा की भावना के कारण कारण चीतल, नीलगाय आदि अनेक जंगली पशुओं में नर के सींग होते हैं, मादा के नहीं। क्या आत्मरक्षा के लिए सींगों की आवश्यकता नर को ही होती है, मादा को नहीं? एक सामान्य बात पर विचार करना चाहिए। पालतू गाय-भैंस में आत्म रक्षा का खतरा बहुत कम होता है, फिर भी दोनों के बड़ी-बड़ी सींगें होती हैं। विकासवाद को विज्ञान सम्मत मानने वालों से एक बड़ा प्रश्न है। विकासक्रम में अन्तिम-श्रेष्ठतम प्राणी मनुष्य है। तब भी मनुष्य की तुलना में चींटी जैसे छुद्र प्राणी को वर्षा का और कुत्ते जैसे निकृष्ट प्राणी को भूकम्प का पूर्वानुमान कैसे हो जाता है?
विकासवाद के अनुसार सर्वोच्च प्राणी ही संघर्ष के दौरान जीवित रहता है। मनुष्य सर्वोच्च बुद्धिमान प्राणी है। फिर निबुद्धि और कमजोर प्राणी हमेशा के लिए लुप्त क्यों नहीं हो गए? दूसरी बात, एक कोशकीय प्राणी अपने आप उत्पन्न हो गया, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर आज तक नहीं विकासवादी दे पाए कि एक कोशकीय प्राणी कैसे पैदा हो गए? यदि एक कोशकीय पैदा हो सकता है तो बंदर फिर मनुष्य अपने आप पैदा क्यों नहीं हो गए? इसे करोड़ों वर्षों में विकास की पटरी से क्यों गुजरना पड़ा? एक-एक कोश मिलकर क्या बहु कोशकीय प्राणी बनें? जीवन अपने आप पैदा होना और विकास होते-होते श्रेष्ठ प्राणी बनने की प्रक्रिया विकासवाद कहलाती है। लेकिन यह विकासवाद यह नहीं समझा पाता कि अमीबा स्वयं क्यों पैदा हुआ? यदि अमीबा स्वयं उत्पन्न हो सकता है तो ब्राह्मांड के सभी प्राणी स्वयं पैदा हो सकते हैं कि नहीं? यदि नही ंतो क्यों? इसमें विकास और आत्मरक्षा के अनुसार अंग का बनना और आवश्यकता न होने पर लुप्त होने की मान्यता का क्या मतलब है?
वेद विज्ञान का सिद्धांत
विकासवाद और ईश्वरवाद दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। विकासवाद जहां मान्यता और अनुमान पर आधारित है वहीं ईश्वरवाद ईश्वर द्धारा रचित सृष्टि के नियमों पर आधारित है। वेद के अनुसार सृष्टि का निर्माण सृष्टिकर्ता परमात्मा के द्वारा हुआ। यह सारा ब्रह्मांड उस परमेश्वर की कृति है। इसमें जड़, चेतन, वनस्पति, ओषधि, कीट-पतंगें, पशु-पक्षी और मनुष्य असंख्य प्राणी और अप्राणी सम्मिलित हैं। सारा ब्रह्मांड नियमों पर आधारित है। तीन सत्ताएं अनादि हैं-जीवात्मा, परमात्मा और प्रकृति। जीवात्मा स्वभावतःः उन्नति नहीं करता। यदि करता होता तो करोड़ों वर्षों में उसके ज्ञान की पराकाष्ठा होती। अनगिनत लोग सर्वज्ञ हो गए होते। किन्तु वास्तविकता यह है कि यदि बच्चों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाए, उसको शिक्षा या ज्ञान देने का कोई उपक्रम न किया जाए तो वे उन्नति के स्थान पर अवनति करेंगे। जंगल में छोड़ा हुआ बालक भेड़ि़ए के संग रहकर भेड़िए के स्वभाव का बना, मनुष्य की तरह न तो वह खाता था और न तो उसकी भाषा ही मनुष्य जैसी बनी। इसका अर्थ हुआ बिना संस्कार, शिक्षा और प्रेरणा दिए कोई भी बच्चा ज्ञानवान नहीं बन सकता है। आधुनिक मानव समाज विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति किया। सुख के साधन और संसाधनों से वह अधिक मालामाल है, लेकिन सद्गुणों और मानवीय व्यवहार में वह आदि मानव से अवनति की ओर गया है।
भाषा के स्तर पर मनुुष्य अवनति की ओर गया है। वेद विश्व पुस्तकालय की सबसे प्रचीन ग्रंथ माने जाते हैं। वेद की भाषा सबसे अधिक वैज्ञानिक, व्याकरणिक और गूढ़ है। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार वेद की भाषा जिसे छन्दश कहा जाता है से विश्व की अनेक भाषाओं का विकास हुआ है। इतना ही नहीं वेद में प्रयोग सैकड़ों शब्दों को किसी न किसी अर्थ में दूसरी भाषाओं में प्रयोग हुआ है। एक उदाहरण से हम इसे जान सकते हैं-
संस्कृत ईरानी अंग्रेजी
पितृ पिदर फ़ादर
मातृ मादर मदर
भ्रात मादर मदर
दुहित दुख्तर डाॅटर
भ्रू अब्रू ब्रो
इससे स्पष्ट है कि वेद की भाषा और उसमें निहित ज्ञान दुनिया के सबसे पुराने हैं। भाषा वैज्ञानिक वेदों में उल्लेख संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया-विशेषण तक का गहन विश्लेषण करके यह पाया कि वेदों की भाषा अत्यंत जटिल और वैज्ञानिक है।
वेदों के अनुसार इस सृष्टि की रचना एक महाशक्ति ने की है। यह सृष्टि अनंत काल से ऐसे ही चली आ रही है। सृष्टि का कण-कण नियम से बंधा हुआ है। एक कण जो इलेक्ट्रान-प्रोटान-न्यूट्रान से बना है, सभी अपनी कक्षा में चक्कर लगाते हैं। सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा और दूसरे ग्रन-उपग्रह नियम के मुताबिक ही कार्य
करते हैं। वेद विज्ञान जगत् को एक उद्देश्य वाला मानता है। जैसे मानव जीवन का उद्देश्य-मैंने जन्म क्यों लिया है? हमारे जन्म का कारण क्या है? मैं किसके लिए हूं? और हमारी मृत्यु क्यों होती है? मृत्यु में मौत किसकी होती है? और मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य क्या है? जैसे अनेक प्रश्न मनुष्य को उसकेजन्म लेने के उद्देश्य से जोड़ते हैं।
वेद विज्ञान के अनुसार प्रत्येक तत्त्व और पदार्थ के अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभाव हैं। वेद में मंत्रों में सृष्टि की रचना का वर्णन इस प्रकार है-
ओं ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्यमिषतो वशी।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकमल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।
इन मंत्रों में कहा गया है ऋत् और सत्य अर्थात् सत्य और सत्य के नियम के साथ प्रलय के इस कल्प में भी सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने अपने सहजभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका( घड़ी) पल और क्षण जैसे पूर्व में थे वैसे ही वस्तु जगत् को रचा है। कारण और कार्य का सम्बंध जैसे है वैसे ही कर्ता और कार्य का सम्बंध भी होना चाहिए। यह जगत् कार्य का परिणाम है, इसका कोई कर्ता यानी बनाने वाला तो होना ही चाहिए। आधुनिक विज्ञानवाद और आस्तिकवाद या ईश्वरवाद में यही अन्तर है। विकासवाद सृष्टि को अपने आप बन जाने की बात करता है, जो असंभव है। बिना किसी कर्ता के कोई कार्य हो ही नहीं सकता। और यह अनंत ब्रह्मांड बिना बनाए कैसे बन सकता है? मंत्र में कहा गया है, यह सम्पूर्ण जगत्, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, वायु सभी उसके ही बनाए हुए है। सामान्यतौर पर देखने पर भी लगता है कि इतनी सुन्दर सृश्टि को बनाने वाला भी कोई न कोई तो होना ही चाहिए। विकासवाद या नास्तिकता दोनों नकारात्मक प्रवृति वाले हैं। सकारात्मक आस्तिकता और ईश्वरवाद है।
हम कह सकते हैं आधुनिक विज्ञान जो धीरे-धीरे किसी महाशक्ति को स्वीकार करने की ओर बढ़ रही है, विकासवाद के सिद्धांत को एक दिन मानने से इनकार कर देगी।