इक़बाल हिंदुस्तानी
कैसे वतन जला उन्हें आता नज़र कहीं,
आंखें तो उनके पास हैं लेकिन नज़र नहीं।
ज़ालिम है कौन हमको भी यह खूब है पता,
कुछ मस्लहत है चुप हैं मगर बेख़बर नहीं।
सच्ची हो बात तल्ख़ हो लेकिन कहेंगे हम,
फ़नकार की क़लम पे किसी का जबर नहीं।
हो भाई तो बताओ ये हमले किये हैं क्यों,
सहमे क्यों आप देखा जो मेरा असर कहीं।
सारे शहर को कर्फ्यू में क्यों क़ैद कर दिया,
मुजरिम तो चंद लोग हैं सारा नगर नहीं।
उनकी शिकस्त में हमको लगा कुछ अजब नहीं,
ताक़त तो उनके पास है लेकिन हुनर नहीं।
जलते रहे जो घर तो बचेगा शहर नहीं,
बनता है घरों से शहर शहरों से घर नहीं।
राहों की मुश्किलें नहीं हिम्मत की थी कमी,
मंज़िल मिलेगी कैसे जो करते सफ़र नहीं।।
नोट-मस्लहत-रण्नीति, तल्ख़-कड़वी, फ़नकार-कलाकार, जबर-ज़ोर,
असर-प्रभाव, मुजरिम-अपराधी, शिकस्त-हार, हुनर-विधा।।
इकबाल भाई
आपकी ग़ज़लें और लेखों में जान है . मैं अक्सर आपकी ग़ज़लों को पड़ता हूँ .
शुभाकांक्षी
सुरेश महेश्वरी