ये सिसासत है, अभी बहुतों की जान लेगी

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-कुमार सुशांत-

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आम आदमी पार्टी द्बारा भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में बुधवार को नई दिल्ली में आयोजित किसान रैली में राजस्थान से आए एक किसान ने आत्महत्या कर ली। गृहमंत्री राजनाथ सिह ने इस मामले में जांच के आदेश दिए हैं। मीडिया समेत राजनीतिक गलियारों में निदा व समर्थन का दौर जारी है। इस घटना से इतना शोर क्यों है, इसे सोचकर आश्चर्य हो रहा है।

सवाल है कि उस समय शोर क्यों नहीं होता है जब प्राकृतिक आपदा झेल रहे सैकड़ों किसान दम तोड़ देते हैं? उस समय शोर क्यों नहीं हुआ जब 2०15 के शुरुआती तीन महीनों में सरकारी आश्वासनों के बाद भी किसानों के सुसाइड करने की घटनाओं ने थमने का नाम नहीं लिया। उस समय क्यों नहीं हुआ जब महाराष्ट्र सरकार की ओर से हाल में जारी आंकड़ों में कहा गया कि जनवरी से मार्च 2०15 तक प्रदेश में 6०1 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। महाराष्ट्र में उस समय शोर क्यों नहीं उठा जब वर्ष 2०14 में महाराष्ट्र में करीब 1981 किसानों ने सुसाइड की थी और ये चीखकर कहा गया कि ये आंकड़ा पिछले साल की तुलना में करीब 3० फीसदी ज्यादा है। उस समय शोर क्यों नहीं हुआ जब लगातार हो रही बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से उत्तर प्रदेश में भी फसलें तबाह हो गईं और अकेले यूपी में मार्च माह में 67 किसानों ने आत्महत्या की है। इनमें से 54 बुंदेलखंड इलाके से थे।

उस समय शोर क्यों नहीं हुआ जब यूपीए सरकार के दौरान नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो द्बारा प्रकाशित एक्सीडेंटल डेथ एंड स्यूसाईड-2०11 नामक दस्तावेज में कहा गया कि साल 2०11 में प्रति घंटे 16 लोगों ने आत्महत्या की थी। इसके पीछे वजह पुरुषों के मामले में आत्महत्या की मुख्य वजह सामाजिक-आर्थिक रहे जबकि महिलाओं के मामले में भावनात्मक और निजी थे तथा आत्महत्या करने वाले पुरुषों में 71.1% विवाहित थे जबकि महिलाओं में 68.2% विवाहित थीं। उस समय शोर क्यों नहीं हुआ जब पश्चिम बंगाल में हजारों किसानों ने आत्महत्या कर ली। अखबारी रिपोर्टों ने चीख-चीख कर कहा, केंद्र सरकार को सौंपी एक रिपोर्ट में आईबी ने बताया कि महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब में किसानों की आत्महत्या के मामलों में हाल में बढ़ोत्तरी देखी गई, जबकि गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों से भी आत्महत्या के मामले आये।

 

आईबी की रिपोर्ट के मुताबिक, किसानों की आत्महत्या की प्रमुख वजहें ‘ख़राब मानसून, कर्ज का बढ़ता बोझ, कम पैदावार या लगातार फसल बर्बाद होना, फसलों की कम कीमत’ आदि थे। रिपोर्ट में किसानों की बढ़ती मुश्किलों में भू-जल का गिरता स्तर और कृषि के प्रतिकूल आर्थिक नीतियां जैसे टैक्स, गैर कृषि ऋण और आयात-निर्यात की गड़बड़ कीमतों को भी जिम्मेदार ठहराया गया। प्रश्न है कि क्या हम चेते? क्या हमने उस वक्त इतना शोर मचाया? आज जिसकी जान गई है, उसे कोई वापस नहीं ला सकता। सवाल है कि भूमि अधिग्रहण को इतना राजनीतिक रंग क्यों दिया जा रहा है? क्या संसद की पटल पर उस पर स्वस्थ बहस नहीं हो सकती? क्या सर्वदलीय बैठक बुलाकर इसका निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता? क्या देश पर सियासी रंग चढ़ाकर सरकार को बदनाम करने में ऐसे कृत्य राजनेताओं की रैली में ही हुआ करेंगे और वह उन लाशों पर रैलियां करते रहेंगे? क्या मुख्यमंत्री की रैली इतनी अहम थी कि किसान गजेंद्र को रैली के बाद देखने अस्पताल जाने की बात बस कह दी गई? वो तड़पता रहा, रैली होती रही, भाषण होते रहे? क्या आपका भाषण इतना अहम था? शर्म आनी चाहिए आपको, आपके सिस्टम और आपके सलाहकारों को। देश को गुमराह न करें। यह केवल एक राजनीतिक दल के लिए सीख नहीं है, बल्कि तमाम मठाधीशों के लिए है, जो कुर्सी के लिए और सरकार को बदनाम भर करने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं।

 

दिल्ली की राजनीति को लेकर मुवन्नर राणा के बोल याद आ रहे हैं:

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है, कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है। ये सच है हम भी कल तक ज़िन्दगी पे नाज़ करते थे, मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी रेल लगती है। ग़लत बाज़ार की जानिब चले आए हैं हम शायद, चलो संसद में चलते हैं वहाँ भी सेल लगती है, कोई भी अन्दरूनी गन्दगी बाहर नहीं होती, हमें तो इस हुक़ूमत की भी किडनी फ़ेल लगती है।

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  1. कल जंतर मंतर पर जो कुछ हुआ ,उसका चस्मदीद गवाह तो नहीं हूँ,पर मैं यह अवश्य कह सकता हूँ, कि वह आदमी पुलिस की लापरवाही का शिकार हो गया. मैं वहां करीब १२.४५ तक था और मैंने उमड़ता हुआ जन सैलाब देखा था.मैंने यह भी देखा था कि वहाँ पुलिस भारी संख्या में उपस्थित थी.पुलिस के पास ऐसा इंतजाम अवश्य होगा ,जिससे वह हर जगह नजर रख रही होगी.क्या रैली में पेड़ पर चढ़ने की अनुमति थी?पुलिस ने फिर उसे पेड़ पर चढ़ने से क्यों नहीं रोका?वह दो घंटें तक पेड़ पर बैठा रहा,फिर भी पुलिस ने उसपर ध्यान क्यों नहीं दिया? यहाँ तक मंच से लोग चिल्लाये तब भी पुलिस ने कार्रवाई क्यों नहीं की?क्या पुलिस यह उम्मीद कर रही थी कि जो लोग मंच पर थे,वेवहां से उतनी बड़ी भीड़ में उतर कर आएंगे और उसकी जान बचाएंगे?मैं मानता हूँ कि उस पेड़ के आसपास भी जनता अवश्य होगी,जिसमे आम आदमी पार्टी के कार्यकर्त्ता भी होंगे और शायद उन्ही में से कुछ पेड़ पर चढ़े भी,पर वे तो ऐसे मौको के लिए प्रशिक्षित नहीं होंगे न.
    दूसरा प्रश्न यह उठाया गया है कि रैली रोकी क्यों नहीं गयी?यह रैली रोकने वाली बात वही कह सकता है,जो या तो पक्षपात पूर्ण रवैया रखता है,या उसे भीड़ के मनोविज्ञान कोई अंदाज नहीं है.अगर रैली वहीँ रोक दी जाती और नेता मंच से उतरे होते ,तो वहां भगदड़ मच जाती और तब कितने अन्य लोगों की जाने जाती यह कोई अनुभवी ही बता सकता है. अगर अरविन्द केजरीवाल अपना भाषण बीच में छोड़ कर अस्पताल की और दौड़े होते तब भी कुछ वैसा ही होता.मैं तो दाद देता हूँ ,वहां उपस्थित भीड़ को और भीड़ प्रबंधन को जिसके चलते इतना बड़ा हादसा होने पर उनका सयंम बना रहा.ऐसे इसमे राजनीति की रोटियाँ तो सब सेंक रहे हैं.
    खैर नतो किसी को यह ध्यान आएगा कि इन हादसों की तह में जाय और न यह ध्यान आएगा कि आखिर राजस्थान का रहने वाला वह व्यक्ति किन कारणों से इतना दुखी था कि उसने यह भयानक कदम उठाया.कम से कम उसे दिल्ली की आआप की सरकार से तो कुछ लेना देना होगा नहीं.

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