पानी फेकें कम से कम

नहीं बचा नदियों में दम,
पानी बहुत बचा है कम.
अगर न होगा पानी तो,
कैसे बचे रहेंगे हम।
      खुला छोड़ नल आते हैं,
      पानी व्यर्थ बहाते हैं।
       भर गिलास पानी लेते,
       आधा ही पी पाते हैं।
       जितना हमको पीना है,
       उतना क्यों न लेते हम.।
  ढेर -ढेर वर्षा का जल,
  नदी बहाकर ले जाती।
   जगह -जगह कंक्रीट बिछे,
   धरती सोख नहीं पाती।
    धरती भीतर तक सूखी,
    जो पहले रहती थी नम।

हरे -भरे थे वन उपवन,
हमनें हाय काट डाले।
जैसे जल देवता के ही,
हमने हाथ छाँट डाले।
छीने ठौर परिंदों के,
पशु फिरते होकर बेदम।
नहीं बरसता इतना जल,
जितनी हमको चाहत है।
अति वृष्टि या सूखे से,
सारा ही जग आहत है।
सूरज आग उगलता है,
धरा तवे सी हुई गरम।
पर्यावरण बचाया तो
शायद पानी बच जाये।
पानी अगर बचाया तो,
जीवन आगे चल जाये।
पेड़ अधिक से अधिक लगें,
पानी फेकें कम से कम।

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

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