काल सुसंगत सैन्य-भाव को जाग्रत किया : गुरु पूर्णिमा-२४ जुलाई

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[गुरु पूर्णिमा-२४ जुलाई ]

इंजि. राजेश पाठक



                   श्री अर्जुन देव के बलिदान के फलस्वरूप सिक्ख-धर्म के गुरुपद को जिन्होंने ग्रहण किया वो थे गुरु हरगोविंद सिंह. मुग़ल बादशाह जहाँगीर के हाथों अपने गुरु अर्जुन देव की दिल दहला देने वाली यातनापूर्ण हत्या नें अब तक शांतिप्रिय और अपनी इश्वर-भक्ति में लीन रहने वाले सिक्खों की ऑंखें खोल के रख दी. एकांत में माला जपने या मंदिर में जाकर पूजा-पाठ कर लेनें भर से ना धर्म का प्रभाव बढ़ने वाला है और ना  समाज की रक्षा ही होने वाली है इस घटना नें दुनिया के इस चलन को उन्हें भलीभांति समझा दिया.परिणामस्वरूप, तब के समाज में व्याप्त परंपरा में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाते हुए, जिससे की समाज में सामरिकता की भवना निर्मित हो, श्री हरगोविंद नें मंदिर में मिठाई और फूल के साथ-साथ घोड़े,अस्त्र-शस्त्र और धन चढ़ावे के रूप में लाने  पर बल दिया. साथ ही समर्पित और वेतन-प्राप्त दोनों ही प्रकार के सैनिकों से युक्त एक सेना तैयार करना शुरू  की; और अमृतसर की सुरक्षा के लिए लोहगढ़ किले का निर्माण भी किया. हरिमंदिर से अध्यात्मिक प्रवचन देने का चलन पुराना था, पर तत्कालीन परस्थिति में सत्ता और मजहब के विस्तार के लिए काफिरों के साथ छल-कपट, और उनके  रक्तपात को जायज़ मानकर  चलने वाले विदेशी हमलावरों के  सम्मुख अब सिर्फ इससे काम चलने वाला नहीं था. इस असंतुलन को मिटाते हुए, श्री हरगोविंद सिंह नें हरिमंदिर के सामने ही ईसवीं सन १६०६ में अकाल-तख़्त का निर्माण किया. अब यहाँ से भौतिक-जगत के यथार्थ पर भी प्रवचन दिए जाने लगे.जिससे कि अनुयायियों के बीच संगठन और एकत्व के भाव प्रबल हों हरगोविंद सिंह नें सामूहिक प्रार्थना की अपने समय की एक ऐसी दुर्लभ  परंपरा शुरू की जिसमें ऊँच-नींच, अमिर-गरीब के भेद-भाव का कोई स्थान न थ.
       ये वो समय था जबकि ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले जाट अपनी अदम्य लड़ाकू वृति व मजबूत कद-काठी के लिए जाने जाते थे. ‘चाहे जो हो अन्याय का बदला लेकर रहना’- उनमें पाया जानेवाला ये विशेष गुण था. जाटों की ये बातें गुरु को प्रभवित करने के लिए काफी थी, और दूरदृष्टि रखते हुए उन्होंने बड़ी संख्या में सिक्ख-धर्म में उन्हें  दीक्षित किया. अनुयायी जैसा अपने गुरु को पाते हैं, वैसा वे स्वयं होने की कोशिश करते हैं. इसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने गुरु के द्वारा दो तलवार धारण करने की परंपरा डाली- एक पीरी,आध्यात्मिकता की प्रतीक; तो दूसरी मीरी,भौतिक संपन्नता की. श्री हरगोविंद स्वयं शिकार के शौकीन थे, और मांस भक्षण को गलत नहीं मानते थे. साथ ही अनुयायी मांस-भक्षण करें या न करें ये उन्होंने उनकी इच्छा पर छोड़ रखा था. वैसे लंगर जैसे सहभोज के  धार्मिक आयोजन को जरूर इससे दूर रखा, जिसका पालन आज भी होता है. धर्म की रक्षा की दृष्टि से इस व्यवस्था की बड़ी भूमिका रही. क्योंकि तब ऐसे हिन्दुओं की भी कमी न थी जो मांस-भक्षण की अपनी लालसा को तृप्त करने के लिए इस्लाम स्वीकार कर लेने से अपने को रोक नहीं पाते थे. पर अब सिक्ख-धर्म के रहते उन्हें किसी और धर्म में शरण लेने की जरुरत न थी. गुरु हरगोविंद सिंह के द्वारा सिक्ख-धर्म में समावेश ये बदलाव सिक्खों के इतिहास में नए युग का सूत्रपात्र करने वाले सिद्ध हुए. और इसलिए आगे चलकर दसवें व अंतिम गुरु गोविन्द सिंह और उनके बाद महाराजा रणजीत सिंह और उनके निष्ठावान सैनिकों में जो शौर्य और पराक्रम देखने को मिलता है वो श्री हरगोविंद सिंह के द्वारा डाली क्षात्रत्व की परंपरा के कारण ही संभव हो पाया.  

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