तोता बोले मालिक की भाषा․․․

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प्रमोद भार्गव

जब तोता पालतू है तो मालिक की ही तो भाषा बोलेगा। कई मालिक हो तो तोते की भाषा भी भ्रामक हो जाती है। उन्‍हें जब मंसूरी की हरियाली से आच्‍छादित वादियों में आईएएस की एबीसीडी सिखाई जाती है तो उसके मायने होते हैं, ‘ए’ यानी ‘अवॉइड’ मसलन आम भाषा में टालना। ‘बी’ यानी ‘बाई-पास’ मसलन कतराना अथवा उपेक्षा करना। और ‘सी’ यानी ‘कन्‍फ्‌यूज’ मसलन उलझाना। यानी नोटशीट पर दर्ज की जाने वाली टिप्‍पणी में ऐसी भाषा लिखना, जिसमें चित्‍त भी अपनी और पट्‌ट भी अपनी। अब तोते को दिए अनैतिक प्रशिक्षण से नैतिक आचरण की उम्‍मीद कैसे करें ? फिर मूर्ख ज्ञानियों से इन तोता रंटतों को सावन के अंधों की तरह, सब कुछ हरा-हरा ही दिखता है। हरे-हरे गांधी छापों के आगे नीयत संयमित कैसे रहे ? सो जहां देखा झोल, वहीं गये आसानी से डोल।

हमारे मनीषियों ने तोतों की बुद्धि का परीक्षण शताब्‍दियों पहले ही कर लिया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब ऋषि ने बहेलिये से तोता छीनकर उसे ज्ञान का पाठ पढ़ाया। जिससे वह भविष्‍य में बहेलियों के चंगुल में न फंसे। पाठ था, ‘शिकारी आएगा। जाल बिछाएगा। दाना डालेगा। पर तुम लालच में आना नहीं। दाना चुगोगे नहीं, तो जाल में फंसोगे नहीं।’ तोते ने महर्षि के उपदेश को जस का तस रट लिया। वह इसे उठते-बैठते, सोते-जागते दोहराता रहता। महर्षि ने उसे खुला छोड़ दिया। पर वह उनके आश्रम के ही इर्दगिर्द मंडराता रहता। तोता भूल गया कि वह स्‍वतंत्र है। उसके पंख भी हैं।

तोते के इस व्‍यवहार से ऋषि को आशंका हुई, उन्‍होंने सोचा यह पाठ को रटता तो रहता है, लेकिन दैनिक जीवन में उतारता भी है कि नहीं ? सो, चतुर ऋषि ने उसकी परीक्षा लेने की ठान ली। उन्‍होंने बहेलिये को बुलाया और एकांत में जाल फैलवाकर दाना डलवा दिया। तोता पाठ रटता हुआ आया और दाना देखते ही मन ललचा गया। लालच बुरी बलाय का सबक उसकी बुद्धि में रहा ही नहीं। तोता जाल के शिकंजे में था। ऋषि ने शिष्‍यों को बुलाकर उपदेश दिया, ‘ज्ञान हासिल करने के उपरांत यदि उसे आचरण में नहीं ढाला गया तो वह इस मूर्ख ज्ञानी तोते की तरह व्‍यर्थ है।’

हमारे यहां कमोबेश ज्ञान का यही हश्र हो रहा है। जो ज्ञानी हैं, मसलन शिक्षित हैं, वे ज्ञान का नाकारात्‍मक उपयोग करके काले-कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। ऐसे ज्ञानी तोतों के आगे हरा चारा तो फैला ही रहता है। पदोन्‍नति का चारा, प्रतिनियुक्‍ति का चारा, सेवा वृद्धि का चारा और राज्‍यपाल या किसी आयोगाध्‍यक्ष का चारा। सो इनका ललचा जाना जन्‍मजात प्रवृत्‍ति में शुमार हो गया है। सीबीआई के सेवा निवृत्‍त निदेशक अश्‍विनी कुमार को तो हाल ही में राज्‍यपाल के पद से नवाजा गया। अब ऐसे में पिंजरे में बंद तोता मालिक की भाषा नहीं बोलेंगे तो क्‍या पीडि़त अवाम की भाषा बोलेंगे ? एक अधिकारी महाशय ने तो उपदेश ही दे डाला, कि ‘लोकसेवकों के आचरण में पानी सी तरलता होनी चाहिए, जो न केवल पात्र का आकार, बल्‍कि उसका रंग भी ग्रहण कर ले।’ मसलन माफियाओं के साथ माफिया का व्‍यवहार करे और भ्रष्‍टचारी के साथ भ्रष्‍टाचार का। इन महोदय को ज्ञात होना चाहिए पानी में पारदर्शिता भी होती है। लोकसेवकों के पानी का रंग तो कानून की धाराओं के रंग में विलय होना चाहिए, न कि माफिया सरगनाओं के रंग से ?

तोते की भाषा केवल अधिकारी नहीं बोलते, राजनीति में अपने आका की भाषा चमचे भी बोलते हैं। शीर्ष न्‍यायालय ने दागी मंत्रियों को कानूनी शिकंजे में लेने के संकेत क्‍या दिए, चमचे तोते की भाषा बोलने लग गए। जिससे ऐसा माहौल बने की दल की आलाकमान तो दागी मंत्रियों को बाहर का रास्‍ता दिखाना चाहती हैं, लेकिन शक्‍ति का दूसरा केंद्र उन्‍हें अपने छत्र की छाया दिए हुए है। वह भी इसलिए कि वे उनके पंसदीदा होने के साथ पंजाब से हैं। क्षेत्रीय और भाषाई कुटिलता को तोते जमीनी अंजाम देने में खूब कमाल दिखाते है ? भीष्‍म प्रतिज्ञा से अभिशापित कठपुतले सा नामित प्रधानमंत्री जवाब दे भी तो किस मुंह से ? कठपुतलों में न संवेदना होती है और नही स्‍वाभिमान !वे तो अदृश्‍य सूत्र-संचालकों के खिलौना भर होते है।

तोतों के भी पंख हैं, यह अहसास अदालत ने कराया है कि वे पर फैलाकर उड़ना सीखें। आजादी में सांस लें। पर पिंजरे का तोता तो पिंजरे का ही तोता ठहरा। दरवाजा खोल देने के बावजूद वह पिंजरे का रुख कर जाता है। पिंजरे का आदी जो हो गया है। एक आशंका इन तोतों को यह भी सताती रहती है कि बर्र के छत्‍ते में हाथ डाला तो खैर नहीं। सो तोते को मालिक की बोली ही लुभाती है और पद के चरम दुरुपयोग का सिलसिला जारी रहता है।

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