मानव के भौतिकवादी जीवन के प्रति बढ़ते अपनत्व और उसकी प्राप्ति के लिए किए जा रहे अनियंत्रित प्राकृतिक-दोहन के साथ-साथ औद्योगिक, यातायातिक, संचारिक एवं सामरिक संसाधनों आदि के द्वारा अग्राह्य गैसों के अबाध उत्सर्जन से बढ़ रहा प्रदूषण, आज ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के रूप में मानव ही के लिए एक विकट समस्या बन चुका है! ऐसा कत्तई नही है कि मानव इस समस्या से अनभिज्ञ हो, आज हर विकसित एवं विकासशील देश ग्लोबल वार्मिंग पर तमाम वैश्विक मंचों के माध्यम से अपनी चिंता जाहिर कर चुका है! पर विडम्बना ये है कि हरकोई इस विषय पर सिर्फ चिंता ही जाहिर कर रहा है, किसीके पास इसके निवारण के लिए न तो कोई पुख्ता नीति है, और न ही मजबूत इच्छा शक्ति! आलम ये है कि औद्योगिक प्रगति के लिए प्राकृतिक-बलिदान इस तरह से हो रहा है, जैसे उसका कोई मोल ही न हो! अगर आंकड़ों की बात करें, तो वर्ल्ड वाइल्ड लाईफ फंड द्वारा अप्रैल, २०१२ में अर्थ हेल्थ पर जारी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, विगत चार दशकों में हमारे वन्य एवं जल जीवों की संख्या में एक तिहाई की कमी आई है, जिनमे से बाघ और डॉल्फिन जैसे जीवों पर तो अस्तित्व तक का संकट है! रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जिस तरह से धरती पर इन जीवों के जीने की स्थितियों का अभाव होता जा रहा है, उसे देखते हुवे किसी अन्य ग्रह की आवश्यकता पड़ सकती है! रिपोर्ट का यह भी मानना है कि बढ़ती मानव आबादी की आवश्यकताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि आने वाले दो-तीन दशकों में उन्हें जीने के लिए दो धरती भी कम पड़ेंगी! इन सभी आंकड़ों को देखने पर एक बात तो साफ़ होती है कि पिछले चार दशकों में जहाँ मानव आबादी में अनियंत्रित वृद्धि हुई है, वहीँ अन्य जीवों की संख्या बृहद तौर पर घटी है! हम ये बात भी बड़ी सहजता से समझ सकते हैं कि मानव की बढ़ती आबादी और उसकी जरूरतें ही अप्रत्यक्षतः अन्य जीवों की संख्या में आई इस भारी गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं!
स्वच्छ पर्यावरण, प्राणी-मात्र के जीवन के स्वस्थ रूप से संचालित रहने के लिए तो अनिवार्य तत्व है ही, पर साथ ही में स्वस्थ विश्व प्रगति के समुच्चय का एक आवश्यक अवयव भी है! इस आवश्यकता को देखते हुवे आज इस युग में, जब विज्ञान अस्त्र-निर्माण में नित नव उन्नति के कीर्तिमान स्थापित कर रहा है, ये सवाल अनिवार्य हो जाता है कि अनंत सफलताओं के इस विज्ञान द्वारा कोई ऐसी खोज क्यों नही की जा रही, जिससे कोई ऐसा तरीका सामने आये, कि हम प्रकृति को मिटाए बगैर भी, उन्नति को प्राप्त कर सकें! पर विडम्बना ये है कि आज विज्ञान के पास ऐसी किसी खोज के लिए शायद समय ही नही है, क्योंकि विज्ञान का अधिकत्तर क्षेत्र एक से बढ़कर एक महाविनाशकारी अस्त्रों के निर्माण और शोध में मशगूल है, वो इन प्राकृतिक खोजों पर ध्यान कैसे दे? इस अस्त्र-निर्माण की होड़ के लिए विज्ञान का या किसीका भी क्या दोष, विश्व की वर्तमान सामाजिक परिस्थितियां ही ऐसी हैं कि हर राष्ट्र अपने आपमे शक्ति-संपन्न रहना चाहता है, क्योंकि शक्ति-सम्पन्नता ही उसे अपनी सुरक्षा की गारंटी लगती है! आलम तो ये है कि वो राष्ट्र जिनके यहाँ लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की कोई व्यवस्था बेशक नही है, पर उनके बजट का एक मोटा हिस्सा अस्त्र-निर्माण में अवश्य व्यय हो रहा हैं! ईरान का परमाणु-कार्यक्रम इसका एक सशक्त उदाहरण है! बेशक अस्त्र-सम्पन्नता की होड़ की इस समस्या के लिए किसी एक राष्ट्र या राष्ट्र समूह को दोषी कहना गलत होगा, पर फिर भी बड़े एवं पूर्ण शक्ति-संपन्न राष्ट्रों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, क्योंकि कहीं ना कहीं इस होड़ को पैदा करने वाले वही हैं! अतः अपनी गलती स्वीकारते हुवे, अपनी झूठी महत्वाकांक्षा के घेरे से बाहर आकर, उन राष्ट्रों को ये प्रयास करना चाहिए कि अस्त्र-निर्माण की ये होड़ समाप्त हो, और इसका सबसे बेहतर उपाय, भारत द्वारा आरम्भ से ही समर्थित निःशस्त्रीकरण व्यवस्था है! जिस दिन इस व्यवस्था पर विश्व ने मजबूत इच्छाशक्ति के साथ अमल कर लिया, उस दिन अस्त्रों की होड़ से मुक्त ये विश्व सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय, आदि हर रूप में आज से लाख गुना बेहतर हो जाएगा!
उपर्युक्त तथ्यानुसार क्रिया अगर विश्व समाज द्वारा अमल में लाई जाती है तो फिर विज्ञान भी तमाम विनाशक-निर्माणों की खोजों से मुक्त होकर अपना सम्पूर्ण ध्यान सकारात्मक एवं ऐसी खोजों पर केंद्रित कर सकेगा, जिनसे आम आदमी को लाभ हो, एवं प्रगति के लिए केवल प्राकृतिक-दोहन ही विकल्प ना रहे, क्योंकि वर्तमान प्राकृतिक-स्थिति को देखते हुवे, ऐसी कोई खोज अनिवार्य ही प्रतीत होती है, अन्यथा आनेवाला समय बड़ा भयावन है! इसी संदर्भ में बात जीवन की मूल आवश्यकताओं की करें, तो आज जिन चीजों की महंगे हो जाने से हम त्रस्त हैं, हो सकता है आनेवाले समय में वो चीजें उपलब्ध ही ना हों, तब क्या करेंगे, इस दुष्कल्पना से ही मन भयभीत हो जाता है! पर ये भी एक कटु सत्य है कि हमारी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति जिन प्राकृतिक-संसाधनों के दोहन से होती है, उनकी मात्रा जिस तरह से दिन प्रतिदिन घट रही है, उससे आनेवाले समय में उक्त दुष्कल्पना की क्रितरूपता के ही संकेत मिल रहे हैं! इसलिए, आज जरूरत है प्राकृतिक-विरासतों के संरक्षण और संवर्धन की, साथ ही मानवीय-आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के अतिरिक्त कुछ अन्य स्रोतों के तलाश की, जिससे समस्त भार केवल प्रकृति पर ना रहे! ये बहुत कठिन नही है, और अगर कठिन है तो भी, सुखद भविष्य के कामी विश्व को, अपने सुखद भविष्य के लिए ये करना ही पड़ेगा!