विचाराधीन कैदियों की न्याय तक पहुंच जल्द हो

0
417

-ः ललित गर्ग :-

न्याय में देर करना अन्याय है। भारत की न्यायप्रणाली इस मायने में अन्यायपूर्ण कही जा सकती है, क्योंकि भारत की जेलों में 76 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं, जिनका अपराध अभी तय नहीं हुआ है और वे दो दशक से अधिक समय से जेलों में नारकीय जीवन जीते हुए न्याय होने की प्रतिक्षा कर रहे हैं। इन्हें विचाराधीन कैदी कहा जाता है, नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी थे जिनमें से 76 फीसदी यानी 3,71,848 विचाराधीन कैदी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को गंभीरता से उठाते हुए ईज ऑफ लिविंग यानी जीने की सहूलियत और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी व्यापार करने की सहूलियत की ही तरह ईज ऑफ जस्टिस की जरूरत बताते हुए कहा कि देश भर की जेलों में बंद लाखों विचाराधीन कैदियों की न्याय तक पहुंच जल्द से जल्द सुनिश्चित की जानी चाहिए। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए न्यायप्रणाली की धीमी रफ्तार को गति देकर ही ऐसे विचाराधीन कैदियों के साथ न्याय देना संभव है और इसी से सशक्त भारत का निर्माण होगा।
डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज के सम्मेलन में प्रधानमंत्री द्वारा इस मसले को उठाना खास तौर पर महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ इसकी गंभीरता को भी दर्शाता रहा है। विचाराधीन कैदियों का मुद्दा अति गंभीर इसलिये है कि बिना अपराध निश्चित हुए असीमित समय के लिये व्यक्ति सलाखों के पिछे अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय सजा के रूप में काट देता है, जब ऐसे व्यक्ति को निर्दोष घोषित किया जाता है, तो उसके द्वारा बिना अपराध के भोगी सजा का दोषी किसे माना जाये? ऐसे में कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, ताकि यह व्यवस्था अधिकतम संख्या में नागरिकों को न्यायिक उपचार सुलभ कराने में सक्षम हो सके। सबसे पहले तो किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए बिना जेल में रखे जाने की एक निश्चित समय सीमा होनी चाहिए। यह अवधि अनिश्चित नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा एक ट्रैकिंग प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जो न्यायप्रणाली में विचाराधीन कैदियों का विश्लेषण कर यह बताए कि उनकी ओर से सलाखों के पीछे भेजे गए लोगों में से कितने आखिर में निर्दाेष साबित हुए? ऐसी कानूनी एजेंसियों की पहचान होनी चाहिए और उनके खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिए, जो अपनी ताकत का दुरुपयोग करती हैं। सरकार को उन मामलों में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, जिनमें अंतहीन सुनवाइयों के कारण जिंदगियां जेलों में सड़ गईं।  
विचाराधीन कैदियों का मुद्दा गंभीर है तभी प्रधानमंत्री ने पहले भी अप्रैल माह में राज्यों के मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में भी यह विषय उठाया था। सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर इस मसले को उठाता रहा है। बावजूद इन सबके पता नहीं क्यों, इस मामले में जमीन पर कोई ठोस प्रगति होती नहीं दिखती। नरेंद्र मोदी के द्वारा इस मुद्दे को उठाने लिए जो समय चुना है, वो सटीक भी है और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भी है।  देश अपनी आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है, यह समय हमारी आजादी के अमृत काल का है अतः देश में लम्बे समय से चले आ रहे अन्याय, शोषण, अकर्मण्यता, लापरवाही, प्रशासनिक-कानूनी शिथिलताओं एवं संवेदनहीनताओं पर नियंत्रण पाया जाना चाहिए। यह समय उन संकल्पों का है जो हमारी कमियों एवं विसंगतियों से मुक्ति दिलाकर अगले 25 वर्षों में देश को आदर्श की नई ऊंचाई पर ले जाएंगे। देश की इस अमृतयात्रा में न्याय प्रणली को चुस्त, दुरुस्त एवं न्यायप्रिय बनाने की सर्वाधिक आवश्यकता है। तभी प्रख्यात साहित्यकार प्रेमचन्द ने कहा था कि न्याय वह है जो कि दूध का दूध, पानी का पानी कर दे, यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए, खुद ही पाखण्डियों के जाल में फंस जाये।’
विचाराधीन कैदियों का 73 प्रतिशत हिस्सा दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों से आता है। इनमें से कई कैदी आर्थिक रूप से इतने कमजोर होते हैं जो वकील की फीस तो दूर जमानत राशि भी नहीं जुटा सकते। इसे देश की न्यायिक प्रक्रिया की ही कमी कहा जाएगा कि दोषी साबित होने से पहले ही इनमें से बहुतों को लंबा समय जेल में गुजारना पड़ा है। आलम यह है कि इनकी जमानत पर भी समय से सुनवाई नहीं हो पा रही। उत्तर प्रदेश से जुड़े ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट मई महीने में आदेश दे चुका है कि राज्य के ऐसे तमाम विचाराधीन कैदियों को जमानत पर छोड़ दिया जाए जिनके खिलाफ इकलौता मामला हो और जिन्हें जेल में दस साल से ज्यादा हो चुका हो। फिर भी जब ऐसी कोई पहल नहीं हुई तो पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और इलाहाबाद हाईकोर्ट के रुख पर नाराजगी जताते हुए कहा कि अगर आप लोग ऐसा नहीं कर सकते तो हम खुद ऐसा आदेश जारी कर देंगे। देखना होगा कि यह मामला आगे क्या नतीजा लाता है, लेकिन समझना जरूरी है कि बात सिर्फ यूपी या किसी भी एक राज्य की नहीं है। पूरे देश के ऐसे तमाम मामलों को संवेदनशील ढंग से देखे जाने और इन पर जल्द से जल्द सहानुभूतिपूर्ण फैसला करने की जरूरत है। ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका, न्यूजीलैण्ड, श्रीलंका जैसे मुल्कों ने जमानत के लिए अलग से कानून बनाया है और उसके अच्छे परिणाम आए हैं। भारत में भी ऐसे कदम उठाये जाने की जरूरत है।
कानून के मुताबिक, विचाराधीन कैदियों को जमानत मिलना उनका अधिकार है, लेकिन जागरूकता के अभाव, कानूनी प्रक्रिया की विसंगतियों के चलते या कई बार तकनीकी कारणों से वे लंबे समय से बगैर दोष साबित हुए जेल में बंद हैं। दंड शास्त्र का स्थापित सिद्धांत है कि बिना अपराध साबित हुए किसी व्यक्ति को जेल में बंद नहीं रखा जाना चाहिए। जमानत के प्रार्थनापत्र का शीघ्रता से निस्तारण संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हिस्सा है। ऐसे प्रार्थनापत्रों का एक समय-सीमा में निस्तारण होना चाहिए, और जब तक अभियुक्त को छोड़ने से न्याय पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका न हो, तब तक उसे जमानत से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। पर हकीकत इससे अलग है। तभी मोदी ने सम्मेलन में भाग लेने वाले जिला न्यायाधीशों से आग्रह किया कि वे विचाराधीन मामलों की समीक्षा संबंधी जिला-स्तरीय समितियों के अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यालयों का उपयोग करके विचाराधीन कैदियों की रिहाई में तेजी लाएं।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार कि देश में करीब 76 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। इनमें से एक बड़ी संख्या ऐसे कैदियों की होती है जिन्हें शायद निर्दाेष पाया जाएगा। सारे विचाराधीन कैदियों में यह बात आमतौर पर देखी जाती है कि वे गरीब, युवा और अशिक्षित होते हैं। शायद सबसे बड़ा जोखिम गरीबी के कारण पैदा होता है, जो दो तरह से चोट करती है। एक, आर्थिक रूप से पिछड़े लोग कानूनी रूप से असहाय हो जाते हैं, क्योंकि उनके पास जेल जाने से बचाने वाली कानूनी लड़ाई के लिए पैसे नहीं होते। दूसरे, अगर जमानत मिल भी गई तो कई बंदी जमानत की रकम चुका नहीं पाते। ऐसे लोगों के लिये सरकार को कदम उठाते हुए सरकारी निःशुल्क कानूनी सहायता के उपक्रमों को विस्तारित करना चाहिए। हर उस व्यक्ति को सरकार से मुआवजा मिलना चाहिए जिसे न्यायिक हिरासत में एक साल बिताने के बाद निर्दाेष पाया जाता है, क्योंकि सरकार समय पर कानूनी प्रक्रिया पूरी करने में विफल रही। भारत को अपनी न्याय प्रक्रिया में इस दृष्टि से आमूल-चूल परिवर्तन, परिवर्द्धन करने की आवश्यकता है कि अगर किसी आरोपित के पास जमानत के पैसे नहीं हैं तो सरकार उसकी आर्थिक मदद करे या जमानत हासिल करने के लिए उसे ऋण उपलब्ध कराए। गरीबी के कारण किसी को जेल में नहीं रखा जा सकता। विचाराधीन कैदियों में निश्चित ही कई निर्दाेष होंगे। अन्याय का शिकार होने वाले ऐसे लोगों का मुद्दा ज्वलंत एवं अति-संवेदनशील होना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। ऐसी सरकारी व्यवस्था निरर्थक होती है, जो न्याय न दे सके और देरी से मिला न्याय अन्याय ही होता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,057 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress