प्रमोद भार्गव
परदेश में जान जोखिम में डालकर रोजगार पाने वाले युवाओं की दिल दहला देने वाली तस्वीर सामने आई है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआई) ने सूचना के अधिकार के तहत हासिल की जानकारी में खुलासा किया है कि खाड़ी देशों से जो एक अरब डाॅलर भारत में आते हैं, उसके बदले में औसतन 117 भारतीयों को प्राण गंवाने पड़ते हैं। भारत आई इस राशि की उपलब्धि हमारे राजनेता खुब गाते हैं, किंतु इस पसीने की कमाई में हर साल कितने लोग जान गंवा देते हैं, इसकी जानकारी न तो संसद या विधानसभा में दी जाती है और न ही नेता अपने भाषणों में इन दर्दनाक मौतों का उल्लेख करते हैं ? भारतीय जनता, मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता भी इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देते है। अलबत्ता अब सीएचआई द्वारा की गई विशेष कोशिशों के जरिए खाड़ी के देश बहरीन, ओमान, कतर, कुवैत, सऊदी अरब और सयुंक्त अरब अमीरात से पिछले साढ़े छह वर्षों में हुई भारतीयों की मौतों और उनके द्वारा भेजी गई धनराशि के जो आंकड़े सामने आए हैं, वे हैरानी में डालने वाले हैं। 2012 से 2017 के बीच इन देशों से 209.07 अरब डाॅलर रकम भारत आई, इसी अवधि में इन देशों में 24,570 भारतीय कामगारों की अप्राकृतिक मौतें हुईं। मसलन इन देशों में प्रत्येक दिन औसतन 10 भारतीय या तो जोखिम भरे कामों में दुर्घटनाग्रस्त होते हैं अथवा स्थानीय बीमारियों की चपेट में आकर प्राण गंवा देते हैं। विडंबना यह है कि दुर्घटना में घायल व्यक्ति को समय पर न तो इलाज मिलता है और न ही मौसमी बीमारियों की चपेट में आए व्यक्ति के उपचार के माकूल इंतजाम हैं। नतीजतन जिनकी जान बचाई जा सकती है, वे भी अकाल मौत मर जाते हैं।
पूरी दुनिया में करीब 3 करोड़ भारतीय विदेशी धरती पर रहकर आजीविका के संसाधन जुटाते हैं। इनमें सबसे ज्यादा 90 लाख खाड़ी के देशों में रहते हैं। इन लोगों ने 2012 से 2017 के बीच स्वदेश 410.33 अरब डाॅलर की रकम भेजी। इसमें से 209.07 अरब डाॅलर केवल खाड़ी के देशों से भारत आई। इससे यह स्पष्ट होता है कि परदेश से जो विदेशी मुद्रा भारत आती है, उसमें 50 प्रतिशत से ज्यादा खाड़ी-देशों में मौजूद भारतीय कामगार भेजते हैं। इनमें से अधिकांश वे हैं, जो कम पढ़े-लिखे होने के कारण इन देशों में जोखिम भरे काम करते हैं और कष्टसाध्य जीवन बीताते हुए कमाए धन की बचत करके भारत भेजते हैं। इन मजदूरों को कठिन कामों के साथ अपमानजनक हालातों का भी सामना करना पड़ता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक संयुक्त अरब अमीरात में 2017 में 339 भारतीय मजदूरों की मौंते हुईं, जिनमें से 65 प्रतिशत 45 वर्ष से कम उम्र के थे। इनमें से ज्यादातर की मौंते लू लगने या दिल का दौरा पड़ने से हुईं थीं। दरअसल खाड़ी के देशों में गर्मी अधिक पड़ती है और वायु के थपेड़ों के साथ उड़कर आने वाली रेगिस्तानी रेत की भी मार झेलनी पड़ती है। यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर पहुंच जाता है, जो भारतीय जलवायु के एकदम प्रतिकूल होता है। इस कारण ये लू की चपेट में जल्दी आ जाते है। चूंकि ये लोग मेहनत-मजदूरी से रोजी-रोटी कमाते हैं, इसलिए इन्हें इन देशों में रह रहे भारतीय चिकित्सक एवं इंजीनियरों की तरह स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। इन्हें ड्राइवर, इलेक्ट्रीशियन एंड प्लंबर की तरह कुशल मजदुरों की श्रेणी में भी नहीं रखा जाता। इसलिए इन लाचारों की परवाह कोई नहीं करता है।
भारत में युवा बेरोजगार किस हद तक जान जोखिम में डालकर रोजगार पाने को उतावले व परेशान हैं, यह इराक में 39 भारतीय नौजवानों की दर्दनाक मौत से भी हमें पता चला था। मारे गए युवक और उनके परिजन अच्छी तरह से जानते थे कि उनके लाडले इराक के जिस मोसुल शहर के नजदीक आजीविका के संसाधन जुटाने जा रहे हैं, वह आतंकियों की क्रूरता का गढ़ है। लेकिन देश में व्याप्त बेरोजगारी कि जो भयावहता है, उसने उन्हें इस जानलेवा संकट को झेलने के लिए मजबूर कर दिया था। बेरोजगारी की इन कुरूपताओं से पर्दा उठने के बाद भी हमारे नीति-नियंता देश में ही रोजगार उपलब्ध हों, ऐसे उपाय करेंगे, फिलहाल लगता नहीं है ?
दरअसल ये मौतें ऐसे आइने के रूप में भी पेश आई है, जो हमारे समाज, सरकार और बेरोजगारी का विद्रूप चेहरा पेश करती है। बेरोजगारी का आलम यह है कि देश का नौजवान युद्धग्रस्त क्षेत्र में भी नौकरी के लिए लालायित है और दुर्गम क्षेत्रों में भी काम करने को विवश हैं। 25 से 30 हजार रुपए की नौकरी के लिए युवा दूर-देश में जाकर जान जोखिम में डाल रहे हैं। ज्यादातर परिजनों को पता है कि इराक एक ऐसी मौत की घाटी है, जहां जीवन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। बावजूद जीवन-यापन के दबाव में पैसा कमाने की जो जुम्मेबारी है, उसका एहसास करते हुए परिजन आतंकी क्षेत्र में भी काम करने की इजाजत देने को विवश हो जाते हैं। हम भली-भांति जानते है कि खाड़ी के देशों में मौसम भारतीय मौसम के एकदम विपरीत है और काम भी कठिनाई भरे हैं, बावजूद रोजगार के पर्याप्त विकल्प नहीं होने के कारण युवा इन देशों में रोजी-रोटी की तलाश के लिए कूच कर जाते हैं। साफ है, ऐसे विकल्प कोई भी नौजवान या उसके परिजन जान-बुझकर नहीं चुनते हैं, बल्कि आर्थिक मजबूरी उन्हें ऐसे कठिन रोजगार के विकल्प चुनने को मजबूर करती है। और युवक वैध अथवा अवैध तरीकों से भी इन देशों में पहुंच जाते हैं। नौका दुर्घटनाओं और अन्य देशों के कंटेनरों में छुपकर जाते बेरोजगार युवाओं की दर्दनाक मौतों से अवैध तरीके से जानें की कड़वी सच्चाईयां सामने आती रही हैं। ये हकीकतें शाइनिंग इंडिया, नया भारत और बदलता इंडिया जैसे नारों की पोल खोल रही हैं।
भारत सरकार अपनी तरफ से विज्ञापनों के जरिए लगातार ऐसी चेतावनियां देती रहती है कि भारतीयों को कामकाज या नौकरियों के लिए किन-किन क्षेत्रों में जाना चाहिए और किनमें नहीं। किंतु अब ये विज्ञापन पर्याप्त नहीं कहे जा सकते हैं। दरअसल नौकरी के बहाने विदेश भेजने वाले ऐसे एजेंटों दलालों पर भी नकेल कसनी होगी, जो अशांत क्षेत्रों के लिए महिला एवं पुरुष नौजवानों की भर्ती करते हैं। असल में इन बेरोजगारों को यह बताया ही नहीं जाता कि उन्हें किस देश के किस शहर में नौकरी दी जा रही हैं। इन्हें केवल अच्छी जगह, अच्छी नौकरी का भरोसा दिया जाता है। कई जगह तो ये दलाल ऐसे युवाओं को भी विदेश भेज देते हैं, जिनके पास पासपोर्ट और उस देश में काम करने का वर्किंग वीजा भी नहीं होता है। दलेर मेंहदी जैसे गायक कलाकार को तक मानव तस्करी के मामले में दो साल की सजा सुनाई जा चुकी है। वैसे भी किसी भी देश में चोरी-छिपे जाना और फिर वहां लंबे समय तक रहना आसान नहीं होता है। बावजूद लोग कानून का उल्लंघन कर जाते भी हैं, और दलाल भेजते भी हैं। साफ है, ऐसी एजेंसियों और दलालों पर प्रतिबंध के कड़े बंदोबस्त किए जाएं और इन पर सतत निगरानी भी रखी जाएं। सबसे बेहतर तो यह है कि देश के नौजवानों को देश में ही रोजगार के नए-नए अवसर पैदा किए जाएं और उन्हें परंपरागत कामों से जोड़ा जाए। जिससे वे देश में ही गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।