भारत में आवश्यक है समान नागरिक कानून

सुरेश हिंदुस्थानी
प्राय: कहा जाता है कि कठोर कानूनों के माध्यम से ही देश के अंदर एकता का भाव निर्मित होता है। इसमें सबके लिए एक प्रकार का कानून हो तो इस दिशा में सकारात्मक प्रयास किए जा सकते हैं, लेकिन भारत देश में अंग्रेजों के समय से ही कानूनों को इस प्रकार से बनाया गया कि लोग केवल अपने ही बारे में सोचें। इससे जहां देश की कमजोरी सामने आती है, वहीं एकता के सूत्र में भी बिखराव का कारण भी बनता है। भले ही लोग समान नागरिक संहिता लागू करने के मुद्दे को भारतीय जनता पार्टी से जोड़कर देखते हों, लेकिन सत्य तो यही है कि यह प्रकरण वास्तव में देश हित से जुड़ा हुआ मामला है। इससे किसी भी संप्रदाय को समान दृष्टि से देखने का कानूनी अधिकार होगा और यह सरकारों की भी बाध्यता में भी शामिल हो जाएगा।
विश्व के किसी भी देश के उत्थान और विकास के लिए यह जरुरी है कि उस देश कानून लोगों को किस प्रकार के अधिकार देता है, और उसके अनुपालन में लोग देश के बारे में किस प्रकार से सोचते हैं। वास्तव में जब कानून सबके लिए समान होगा तो यह तय है कि देश के नागरिकों को भी वह तमाम अधिकार मिल जाएंगे, जो वह सबके लिए चाहता है। समान नागरिक संहिता को लेकर देश में फिर से बहस शुरु हो गई है, और यह होना भी चाहिए। क्योंकि बहस के आधार पर ही उसकी अच्छाई या बुराई सामने आ सकेगी। वैसे यह बात सही है कि देश में असमान कानून होने के कारण ही आज कश्मीर कभी कभी देश की मुख्य धारा से कटा हुआ दिखाई देता है। कश्मीर को मिले विशेष दर्जा के कारण ही आज भी भारत सरकार सीधे तौर पर कश्मीर में किसी भी प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं कर सकती। पूरे देश की सरकार होने के बाद भी कश्मीर में बिना प्रदेश सरकार की अनुमति के केन्द्र सरकार कोई कदम नहीं उठा सकती। भाजपा नीत केन्द्र सरकार ने विधि आयोग को पत्र लिखकर समान नागरिक कानून के बारे में राय मांगी है, उससे यह तो साफ हो गया है कि भाजपा देश के नागरिकों के साथ समानता का सोच रखती है। देश के कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने विधि आयोग को लिखे पत्र में कहा है कि समान कानून के बारे में देश के विधि वेत्ताओं से सलाह करके अध्ययन करे और उसकी रिपोर्ट तैयार करके सरकार को दे। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह साफ कर दिया है कि समान नागरिक कानून के बारे में फैसला सरकार को करना है, यह न्याय पालिका के बधिकर क्षेत्र के बाहर की बात है। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि देश के मूल संविधान में नागरिकों को जो अधिकार दिए हैं, उस पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं होगा। इससे साफ है कि समान नागरिक कानून से देश के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता। हम जानते हैं कि देश में शहबानो प्रकरण के बाद मुस्लिम संस्थाओं ने ही समान नागरिक कानून की आवश्यकता को बल दिया था, लेकिन उस समय की कांग्रेसी केन्द्र सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए इस कानून की आवश्यकता पर ही विराम लगा दिया। इस फैसले के बाद देश की मुस्लिम महिलाओं ने आंदोलन भी चलाए, लेकिन उनकी बात को अनसुना कर दिया। सन 1985 में मोहम्मद अहमद खां ने समान नागरिक कानून की अपरिहार्यता को रेखांकित किया था तथा राष्ट्रीय एकता के लिए इसे लागू करना जरुरी बताया। यहां यह बताना जरुरी है कि विश्व के कई मुस्लिम देशों ने तीन तलाक की पुरानी प्रथा को समाप्त कर दिया है। भारत में शरीयत कानून की मान्यता के अनुसार इसे अभी तक चलाया जा रहा है। भारत में अभी तक मुसलमानों को चार विवाह करने की छूट है, जबकि मुसलमान स्त्रियों को यह अधिकार हासिल नहीं है। इससे स्पष्ट है कि मुसलमानों में स्त्रियों के साथ समानता का अधिकार नहीं किया जाता। जबकि विश्व के कई मुस्लिम देशों में चार विवाह करने के नियम को बदलकर केवल एक विवाह करने को कानूनी मान्यता दी है। इन देशों में ईरान, मिस्र, मोरक्को, लोइन, सीरिया, तुर्की, ट्यूनीशिया तथा पाकिस्तान सम्मिलित हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राजनीतिक दलों को एक अवसर दिया है कि वे संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करें। संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का प्रावधान इस अवधारणा पर आधारित है कि सभ्य समाज में धार्मिक और वैयक्तिक कानून में कोई अनिवार्य सम्बंध नहीं है। इसके बावजूद लग यही रहा है कि वोट बैंक के गणित में उलझी भारतीय राजनीति न तो संविधान के हितों की रक्षा कर पा रही है और न ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का सम्मान। अयोध्या विवाद पर बार-बार न्यायालय की दुहाई देने वाले मुसलमानों के व्यक्तिगत मजहबी कानून में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। संविधान की भावना का सम्मान करना तो दूर मुस्लिम लीग के एक सांसद ने संसद में यहां तक कह दिया कि संविधान से वह धारा 44 ही हटा देनी चाहिए, जिसमें सारे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही गयी है। श्रीराम जन्मभूमि पर न्यायालय के निर्णय को सर्वोपरि मानने की दलीलें देने वाले आल इंडिया मुस्लिम पसर्नल ला बोर्ड के सदस्य जब अपने पर बन आयी तो यह कहते घूम रहे हैं कि यह उनके मजहबी मामले में हस्तक्षेप है। यह कैसी मानसिकता है कि किसी मामले में न्याय पालिका के निर्णय की बात की जाती है तो कई मामलों में शरीयत का हवाला देकर संवैधानिक मान्यताओं से दूरी बनाई जाती है।

केरल के साइरो मालाबार कैथोलिक चर्च ने केंद्र सरकार के समान नागरिक क़ानून लागू करने के कदम का स्वागत करते हुए कहा है कि इस प्रकार के क़ानून से देश को मजबूती मिलेगी। चर्च द्वारा उठाया गया यह कदम निश्चित रूप से देश भाव को प्रकट करता है। विश्व के किसी भी देश में राष्ट्रीय भाव को प्रधानता दी जाती है, इसके विपरीत हमारे देश में कई समुदायों द्वारा राष्ट्रीय भाव को पूरी तरह भुलाकर केवल राजनीति ही की जाती है। देश में निवास करने वाले मुसलामानों के पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि उनका राजनीतिक दलों के साथ ही उनके समाज के संपन्न लोगों द्वारा उनका शोषण किया गया। आज भी इसी प्रकार की नीति अपनाई जा रही है। समान नागरिक क़ानून को लेकर एक भ्रम का वातावरण बनाया जा रहा है। वास्तव में मुस्लिम समाज को भी केंद्र सरकार की पहल का स्वागत करना चाहिए और देश की मुख्य धारा में आकर अपने विकास का मार्ग तैयार करना चाहिए।

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2 COMMENTS

  1. मेरी टिपण्णी जो अभी मॉडरेशन में इसके बारे में नहीं है.यहां गलती से चला गया है.

  2. देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को एक बार फिर बहस आरंभ हो गया है। यह बहस जायज है। नए कानून को बनाने या लागू करने से पूर्व इस पर बहस करने की जरुरत है। नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का विचार किया है। देश का एक नागरिक होने के नाते मैं इसका तह दिल से स करता हूँ। यदि यह संगीत लागू हुआ तो नागरिकों के बीच धार्मिक भेदभाव दूर होगा। एक देश भारत के नागरिक होने के नाते सभी धर्मों के लोगो को कानून का बराबर हक़ मिलेगा। देश और विकसित होगा।
    संतोष शर्मा
    कोलकाता
    पश्चिम बंगाल

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