भ्रष्टाचार रूपी राजरोग के लिये सभी एकजुट हो

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ललित गर्ग

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने को लेकर शुरू से गंभीर ही नहीं है बल्कि एक निष्पक्ष एवं निर्णायक लड़ाई के लिये संघर्षरत हंै। इसी मकसद से उन्होंने नोटबंदी का फैसला किया। कालेधन को सामने लाने के लिए दूसरे उपाय आजमाए जा रहे हैं। लालू प्रसाद यादव हो या पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम इनके आर्थिक अपराध एवं भ्रष्टाचार के किस्से पहले से ही चर्चित एवं जगजाहिर हंै, लेकिन हाल में उनके परिजनों के घरों और दफ्तरों पर आयकर विभाग के छापों में हुए खुलासों से उन पर लगे आरोप पुख्ता हुए हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबे होने के बावजूद उनको लेकर की जा रही राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे लोगों के खिलाफ सभी दलों के लोगों को एकजुट होने की जरूरत है और इस पर सार्थक बहस भी जरूरी है, प्रधानमंत्री ने उसी कड़ी में संसद का मानसून सत्र शुरू होने से पहले बुलाई सर्वदलीय बैठक में सभी दलों से भ्रष्टाचार रोकने में मदद की अपील की। देश को लूटने वालों के खिलाफ जब कानून अपना काम करता है तो वे सियासी साजिश की बात करके बचने का रास्ता तलाशने लगते हैं। आखिर कब तक हम देश में भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देते रहेंगे? कब तक इन बुराइयों एवं चारित्रिक दुर्बलताओं के शिखर पर आरूढ़ होकर राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकते रहेंगे? एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इन स्थितियों का बने रहना त्रासदीपूर्ण है।
लालू प्रसाद यादव की दलील है कि मोदी सरकार उन्हें परेशान करने की नीयत से ऐसा करा रही है। ऐसी ही दलील पी. चिदंबरम देते रहे हैं। उनके बेटे कार्ति चिदंबरम पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। इस तरह सत्ता और संपदा के शीर्ष पर बैठकर बड़े-बड़े भ्रष्टाचार करने वालों ने यदि जनतंत्र के आदर्शों को भुला दिया है तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा कैसे हो सकती है? व्यापक दृष्टि से देखा जाये तो वही लोकतंत्र सफल होता है जिसमें आत्मतंत्र का विकास हो, अन्यथा जनतंत्र में भी एकाधिपत्य, अव्यवस्था और अराजकता की स्थितियां उभर सकती हैं। आज कुछ ऐसे ही हालात उभरे हुए हैं जिनसे निजात पाने के लिए प्रधानमंत्री निर्णायक संघर्ष की मुद्रा में है और मैं इसे एक तरह का समुद्र मंथन मानता हूं जिससे निकलने वाला नवनीत निश्चित इस राष्ट्र को शुद्ध सांसंे देगा।
हमारे देश के कतिपय राजनेताओं का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। उनकी बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित, स्वार्थ और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच उनमंे घर कर चुकी है। यह रोग कुछ राजनेताओं की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर राजनेता लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है। बड़े से बड़े घोटाले, आर्थिक अपराध एवं गैरकानूनी कृत्य पर भी ऐसे भ्रष्ट एवं आपराधिक राजनेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं होती, छिपी बात नहीं है कि राजनेताओं और उनके परिजनों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों में कोई निर्णायक कार्रवाई इसलिए भी नहीं हो पाती कि उन्हें लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है। फिर यह भी कि आयकर विभाग के ऐसे छापे अक्सर राजनीति से प्रेरित होते हैं। अब तक के अनुभवों से यही जाहिर है कि जब कोई पार्टी सत्ता में आती है तो वह अपने प्रतिपक्षी पर नकेल कसने, उसे सबक सिखाने या फिर उस पर राजनीतिक रूप से दबाव बनाने की मंशा से भ्रष्टाचार के मामलों पर जांच शुरू कराती है। फिर जब आरोपी नेता की पार्टी सत्ता में आती है तो वही मामले दबा दिए जाते हैं। आखिर कब तक राजनीतिक आधार पर भ्रष्टाचार जैसे मसलों पर निष्पक्षता की बजाय बदले की भावना से कार्रवाई होती रहेगी? कब भ्रष्ट लोगों के लिये राजनीति के दरवाजें बन्द होंगे? कब तक किसी महागठबन्धन के टूटने की संभावनाओं को देखते हुए भ्रष्टाचार को दबाया जाता रहेगा? कब तक खुलकर भ्रष्टाचार एवं आर्थिक अपराध करने के लिये राजनीति के मंच को सुरक्षित माना जाता रहेगा? दरअसल, राजनीतिक भ्रष्टाचार के अधिकतर मामलों में राजनीतिक दलों में एक-दूसरे को बचाने की एक तरह मूक सहमति ही दिखाई देती है। उनके खिलाफ होने वाली जांचों में अधिकारियों को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता। ऐसे में प्रधानमंत्री की भ्रष्ट नेताओं से निपटने में एकजुटता दिखाने की अपील समझी जा सकती है। एक आदर्श विचार के तौर पर यह अपील निस्संदेह बेहतरी की उम्मीद जगाती है, मगर व्यावहारिक रूप में यह कितना संभव हो पाएगा, कहना मुश्किल है।
देश के धन को जितना अधिक अपने लिए निचोड़ा जा सके, निचोड़ लो। देश के सौ रुपये का नुकसान हो रहा है और हमें एक रुपया प्राप्त हो रहा है तो बिना एक पल रुके ऐसा हम कर रहे हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है।
जब-जब भी अहंकारी, स्वार्थी एवं भ्रष्टाचारी उभरे, कोई न कोई सुधारक चाहे मोदी हो या अन्ना सीना तानकर खड़ा होता रहा। तभी खुलेपन और नवनिर्माण की वापसी संभव हो सकती है, तभी सुधार और सरलीकरण की प्रक्रिया भी संभव है। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा। तभी लोक जीवन भयमुक्त होगा।
भ्रष्टाचार हो या ऐसे ही अन्य आपराधिक मामले आज तक किसी राजनेता को सजा नहीं हुई, पिछले कुछ सालों में अभी तक भ्रष्टाचार के उन्हीं मामलों में राजनेताओं को सजा हो पाई है, जिन पर सर्वोच्च न्यायालय ने सख्ती दिखाई। लालू यादव को चारा घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद ही सजा हो पाई थी। इसी तरह कोयला आवंटन और 2-जी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय सख्ती न बरतता तो शायद उन पर परदा पड़ चुका होता। जांच एजेंसियों और प्रशासनिक अधिकारियों पर राजनीतिक प्रभाव में काम करने के आरोप पुराने हैं। उनकी निष्पक्षता के अभाव में भी राजनेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले संतोषजनक निर्णय तक नहीं पहुंच पाते। यह भी जाहिर है कि भ्रष्टाचार के आरोपी दूसरे दलों के नेता जब सत्तापक्ष में शामिल हो जाते हैं, तो उनके खिलाफ जांच एजंसियों की कार्रवाई लगभग शिथिल पड़ जाती है। इसलिए मोदी सरकार को न सिर्फ दूसरे दलों के नेताओं, बल्कि सत्तापक्ष के लोगों पर भी नजर रखने और प्रशासनिक सुधार की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाने की जरूरत है। राष्ट्र में अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार और अनाचार के विरुद्ध समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं। लेकिन उनका साधन और उद्देश्य शुद्ध न रहने से उनका दीर्घकालिक परिणाम संदिग्ध रहा है। अब भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई जरूरी है। इसमें सरकार  क्योंकि अपनी सब बुराइयों, कमियों को व्यवस्था प्रणाली की बुराइयां, कमजोरियां बताकर पल्ला झाड़ लो और साफ बच निकलो। कुछ मानवीय संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं कि प्रणाली शुद्ध हो, पर इनके प्रति लोग शब्दों की हमदर्दी बताते हैं, योगदान का फर्ज कोई नहीं निभाना चाहता। सच तो यह है कि बुराई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं, बुरे तो हम हैं। जो इन बुराइयों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई हमारे चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। हमारा रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा। मोदीजी भ्रष्टाचार की लड़ाई के लिये जनता को भी रूपान्तरित करें, प्रशिक्षित करें तभी इस कोढ़ को समाप्त किया जा सकेगा।
वैसे हर क्षेत्र में लगे लोगों ने ढलान की ओर अपना मुंह कर लिया है चाहे वह क्षेत्र राजनीति का हो, पत्रकारिता का हो, प्रशासन का हो, सिनेमा का हो, शिक्षा का हो या व्यापार का हो। राष्ट्रद्रोही स्वभाव हमारे लहू में रच चुका है। यही कारण है कि हमें कोई भी कार्य राष्ट्र के विरुद्ध नहीं लगता और न ही ऐसा कोई कार्य हमें विचलित करता है। सत्य और न्याय तो अति सरल होता है। तर्क और कारणों की आवश्यकता तो हमेशा स्वार्थी झूठ को ही पड़ती है। जहां नैतिकता और निष्पक्षता नहीं, वहां फिर भरोसा नहीं, विश्वास नहीं, न्याय नहीं। भ्रष्टाचार का रोग राजरोग बना हुआ है। कुल मिलाकर जो उभर कर आया है, उसमें आत्मा, नैतिकता व न्याय समाप्त हो गये हैं। लोकसभा का मानसून सत्र इस राजरोग- इस भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में एक सार्थक एवं अनुकरणीय उदाहरण बने, पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर इस नासूर को समाप्त करने के लिये एकजूट हो जाये, यही लोकतंत्र की मजबूती के साथ-साथ राष्ट्र की मजबूती का सबब बन सकता है।

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