उर में आता कोई चला जाता,
सुर में गाता कभी है विचलाता;
सुनहरी आभा कभी दिखलाता,
कभी बे-रंग कर चला जाता !
वश भी उनका स्वयं पे कब रहता,
भाव भव की तरंगें मन बहता;
नियंत्रण साधना किये होता,
साध्य पर पा के वो कहाँ रहता !
जीव जग योजना विविध रहता,
विधि वह उचित कहाँ अपनाता;
कष्ट अपने ही चलन से पाता,
दोष दूजों पे पर लगा जाता !
मुक्त द्रष्टा बने विचर चलते,
ध्येय उनके कहाँ कोई होते;
संदेशे सतत जो हृदय पाते,
वही करते हुए नज़र आते !
समर्पित त्वरित वे प्राय रहते,
स्वत: स्फूर्त भुक्त नित रहते;
प्रकृति से कर्म गुण प्रकट पाते,
हिये परमात्म ‘मधु’ टपकाता !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’