रोज़ की तरह आज भी राजरानी की आँख जल्दी खुल गई। जरा-सी भी आहट किए बिना उसने दरवाजा खोला और वह बाहर बरामदे में आ गई। कमरे में अंदर पड़े-पड़े उसका जी घुट रहा थ। गेट तक दो बार चक्कर काटकर वह बरामदे में लगी कुर्सी पर बैठ गई। पास पड़ोस के घरों के दरवाजें खुलने लगे थे। सडक़ पर इक्का-दुक्का दूधवाला या अखबार वाला गुजरने लगा था। हवा में रातरानी की महक अभी भी व्याप्त थी। आसपास की बातों से बेखबर राजरानी किसी गहरी सोच में डूबी हुई थी।
यह शहर राजरानी के लिए नया न था। पिछले दस सालों से वह प्राय: हर साल यहाँ सर्दियों में दो-तीन महीनों के लिए अपने बड़े बेटे सुशील के पास आती थी। सुशील यहाँ एक कम्पनी में मुलाज़िम था। कई जगह किराए के मकानों में रह लेने के बाद अब उसने अपना मकान बनवा लिया था और पिछले दो सालों से उसी में रह रहा था। कार भी उसने इसी वर्ष ले ली थी। अपने इस बेटे की तरक्की देखकर राजरानी बहुत प्रसन्न थी किंतु कभी-कभी मन-ही-मन सुशील की उन्नति की तुलना अपने छोटे बेटे उपेन्द्र से करती। अगरचे उपेन्द्र अपने बड़े भाई जितना संपन्न न था, फिर भी दोनों मियां-बीवी नौकरी करते थे। पुश्तैनी मकान था। दो बच्चों वाले छोटे-से परिवार की उनकी गृहस्थी बड़े आराम से चल रही थी। घर में उनके किसी तरह का कोई अभाव नहीं था। पर जब राजरानी इस शहर में अपने बड़े बेटे सुशील के पास होती तो उसे अपने छोटे बेटे के घर में अभाव ही अभाव नजर आते और वह कसी भी तरह से उन अभावों को दूर करने की उधेड़-बुन में लगी रहती। बड़ी बहू को सास की यह आदत अक्सर खटकती और वह कभी-कभी कह भी देती-
‘माताजी, आप तो केवल शरीर से हमारे पास होती हैं, अन्यथा मन तो आपका देवरजी और उसके परिवार के साथ होता है।’ इस पर राजरानी बहू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहती: ‘बहू, तुम ऐसा क्यों सोचती हो? मेरे लिए तो जैसा सुशील वैसा उपेन्द्र। हाँ, जिन हालात में उपेन्द्र इस वक्त रह रहा है, उसकी कल्पना करते ही मन उदास हो जाता है।’
दरअसल, सच भी यही था। उसका छोटा बेटा उपेन्द्र पिछले दो साल से अपने परिवार सहित जम्मू में विस्थापितों के लिए बने एक कैम्प में रह रहा था। दो साल पहले राजरानी और उपेन्द्र को थोड़ा-सा सामान लेकर रातोंरात श्रीनगर से भागकर जम्मू आना पड़ा था। विस्थापन की वह घटना राजरानी को एक दु:स्वप्न के समान आज तक याद थी। उसे याद आया कि जब आस-पास के लोग चुपचाप घर छोडक़र जाने लगे तो उसे तब कितना गुस्सा आया था। अपने बेटे-बहू को उसने समझाया भी था- ‘हमें यहाँ कोई डर नहीं है। ये सब लोग हमारे अपने हैं। यह मुहल्ला हमारा है, इसी मुहल्ले में हमारी कई पीढिय़ों ने जन्म लिया है और इसी मुहल्ले में हम सबने सुख-दु:ख के दिन बिताए हैं। होगा झगड़ा शहर में कहीं। इस मुहल्ले में कुछ नहीं होगा। मगर राजरानी को हक़ीक़त तब समझ में आई जब सारा मुहल्ला एक-एक कर खाली हो गया ओर आखिरकार एक दिन मुहल्ले के एक बुजुर्गवार के समझाने पर राजरानी और उसके बेटे को भी रातोंरात अपना घर-बार छोडक़र जम्मू आना पड़ा। लडक़ा सुशील चूंकि पहले से ही इस बड़े शहर (दिल्ली) में स्थाई तौर पर रह रहा था, इसलिए राजरानी अब उसके पास ही आ गई थी।
यहाँ पहुंचकर राजरानी को हमेशा इस बात की चिंता सताती रहती कि जाने उपेन्द्र और उसका परिवार कैम्प में कैसे रह रहा होगा ? सुना है, कैम्प में रहने वालों को सरकार सहायतार्थ राशन, कपड़े और नक़दी भी देती है। शिविरार्थी सरकारी मुलाजिम हुआ तो उसे पूरी तनख्वाह दी जाती है।
उपेन्द्र और उसकी पत्नी को भी पूरी तनख्वाह मिलती थी क्योंकि दोनों सरकारी मुलािजम थे। एक बार तो राजरानी ने उपेन्द्र से कहा भी था कि चल तू भी दिल्ली, वहीं रह लेना भाई के पास। अब तो उसका अपना मकान हो गया है। मगर उपेन्द्र माना नहीं था। दरअसल, दिल्ली चले आने पर सरकार की ओर से उन दोनों पति-पत्नी को हर महीने जो वेतन मिलता था, सम्भवत: वह वहाँ नहीं मिलता।
राजरानी ने एक दिन सुशील से बातों ही बातों में कहा भी था-
‘बेटा जरा उपेन्द्र को चिट्ठी तो लिखना। बहुत दिनों से उसकी कोई चिट्ïठी नहीं आई। उसका हाल-चाल पूछना। कहना, किसी चीज़ की चिन्ता न करे। मन नहीं लगे तो कुछ दिनों के लिए चला आए यहां। बच्चों को भी साथ ले आए।’
मां का अन्तिम वाक्य सुनकर सुशील तनिक सोच में पड़ गया था।
मां ने पूछा था – ‘क्या बात है बेटा, किस सोच में पड़ गए ?’
‘कुछ नहीं माँ, यों ही।’
‘यों ही क्या? लिख दे ना चिट्ठी। कब से कह रही हूँ। तुझे तो अपने काम से फुर्रसत ही नहीं मिलती।’
इससे पहले कि सुशील कुछ कहता, उसकी पत्नी बीच में बोल पड़ी थी-
‘माताजी, इन्होंने चिट्ठी कब की लिख दी होती। असल में बात यह है कि मेरे माता-पिता कुछ ही दिनों में जम्मू से यहाँ आ रहे हैं। कैम्प में रहते-रहते पिताजी की तबियत बिगड़ गई है। उन्होंने यहाँ आने को लिखा है। यहाँ बड़े अस्पताल में उनका इलाज चलेगा।’
‘तो क्या हुआ, वे लोग भी रह लेंगे। तुम लोगों के पास अपना मकान है। किस बात की कमी है? राजरानी सहज भाव से बोली थी।’
‘माताजी, यह दिल्ली है। जितना बड़ा यह शहर है, उतने ही बड़े यहां के खर्चे भी होते हैं। और फिर इस मकान में कमरे भी तो कुल तीन हैं। इतने सारे लोग कैसे रह सकेंगे एक साथ। हर परिवार को एक-एक कमरा तो चाहिए।’
‘अरे, तुम मेरी चिन्ता मत करो। मैं बाहर बरामदे में खाट डालकर सो जाया करुँगी। निकल जाएँगे ये कष्ट के दिन भी,’ राजरानी ने समस्या का निदान सुझाते हुए कहा था और सुशील की तरफ आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी थी।
सुशील ने चुप्पी साध ली थी। बेटे की इस चुप्पी में उसकी विवशता साफ झलक रही थी। बेटे की इस चुप्पी ने राजरानी के तन-मन में उदासी भर दी। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया। उसे लगा जैसे उसका सिर घूम रहा है और वह धम्म से फर्श पर गिरने वाली है। शक्ति बटोरकर वह केवल इतना कह पाई थी-
‘अच्छा बेटा, जैसी तुम लोगों की मर्जी।’
कुछ ही दिनों में बहू के माँ-बाप आदि जम्मू से आ गए। घर में अच्छी चहल-पहल रही। रिश्तेदारों की बातें, कैम्प की बातें, मौसम की बातें। राजरानी ये सारी बातें सुन तो लेती पर मन उसका कैम्प में पड़े अपने छोटे बेटे उपेन्द्र के साथ अटका रहता। आज भी उसे उपेन्द्र की बहुत याद आ रही थी। सुशील ने टोकते हुए कहा-
‘माँ, ऐसे गुमसुम-सी क्यों रहती हो? चलो, आज तुम्हें मन्दिर घुमाकर लाते हैं। ये सब लोग भी चलेंगे।’ कार में जाएँगे और कार में ही लौंटेंगे। चलो जल्दी करो, कपड़े बदल लो।’
राजरानी कुछ नहीं बोली।
‘उठो ना माँ, कपड़े बदल लो।’ सुशील ने हाथ पकडक़र माँ को उठाना चाहा।
‘नहीं बेटा, मैं मन्दिर नहीं जाऊँगी।’ राजरानी गुमसुम-सी बोली।
‘मगर क्यों?’
‘देखो बेटा, तुम इनको लेकर मन्दिर चले जाओ। लौटती बार मेरे लिए जम्मू का एक टिकट लेते आना। मैं भी कैम्प में ही रहूंगी वहां। सुना है, घाटी में हालात ठीक होने वाले हैं। शायद वापस जाना नसीब में लिखा हो।
‘यह एकाएक तुमने क्या सोच लिया माँ?’
मैंने ठीक ही सोच लिया बेटा। मुझे अपने वतन, अपने घर की याद आ रही है। मैं वहीं जाना चाहती हूँ। मेरा टिकट ले आना।
‘माँ?’ सुशील के मुँह से बरबस ही निकल पड़ा।
‘मेरा टिकट ले आओगे तो समझ लेना मैंने मन्दिर के दर्शन कर लिये’ राजरानी सुशील को एकटक निहारते हुए बोली।
सुशील अवाक्-सा माँ को देखता रहा। दोनों की आँखें सजल थीं।