ऋषि दयानन्दोक्त वैदिक उपासना पद्धति ही विश्व की सर्वोत्तम पद्धति

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मनमोहन कुमार आर्य

विश्व में मत-मतान्तर, पंथ, सम्प्रदाय, मजहब व रिलीजन तो अनेक हैं परन्तु धर्म एक ही है। उस धर्म को केवल धर्म अथवा वैदिक धर्म कहना ही उचित प्रतीत होता है। वैदिक धर्म इसलिये कि धर्म का आधार वेद हैं। यदि वेद न होते तो फिर धर्म भी न होता। धर्म उसे कहते हैं कि जो धारण किया जाय जैसे कि अग्नि ने ताप-दाहकता व प्रकाश को धारण किया है। वह कभी अपने इस गुण को छोड़ती नहीं है। मनुष्य किसे धारण करें तो यह निश्चय होता है कि सत्य का धारण और असत्य का त्याग मनुष्य के लिए आवश्यक है। इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि दो और दो का जोड़ चार होता है। अब यदि कोई पांच या तीन मान लें अथवा चार के अतिरिक्त किसी अन्य संख्या को मानें, तो वह असत्य व गलत होगा। असत्य व गलत बातों, मान्यताओं व सिद्धान्तों से मनुष्य का जीवन सुख पूर्वक नहीं चलता है। जीवन सखपूर्वक चले इसके लिए मनुष्य को सत्य को ही अपनाना आवश्यक है। हमें लगता है कि सत्य को धर्म मानने में किसी मत-मतान्तर के आचार्य व अनुयायी को आपत्ति नहीं हो सकती। अब देखना यह है कि सत्य का आधार व स्रोत क्या है? यदि कोई कहे कि सत्य का आधार व स्रोत हमारा अमुक धर्म-ग्रन्थ है तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तविकता यह है कि संसार के सभी मत-मतान्तर विगत साल दो साल से लेकर तीन से चार हजार वर्षों के बीच ही स्थापित हुए हैं या प्रचलन में आये हैं। इन मतों की स्थापना से पूर्व अर्थात् चार हजार वर्ष से पूर्व किसी मत की पुस्तक एवं उनके आचार्यों का अस्तित्व नहीं था। तब कौन सा धर्म व धर्म ग्रन्थ था तो यह ज्ञात होता है कि इन सब मतों से पूर्व ईश्वरीय ज्ञान वेद का पुस्तक शब्द, अर्थ, सम्बन्ध सहित ज्ञानरूप में, मनुष्यों को उपलब्ध व कण्ठस्थ होता था। वेद सहित सभी प्रमुख मतों का अध्ययन करने के बाद सच्चे योगी ऋषि दयानन्द ने घोषणा की थी कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’

 

वेदों की अनेक विशेषतायें हैं। वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से चार ऋषियों की आत्माओं में शब्द-अर्थ-सहित प्रकाशित पूर्ण शुद्ध, सत्य व पवित्र ज्ञान है। वेदों के ज्ञान से ही संसार में भाषा का प्रचलन हुआ। यदि वेद न होते तो मनुष्यों को बोलने के लिए भाषा भी न होती। संस्कृत जैसी भाषा का सृष्टि के आदि काल में प्रचलन हो जाना इसी लिए सम्भव हो सका कि यह ईश्वर ने आदि ऋषियों वा मनुष्यों को प्रदान की थी। वेदों की दूसरी विशेषता इनका संस्कृत भाषा में होना है जो अपनी उत्पत्ति काल में किसी देश विशेष की भाषा नहीं थी अपितु संसार की आदि व प्रथम भाषा थी जिसकी प्राप्ति सीधी वेद के द्वारा परमात्मा से हुई थी। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति विषयक जो ज्ञान है वह बुद्धि की कसौटी पर खरा अर्थात् सत्य एवं निर्भ्रान्त है। आत्मा इसकी सत्यता की साक्षी देने के साथ पुष्टि भी करती है। वेदों के शब्द अन्य भाषाओं की तरह रूढ़ न होकर योगरूढ़ वा यौगिक हैं जिनके अर्थों का धातु-प्रत्यय पद्धति से ज्ञान होता है। इस विशेषता के कारण भी वेदों की तुलना संसार के किसी ग्रन्थ से नहीं की जा सकती क्योंकि यह विशेषता संसार की किसी भाषा व ग्रन्थ में नहीं है। वेदों में संसार के लोगों को मननशील व श्रेष्ठ अर्थात् आर्य व भद्र पुरुष बनाने का विचार तो हैं परन्तु किसी का धर्म परिवर्तन व धर्म छोड़ने जैसी बात नहीं है। जिन मतों में ऐसी बातें हैं वह धर्म शब्द के मूल अर्थ व स्वभाव को नहीं जानते। उनके इरादें व उद्देश्य भी सत्य व पवित्र नहीं हैं। आर्यसमाज के विद्वान ऐसे लोगों की अविवेकपूर्ण व स्वार्थ पर आधारित भावनाओं व इरादों को अच्छी प्रकार जानते हैं। वेद व समस्त वैदिक साहित्य तो ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानी व निर्धन लोगों को भी ज्ञानी बनाने की शिक्षा व प्रेरणा करते हैं। जो दुष्ट व बुरे काम करते हैं उनके लिए वेद राजकीय दण्ड का विधान करते हैं। दण्ड कड़ा, कठोर तथा तत्काल दिया जाये तो बुरे से बुरे व्यक्ति को कुछ क्षणों में ही सुधारा जा सकता है। आजकल सुस्त न्याय प्रक्रिया के कारण भी देश में अपराध बढ़ रहे हैं जिससे सज्जन लोग दुःखी व पीड़ित हैं। यहां हमनें अन्य मतों के ग्रन्थों की तुलना में वेदों की कुछ विशेषतायें दी हैं। अधिक जानकारी के लिए ऋषि दयानन्द  जी के सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों को निष्पक्ष भाव रखकर अध्ययन करना चाहिए तो उन्हें ऋषि दयानन्द और वेदों का सही अभिप्राय विदित हो सकता है।

 

वेदों में ईश्वर का जो स्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव बतायें गये हैं वह मनुष्यों द्वारा ईश्वर की उपासना करने के लिए पर्याप्त हैं। वेदेतर मत-मतान्तर के लोग तो आज भी ईश्वर के यथार्थ स्वरूप से ही परिचित नहीं हैं। अनेक मतों में ईश्वर के यथार्थ स्वरूप से विपरीत मान्यताओं का विधान है। ऐसी स्थिति में यह कैसे ईश्वर के सत्यस्वरूप की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर सकते हैं? किसी भी मत की पूजा पद्धति अर्थात् ईश्वर की उपासना पद्धति में ईश्वर के सत्य स्वरूप व उसके अधिकांश गुण-कर्म-स्वभावों का ज्ञान ध्याता व उपासक को होना आवश्यक है। ईश्वर के सत्य स्वरूप व गुणों को जानकर उनसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, चिन्तन, मनन, ध्यान व सद्कर्म करना ही ईश्वर की उपासना है। ईश्वर की वेद विहित आज्ञाओं का पालन और उसके उपकारों के लिए उपासना द्वारा उसका धन्यवाद करना ही उपासना का उद्देश्य है। यह सभी कार्य उपासना के अन्तर्गत आते हैं और यह साधन किसी शुद्ध, शान्त, उपद्रव रहित पवित्र स्थान पर बैठकर किया जा सकता है। वैसे तो सन्ध्या-उपासना रात्रि व दिन में किसी भी समय की जा सकती है परन्तु सूर्योदय से पूर्व उषा वेला व सूर्यास्त के बाद, दिन में दो बार, कम से कम एक-एक घंटा सन्ध्या व उपासना में बैठने से आत्मा की शुद्धता व पवित्रता स्थापित होने से मनुष्य का जीवन बुराईयों से मुक्त व सदगुणों से पूर्ण होता है। उपासना का प्रयोजन भी जीवन से बुराईयों को दूर करना व सद्गुणों को जीवन में स्थापित करना है। सद्गुणों के स्थापित हो जाने से मनुष्य की आत्मा के बल में आशातीत वृद्धि होती है। वह जीवन में बड़े बड़े दुःख आने पर भी घबराता नहीं है। यह छोटी बात नहीं है? धार्मिक व्यक्ति व ईश्वरोपासक व्यक्ति वही हो सकता है जो न केवल मनुष्य अपितु किसी भी प्राणी को जानबूझकर छोटे से छोटा कष्ट न दे। पशु की हत्या करने व उनका मांस खाने सहित अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने वाले मनुष्य धार्मिक व ईश्वरोपासक कदापि नहीं हो सकते। अतः सच्ची उपासना वही है कि जो ईश्वर के सभी गुणों को जानकर उसकी स्तुति व ध्यान आदि के द्वारा की जाये और उस व्यक्ति के व्यवहार से किसी भी पशु-पक्षी आदि प्राणी को नाममात्र का भी दुःख न हो। यदि कोई किसी प्राणी को अकारण दुःख पहुंचाता है तो वह पाप होता है और ऐसा व्यक्ति ईश्वर के पास नहीं अपितु उससे दूर हो जाता है भले ही उस व्यक्ति के मत व सम्प्रदाय की पुस्तकों में कुछ भी क्यों न लिखा हो। मत-मतान्तरों की पुस्तकों की सभी बातें सत्य नहीं होती, यह भी बुद्धिमान व्यक्ति अपने विवेक से जानते हैं। सत्य अकाट्य होता है। मत-मतान्तरों की परस्पर विरोधी बातें असत्य ही प्रायः होती हैं अथवा उनमें से किसी एक मत की कोई तर्क व बुद्धि संगत बातें सत्य हो सकती है।

 

आर्यसमाज की उपासना पद्धति वेद और योग दर्शन पर प्रायः आधारित है। इन दोनों के सिद्धान्तों के अनुसार ऋषि दयानन्द जी ने वेदमंत्रों के आधार पर सन्ध्या नाम से उपासना का विघान किया है जिसे सूर्यादय से पूर्व, सूर्यास्त के समय व कुछ समय पश्चात किया जा सकता है। प्रातः व सायं के प्रत्येक समय सन्ध्या की अवधि एक घंटा होने पर अच्छे परिणाम सामने आते हैं। यदि समय की कमी हो तो जितना समय हो उतने समय में सन्ध्या के मंत्रों का अर्थ सहित पाठ करते हुए शेष समय में उन मंत्रों के अर्थों सहित ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप, ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और उसके जन्म-जन्मान्तरों में किये गये उपकारों को स्मरण कर उसका धन्यवाद किया जा सकता है। उपासना को यदि विस्तार से कहें तो इसमें वेदादि व ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वाध्याय, शरीर की जल आदि से बाह्य शुद्धि, प्राणायाम व सत्य व्यवहार आदि से मन, बुद्धि, चित्त व आत्मा आदि अन्तःकरण की शुद्धि, सन्ध्या के मन्त्रों का मन से अर्थ सहित पाठ, सन्ध्या के मन्त्रों पर समय की उपलब्धतानुसार चिन्तन, ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप का ज्ञान व ध्यान सहित ईश्वर के उपकारों को स्मरण करना होता है। इसकी विधि व लाभ आदि को स्वामी दयानन्द जी के शब्दों में ही समझ लेते हैं।

 

ईश्वर की स्तुति-वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। यह सगुण स्तुति अर्थात्, वह कभी शरीर धारण व जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिस में क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि। जिस जिस राग, द्वेषादिगुणों से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करता है, वह निर्गुण स्तुति है। इस से अपने गुण, कर्म, स्वभाव भी तद्वत् करना। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र को नहीं सुधारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है।

 

ईश्वर से प्रार्थना-प्रार्थना के अन्तर्गत स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में यजुर्वेद के 10 मंत्र और शतपथ ब्राह्मण के वचन देकर उनके अर्थ दिये हैं। हम यहां केवल प्रथम दो मंत्र का अर्थ दे रहे हैं। सभी मन्त्रों के अर्थां के लिए सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास का अध्ययन करना चाहिये। वह लिखते हैं कि हे अग्ने! अर्थात् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर आप स्वकृपा से, जिस बुद्धि की उपासना विद्वान, ज्ञानी और योगी करते हैं, उसी बुद्धि युक्त आप हमको इसी वर्तमान समय में करके, बुद्धिमान कीजिये। आप प्रकाशस्वरूप हैं, कृपा कर मुझ में भी प्रकाश स्थापन कीजिये। आप अनन्त पराक्रम युक्त हैं, इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। आप अनन्त बलयुक्त हैं, इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं, मुझ को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और अपने अपराधियों का सहन करने वाले हैं, कृपा से मुझ को वैसा ही कीजिये। इस प्रकार ईश्वर से प्रार्थना की जाती है व करनी चाहिये। यह प्रार्थना का वैदिक स्वरूप है। इस प्रकार स्तुति व प्रार्थना पद्मासन व सुखासन आदि में बैठ कर करनी चाहिये। जो रोगी व अशक्त हों वह कुर्सी पर बैठकर अथवा लेटे हुए भी स्तुति व प्रार्थना कर सकते हैं।

 

ईश्वर की उपासना-स्वामी जी इस विषय में लिखते हैं कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये है, आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिस ने लगाया है, उस को जो परमात्मा के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता, क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने ओर उस को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिए जो जो काम करना होता है, वह वह सब करना चाहिये। उपासना विषय के विस्तार के लिए भी सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास को देखना उचित होगा।

 

सभी उपासना पद्धतियों को हमने जानने का प्रयत्न किया है। हमें ऋषि दयानन्द की उपासना पद्धति ही सर्वाधिक प्रभावशाली एवं उचित लगती है। ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या में समर्पण मन्त्र में विधान किया है ‘हे ईश्वरदयानिधे! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।’ अर्थात् हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें। मोक्ष का सिद्धान्त केवल वैदिक धर्म में ही पाया जाता है अन्य मतों में नहीं। अन्य मतों में इसको परिवर्तनों के साथ स्वीकार किया गया है। वैदिक धर्म में मोक्ष का सिद्धान्त तर्क एवं युक्ति संगत है, अन्य मतों का नहीं। इसी लिए वैदिक धर्म की उपासना पद्धति श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का आह्वान है कि वह इस पद्धति को अपनाये व इसे समझने का प्रयत्न करें। ऐसा इसलिये कि अनन्तकाल तक इस पर ही आपका भविष्य, सुख-दुःख व जन्म-जन्मान्तर आधारित है।  ओ३म् शम्।

 

 

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