वेदों के यौगिक, योगरूढ़ व रूढ़ शब्द

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मनमोहन कुमार आर्य

सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार जी के वेद विषयक कुछ लेखों का ‘आर्ष ज्योति’ के नाम से एक संकलन स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती जी ने 1 अगस्त, सन् 1991 में प्रकाशित किया था। इसके बाद इसका एक संस्करण सम्भवतः श्रीघूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोनसिटी के द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक में डा. रामनाथ वेदालंकार जी का एक लेख ‘वैदिक योगार्थ-प्रक्रिया एवं दयानन्द की तद्विषयक सूक्ष्म दृष्टि’ है। इसी लेख से हम यहां कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहें हैं जिससे हमारे पाठक मित्र वैदिक शब्दों के रहस्यों से कुछ कुछ परिचित हो सकें। हम स्वयं भी इन्हें जानने व समझने का प्रयास कर रहे हैं। आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी लिखते हैं कि निरुक्त पूर्वार्द्ध की भूमिका में यास्काचार्य ने पदों के नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात ये चार विभाग करके लिखा है कि आचार्य शाकटायन सभी नाम-पदों को आख्यातज (धातुज) मानते थे और नैरुक्तों का भी यही सिद्धान्त है। इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष के रूप में गार्ग्य का एवं बिना नामोल्लेख किये कतिपय वैयाकरणों का मन्तव्य उद्धृत करते हुए यास्क कहते हैं कि वे समस्त नाम-पदों को धातुज न मानकर केवल उन्हीं को धातुज मानते थे जिनमें स्वर एवं प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, विकार आदि से जनित संस्कार तथा धात्वर्थ घटित हो सकते हों, शेष नाम उनके मत में रूढ़ हैं। इस पक्ष की पुष्टि में गार्ग्य आदि जो युक्तियां देते थे उनका भी यास्क ने सोदाहरण उल्लेख किया है। किन्तु यास्क इस पक्ष से सहमत नहीं हैं तथा उन्होंने गार्ग्य आदि द्वारा प्रस्तुत सब युक्तियों का तर्कपूर्ण उत्तर देते हुए ‘सभी नाम-पद धातुज हैं’ इसी पक्ष का समर्थन किया है और यह वेदानुसंधान को यास्क की एक बहुत बड़ी देन है। इसी धातुजत्व के सिद्धान्त को लेकर यास्क ने अपने निरुक्त में लगभग तेरह-सौ वैदिक शब्दों का निर्वचन कर दिखाया है। अब विचारणीय यह है कि धातुजत्व से क्या अभिप्रेत है?

 

धातुजत्व विषय में दयानन्द की दृष्टि      

 

शब्दों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। एक दृष्टि के अनुसार शब्द तीन प्रकार के होते हैं-यौगिक, रूढ़ तथा योगरूढ़। ऋषि दयानन्द के शब्दों में इनकी परिभाषा एवं उदाहरण इस प्रकार हैं-यौगिक उनको कहते हैं कि जो प्रकृति और प्रत्ययार्थ तथा अवयवार्थ का प्रकाश करते हैं। जैसे कर्ता, हर्त्ता, दाता, अध्येता, अध्यापक, लम्बकर्ण, शास्त्रज्ञान, कालज्ञान इत्यादि। रूढ़ि उनको कहते हैं कि जिनमें प्रकृति और प्रत्यय का अर्थ न घटता हो, किन्तु ये संबोधक हों। जैसे खट्वा, माला, शाला इत्यादि। योगरूढ़ि उनको कहते हैं कि जो अवयवार्थ का प्रकाश करते हुए अपने योग से अन्य अर्थ में नियत हों। जैसे दामोदर, सहोदर, पंकज इत्यादि। दयानन्द के अनुसार वैदिक शब्द (नामपद) उभयविध होते हैं, पर रूढ़ भी होते हैं। इसीलिए वे लिखते हैं-‘सब ऋषि मुनि वैदिक शब्दों को यौगिक और येगरूढ़ि तथा लौकिक शब्दों में रूढ़ि भी मानते हैं।’ अन्यत्र लिखा है-‘यह सब (निघण्टुप्रोक्त शब्द) वेद में यौगिक और योगरूढ़ि आते हैं, केवल रूढ़ि नहीं।’ यहां वैदिक शब्दों से वैदिक नामपद अभिप्रेत हैं, धातु, उपसर्ग और निपात नहीं।

सामान्यतः यह समझा जाता है कि कोई शब्द या तो यौगिक ही होगा या योगरूढ़ ही, दोनों प्रकार का नहीं हो सकता। पर ऋषि दयानन्द का यह ऋषित्व है कि वैदिक शब्दों को यौगिक एवं योगरूढ़ दोनों स्वरूपों वाला मानते हैं। आख्यातज या धातुज में वे उक्त उभयविध शब्दों का समावेश करते हुए लिखते हैं-‘यास्क मुनि आदि निरुक्तकार और वैयाकरणों में शाकटायन मुनि सब शब्दों को धातु से निष्पन्न अर्थात् यौगिक और योगरूढ़ि ही मानते हैं।’

अब देखना यह है कि क्या वैदिक शब्दों को केवल यौगिक मानने से कार्य-निर्वाह नहीं हो सकता और कैसे कोई शब्द यौगिक तथा योगरूढ़ उभयविध हो सकेगा। निघण्टु एवं निरुक्त में अनेक शब्दों के अर्थ दर्शाये गये हैं, किसी शब्द का एक ही अर्थ है, किसी के अनेक अर्थ हैं। निरुक्त में निर्वचन करके यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि अमुक शब्द के अमुक अर्थ कैसे हो जाते हैं। उदाहरणार्थ गो शब्द का यौगिक अर्थ ‘गन्ता’ है। परन्तु गो शब्द निघण्टु में पृथिवी, रश्मि, सूर्य एवं द्यौ लोक, वाणी तथा स्तोता के वाचक नामों में पठित है। निरुक्त में इसके गाय, पशु, गोदुग्ध, अधिषवणचर्म, चर्म और श्लेष्मा, स्नायु और श्लेष्मा, प्रत्यंचा, सुषुम्ण-रश्मि और माध्यमिक वाणी अर्थ भी दिये गये हैं। शाखाग्रन्थों एवं ब्राह्मणग्रन्थों के अनुसार अन्तरिक्ष, अन्न, शक्वरी छन्द, रथन्तर साम, यज्ञ, प्राण, सोम आदि को भी गौ कहते हैं। इन निघण्टु, निरुक्त, वेदशाखाग्रन्थ ब्राह्मणग्रन्थ आदि द्वारा प्रोक्त अर्थों में गो शब्द योगरूढ़ माना जाएगा, यतः अपने योगार्थ को देते हुए इन तथा इसी प्रकार के कुछ अर्थों की वाच्यता में इसकी शक्ति सीमित हो गयी है। इसके साथ ही वेदों में जब गो शब्द किसी अन्य वस्तुत का विशेषण होकर आता है और केवल ‘गन्ता’ अर्थ को देता है, तब यह यौगिक शब्द कहलाता है।

ऋषि दयानन्द कृत उणादिकोश की वृत्ति में शब्दों का व्याख्यान शब्दों के यौगिक तथा योगरूढ़ इस द्विविध स्वरूप को प्रायः सर्वत्र प्रकाशित कर रहा है। प्रथम वे व्याख्यातव्य शब्द का योगार्थ प्रदर्शित करते हैं, फिर वैकल्पिक रूप में कतिपय योगरूढ़ वाच्यार्थों का परिगणन कर देते हैं, जिनमें वह योगार्थ भी घटित हो रहा होता है। उदाहरणार्थ, गो शब्द के व्याख्यान में लिखते हैं-‘गच्छति यो यत्र यया वा सा गौः, पशुरिन्द्रियं सुखं किरणो वज्रं चन्द्रमा भूमिर्वाणी जलं वा।’ ‘वा’ शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि गो शब्द का अपने यौगिक अर्थ का भी वाचक है तथा योगरूढ़ अर्थ का भी। इसी प्रकार उणादि की दयानन्द-वृत्ति से ज्ञात होता है कि ‘कारु’ शब्द का यौगिक अर्थ ‘कर्त्ता’ और योगरूढ़ अर्थ शिल्पी है, वायु शब्द का यौगिक अर्थ गन्ता या ज्ञाता है तथा योगरूढ़ अर्थ है गति करने वाला पवन या सर्वज्ञ परमेश्वर, मायु का यौगिक अर्थ प्रक्षेप्ता है और योगरूढ़ अर्थ उष्मा को प्रक्षिप्त करने वाला पित्त।

हम आशा करते हैं कि पाठक इन विचारों से लाभान्वित होंगे। संस्कृत व्याकरण के चिद्वानों में पद-वाक्य प्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, डा. प्रज्ञादेवी, पं. राजवीर शास्त्री आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके संस्कृत व्याकरण विषय ग्रन्थ व लेखों का अध्ययन कर संस्कृत विषयक ज्ञान में वृद्धि की जा सकती है। शिक्षा, व्याकरण, निरूक्त और छन्द वेदों के छः अंगों में से चार अंग हैं जिनके बिना वेदों का अर्थ कदापि नहीं किया जा सकता। शेष दो अंग कल्प व ज्योतिष हैं। इनका अपना महत्व है। इन 6 अंगों के द्वारा ही वेदों के अर्थ व रहस्य विदित होते हैं। वेद संसार के साहित्य में सर्वोत्तम ज्ञान के ग्रन्थ  हैं जिनके अध्ययन व प्रचार से अविद्या नष्ट होती है और विद्या की वृद्धि होती है। इससे मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होता है। अतः वेद ज्ञान की उपेक्षा संसार के किसी भी मनुष्य को नहीं करनी चाहिये। जितना सम्भव हो, अतना अध्ययन अवश्य करें। ओ३म् शम्।

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