वैश्विक महाशक्तियों के निशाने पर भारत

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 मनोज ज्वाला
भारत एक बहुत बडे वैश्विक षड्यंत्र के निशाने पर है । षड्यंत्र रचने
और उसे क्रियान्वित करने वाले एक ऐसे वैश्विक संजाल (नेटवर्क) के निशाने
पर है, जिसमें अनेकानेक संगठन-समूह , व्यक्ति विशेष के समूह और
ईसाई-चर्च-समूह शामिल हैं । पश्चिमी दुनिया की ये धार्मिक-राजनीतिक
विस्तारवादी शक्तियां वैसे तो पिछली दो-तीन शताब्दियों से अत्यन्त
गोपणीयतापूर्वक भारत को विखण्डित व विघटित करने के बावत षड्यंत्र रचने और
उन्हें क्रियान्वित करने में लगी हुई हैं , किन्तु उनकी ये कोशिशें अब
परवान चढती जा रही है । इससे उत्त्पन्न खतरे की घण्टी राष्ट्रीय
एकता-अखण्डता के प्रति जागरुक व चिन्तित हर उस भारतीय को सुनाई पड सकती
है , जो  कान खोलने के बाजाय अपनी आंखें पूरी तरह से खोल कर भारत में चल
रही उनकी गतिविधियों का सूक्ष्म अवलोकन करे । विश्व की महाशक्ति कहे जाने
वालों में से एक कम्युनिष्ट चीन तो प्रत्यक्षतः हमारी सीमा पर आ कर
सामरिक तरीके से हमें घेरने और माओवादी आन्दोलनों के जरिये आन्तरिक रूप
से उखाडने में लगा हुआ है यह सभी जानते हैं ; परन्तु शेष पश्चिमी
महाशक्तियों की कारगुजारियां चीन से ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि वे गुप्त
हैं , किसी को मार डालने के लिए मिष्ठान में मिला कर दिए जाने वाले विष
की तरह ।
मालूम हो कि पश्चिम की महाशक्तियां भारत के भीतर कमजोर कहे जाने
वाले कुछ खास वर्गों को वृहतर भारतीय समाज से अलग-थलग कर देने के लिए
उनकी अलगाववादी पहचान , उनका अलग इतिहास और यहां तक कि उनका धर्म भी
रचने-गढने के काम में अभियानपूर्वक पूरे जोर-शोर से जुटी हुई हैं ।
विखण्डन का खेल खेलने वाले इन षड्यंत्रकारी खिलाडियों के गठजोड में
पश्चिमी दुनिया के उन राज्यों की सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के
साथ-साथ उनसे सम्बद्ध संगठन तथा विभिन्न ईसाई गुटों के चर्च-समूह ,
सामाजिक विचार मंच और विविध शैक्षिक संस्थायें व शिक्षाविद शामिल हैं ।
बाहर से देखने में तो ये सब एक-दूसरे से भिन्न व असम्बद्ध से लगते हैं,
किन्तु भीतर-भीतर ये सब परस्पर समन्वित हैं ।  इन सबकी गतिविधियां
एक-दूसरे से संयोजित और संपोषित हैं ।
इन सभी शक्ति-समूहों को भारत में उपरोक्त विखण्डनकारी
षड्यंत्रों के संचालन क्रियान्वयन हेतु अमेरिका और युरोपीय देशों की
सरकारों-संस्थाओं तथा धार्मिक-सामाजिक संगठनों के द्वारा प्रचूर धन
प्रदान प्रदान किया जाता है । भारत के दबे-कुचले लोगों की सहायता के नाम
पर कायम की गई इनकी विविध-विषयक परियोजनाओं तथा सम्बन्धित
नीतियों-प्रस्तावों-दस्तावेजों का बाहरी आवरण ऐसा लोकलुभावन, परोपकारी व
कल्याणकारी प्रतीत होता है कि आम तौर पर कोई भी व्यक्ति इनसे प्रभावित
हुए बिना नहीं रह सकता । किन्तु सतर्कतापूर्वक सूक्ष्म पडताल करने पर ऐसा
मालूम पडता है कि कमजोर लोगों की सेवा-सहायता के भीतर का इनका निहितार्थ
और असली उद्देश्य भारत की एकता-अखण्डता व सम्प्रभुता के प्रतिकूल व
सर्वथा घातक है ।
भारत के जिन कथित कमजोर समुदायों को सशक्त बनाने में
पश्चिम की ये शक्तियां सक्रिय हैं , उन समुदायों के कुछ लोग इनके
संगठनों-संस्थानों में उच्च पदों पर आसीन हुआ करते हैं ; जबकि
तत्सम्बन्धी समस्त गतिविधियों की संकल्पना-संरचना तथा सम्बन्धित
रणनीतियों का निर्धारण-प्रबन्धन और वित्त-पोषण आदि निर्णायक मसलों को
अंजाम देने वाले लोग पश्चिमी देशों के ही हुआ करते हैं । भारत में अब ऐसे
लोगों के साथ गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं ( एन०जी०ओ०) की सहभागिता
लगातार बढ रही है , जिन्हें पश्चिमी देशों की  षड्यंत्रकारी
संस्थायें-शक्तियां अंगीकृत कर लेती हैं और उन्हें वित्तीय पोषण व
संरक्षण दे-दे कर उनसे भारतीय एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता को कमजोर करने
वाली परियोजनायें संचालित करती-कराती हैं  । उनकी ऐसी परियोजनाओं में
धर्मान्तरण और विविध-विषयक आन्दोलन की गतिविधियां भी शामिल रहती हैं ।
युरोप के अनेक विश्वविद्यालय और अमेरिका-स्थित  ‘भारत-विषयक अध्ययन
केन्द्र’ भारत के ऐसे स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं और आन्दोलनकारियों को
प्रायः आमण्त्रित करते रहते हैं और उन्हें तत्सम्बन्धी प्रशिक्षण भी देते
रहते हैं । खालिस्तानियों तथा कश्मीरी अलगाववादी आतंकियों और माओवादी
नक्सलियों को प्रशिक्षण संरक्षण व पोषण देने के बाद पश्चिम की ये
षड्यंत्रकारी शक्तियां भारत के भीतर बृहतर भारतीय समाज के विरूद्ध अब
दलितों-द्रविडों और अल्पसंख्यक समुदायों का ध्रुवीकरण करने के अभियान में
जुटी हुई हैं । ऐसे लक्षित समुदायों की अलगाववादी पहचान कायम कर उसे
भारतीय समाज व संघ-राज्य के विरूद्ध विभाजन-विखण्डन के स्तर तक उभार देने
और उन्हें आतंकवादी रूप दे देने का यह अभियान अब पश्चिम के कुछ देशों की
वैदेशिक नीति का अघोषित अंग ही बनता जा रहा है ।
भारत के विघटन-विखण्डन का षड्यंत्र रचने व क्रियान्वित करने में लगी
ये पश्चिमी शक्तियां इस बावत वंचितों-दलितों को सेवा-सहयोग प्रदान करने
वाले मसीहा के साथ-साथ ज्ञान व शिक्षा बांटने वाले विशेषज्ञ का भी लिबास
धारण कर अत्यन्त गोपणीय व अदृश्य तरीके से अपनी परियोजनाओं को अंजाम देती
हैं । भारत के लक्षित समुदायों के इतिहास , विश्वास ,
मान्यताओं-परम्पराओं , भाषा-नस्ल तथा रंग-रूप और साहित्य-संस्कृति का
अध्ययन-विश्लेषण एवं शोध-अनुसंधान करने सम्बन्धी अपनी शैक्षिक-अकादमिक
परियोजनाओं के माध्यम से विभाजन-विखण्डन व धर्मान्तरण का बीजारोपण कर उसे
खाद-पानी देते रहना इनका शगल है । संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रिंसटन
विश्वविद्यालय भारत में विभिन्न शिक्षण संस्थानों और स्वयंसेवी संस्थाओं
के माध्यम से ‘अफ्रीकी दलित शोध परियोजना’ संचालित कर रहा है, जिसके लिए
शोधार्थियों को धन भी देता रहा है । उसकी यह परियोजना ‘अन्तर जाति/वर्ण
सम्बन्धों’ और ‘दलित आन्दोलनों’ को अमेरिका के सांस्कृतिक व ऐतिहासिक
चश्में से विश्लेषित कर भारत के सामाजिक ढांचे को उसी फ्रेम (चौखट) में
मढने की कोशिश कर रहा है । अमेरिका की यह परियोजना वास्तव में भारतीय
दलितों को ‘अश्वेतों’ के रूप में और गैर-दलितों को ‘श्वेतो’ के रूप में
परिभाषित करने वली है । अपनी इस परियोजना के तहत वह अमेरिकी नस्लवाद एवं
गुलामी के साथ-साथ नस्लवादी श्वेत-अश्वेत सम्बन्धों का रंगभेदी इतिहास
भारतीय समाज पर थोप रहा है । वह भारत के दलितों को अफ्रीकी दलितों के साथ
षडयंत्रकारी नस्लीय आधार पर जोड कर  इन्हें ‘एक भिन्न नस्ल के लोगों के
हाथों पीडित हुए समुदाय’ के रूप में चिन्हित करते हुए इन्हें ‘सशक्त’
बनाने के बहाने पृथकतावाद के रास्ते पर ले जाना चाह रहा है ।
यह तो पश्चिमी शक्तियों एवं उनके समूहों की नीति व नीयत का
तथा उनके द्वारा भारत में संचालित विविध परियोजनाओं की प्रवृति व प्रकृति
का और उनकी विखण्डनकारी कार्य-पद्धति का एक  छोटा सा उदाहरण मात्र है ।
हमारे देश में अकेले अमेरिका द्वारा इसी नीति-नीयत से , ऐसी ही
प्रवृति-प्रकृति की दर्जनों परियोजनायें तो उसकी ऐसी ही कार्य-पद्धति से
सिर्फ शैक्षिक शोध-अनुसंधान के क्षेत्र में क्रियान्वित हो रही हैं ।
जबकि ; सेवा , चिकित्सा , मानवता , मानवाधिकार , स्वतंत्रता , समानता ,
भाषा , साहित्य , कला , सूचना , अभिव्यक्ति , लोकतंत्र ,
साम्प्रदायिकता , धर्मनिरपेक्षता आदि अनेक ऐसे सामाजिक, राजनीतिक बौद्धिक
विषय हैं , जिनमें अमेरिकी व युरोपीय शक्तियां अध्ययन-विश्लेषण व
शोध-अनुसंधान के नाम पर अपनी विभिन्न परियोजनाओं के तहत दर्जनों
चर्च-मिशनरियों और सैकडों  स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से  भारत के
विखण्डन की सूक्ष्म गतिविधियां क्रियान्वित कर-करा रही हैं । इन संस्थाओं
में अधिकतर भारत की ही होती हैं , जो सबसे निचले स्तर पर जमीनी काम करती
हैं । ये संस्थायें और इनके कर्ता-धर्ता नाम से देखने-सुनने में तो
भारतीय ही मालूम पड्ते हैं , मगर इनके काम और इनका सूत्र-संचालन करने
वाले हाथ सर्वथा अभारतीय होते हैं ।  अपने ही देश धर्म राष्ट्र व समाज का
अहित कर रहे ये लोग यह भली-भांति जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और
कितना अनुचित कर रहे हैं, किन्तु विदेशी धन की लालच में पड कर  धनदाता
पश्चिमी एजेन्सियों के एजेण्डे का पूरी तत्परता से अनुपालन करते हैं ।
पश्चिमी शक्तियां अपने इस अभियान में  मीडिया का और बौद्धिक-अकादमिक
संस्थानों का भी भरपूर इस्तेमाल करती हैं । इस हेतु ये विदेश-यात्राओं से
ले कर सभाओं, संगोष्ठियों, सेमिनारों, परिचर्चाओं, सम्मेलनों तक का आयोजन
करती-कराती हैं और लेखकों-पत्रकारों-इतिहासकारों- शिक्षाविदों को
‘रिसर्च-फेलोशिप’ से ले कर पुरस्कार-सम्मान व मानद उपाधियां तक प्रदान
करती-कराती हैं । भारत में सैकडों ऐसे बडे-बडे बौद्धिक नाम हैं , जो इन
पश्चिमी-विदेशी शक्तियों की ऐसी-ऐसी अनुकम्पाओं व कारगुजारियों  के सहारे
प्रसिद्धि व समृद्धि के शीर्ष पर स्थापित हो चुके हैं, जिनकी बौद्धिकता
से भारतीय एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता को आय दिनों चोट पहुंचते रहती है ।
पश्चिम की इन विखण्डनकारी शक्तियों के भारत-विरोधी षड्यंत्रों और भारत
में कार्यरत इनके कारिन्दों को बेनकाब करने के बावत मेरी एक पुस्तक शीघ्र
ही प्रकाशित होने वाली है , जिसका नाम है- ‘भारत के विरूद्ध पश्चिम के
विखण्डनकारी षड्यंत्र’ ।
•       मनोज ज्वाला

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