“वेदों ने हमें सर्वतोमहान पुरुष ऋषि-मुनि और राम, कृष्ण, दयानन्द दिये”

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-मनमोहन कुमार आर्य

               मनुष्य का निर्माण माता-पिता के पालन पोषण सहित उनके द्वारा दिये जाने वाले संस्कारों से होता है। माता-पिता हमें जो संस्कार देते हैं उन्हें वह विरासत में अपने माता-पिता व आचार्यों से प्राप्त होते हैं। हमारी यह सृष्टि 1.96 अरब वर्ष पुरानी है। इतने ही वर्ष पूर्व भारत वा आर्यावर्त्त के वर्तमान स्थान तिब्बत में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न की थी। उस समय पृथिवी पर कहीं कोई देश नहीं था। सारी पृथिवी एक थी और एक ही देश था जिसे आर्यावर्त्त कह सकते हैं। तिब्बत भी आर्यावर्त्त का ही भाग था। बाद में जनसंख्या में वृद्धि और भूमि के बंटवारे हुए और नाना प्रकार के नामों से देश बने हैं। हम सब जानते हैं कि 15 अगस्त 1947 से पूर्व पाकिस्तान और बंगलादेश भारत के भाग हुआ करते थे। हमारे पूर्वजों के कुछ आलस्य प्रमाद के कारण, वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार न करने और इसे अन्धविश्वासों व अविद्या से ग्रस्त करने के कारण, वर्णव्यवस्था एवं अन्य सामाजिक विकृतियों के कारण समाज में समानता न रहने से यह सब परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं। यदि महाभारत काल से पूर्व का वैदिक धर्म व संस्कृति जिसका पुनरुद्धार ऋषि दयानन्द जी ने किया, अस्तित्व में होते तो हमें व हमारे पूर्वजों को वर्तमान के दुर्दिन देखने को न मिलते। महर्षि दयानन्द ने इस पतन के कारणों पर अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रकाश डाला है। वैदिक धर्म एवं संस्कृति चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद की देन है जिसका प्रचार व प्रसार हमारे आदिकालीन व उसके बाद के ऋषियों ने समस्त संसार में किया था। सारे संसार के देशों को आर्यावर्त्त देश के हमारे पूर्वजों ने जा-जाकर ही बसाया था। इसका प्रमाण व संकेत ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1875 में पूना में दिये अपने प्रवचनों में किया था। उनका दिया गया विचार ही तर्क व युक्तियों से सत्य सिद्ध होता है। विदेशियों ने अपने हिताहित के कारण कुछ सत्य बातों को स्वीकार न कर राजनीतिक व अन्य कारणों से अपने अनुकूल मान्यताओं को स्वीकार किया है। परन्तु सत्य यही है कि आदि मानव सृष्टि इस संसार के एक ही स्थान तिब्बत में हुई थी और यहां उत्पन्न ऋषि अन्य लोग ही संसार के सभी लोगों के पूर्वज थे। उस समय संसार में कही कोई देश नहीं बना था। सब स्थान मानवों से शून्य थे। समय के साथ तिब्बत से उतर कर आर्यों के पूर्वज वर्तमान की भारत भूमि पर आये थे और इसका नाम आर्यावर्त्त प्रसिद्ध किया था। इसके बाद यहां से लोग संसार के अन्य भागों पर जाते रहे और जहां की जलवायु व स्थान उन्हें अनुकूल पड़ता था, उन्हें बसाते रहे। इस प्रकार सारे संसार में मनुष्य फैले हैं और नाना प्रकार के देश अस्तित्व में आये हैं।

               प्रश्न यह है कि चार वेदों का ज्ञान कब कैसे प्राप्त हुआ? वेदों की संहिताओं से किसी ऋषि का नाम ग्रन्थकार के रूप में ज्ञात नहीं होता। सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों में उपलब्ध सभी विषयों का ज्ञान, जो आज भी ज्ञान व विज्ञान के अनुरुप व अनुकूल है, उपलब्ध होना असम्भव है। यह सृष्टि भी स्वमेव उत्पन्न नहीं हो सकती। इस सृष्टि की उत्पत्ति भी एक ज्ञानवान, सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक सत्ता से ही होना सम्भव है और वह इस संसार में निराकार अत्यन्त सूक्ष्म रूप में विद्यमान है। उसी को ईश्वर कहते हैं। चारों वेद भी ईश्वर के इसी स्वरूप का प्रकाश करते हैं। ईश्वर चेतन सत्ता है। यह अनादि, अमर, अविनाशी नित्य है। इसका ज्ञान भी स्वाभाविक नित्य है। जो कम होता है बढ़ता है। सृष्टि की उत्पत्ति व संचालन का ज्ञान भी परमात्मा को अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। उसी अपने स्वाभाविक ज्ञान से परमात्मा अनादि व नित्य जड़ प्रकृति तो सत्व, रज और तम गुणों की साम्यावस्था है, उसमें अपनी ईक्षण नामी प्रेरणाशक्ति से गति वा हलचल उत्पन्न कर एक वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान सम्पन्न पुरुष की भांति इस सृष्टि का निर्माण करते हैं। उन्हीं के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति का काम पूरा होने पर अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न कर युवावस्था में स्त्री व पुरुषों को उत्पन्न किया जाता है। मनुष्यों के युवावस्था में उत्पन्न होने पर उन्हें ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान उन्हें केवल और केवल ईश्वर से ही मिल सकता है। इसका कारण यह है कि ईश्वर ही ज्ञानवान सत्ता है। वह चेतन सत्ता है और निराकार होने के साथ सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी भी है। अतः ईश्वर हमारी आत्मा के भीतर विद्यमान होने के कारण से हमारी आत्मा मे ही प्रेरणा कर वेदों का ज्ञान देता है। आरम्भ में उसने यह ज्ञान हमारे चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। इन चार ऋषियों ने उस ज्ञान को ब्रह्मा ऋषि को दिया और उनसे ही वेद ज्ञान के पढ़ने, सुनने व सुनाने सहित अध्ययन व अध्यापन की परम्परा आरम्भ हुई थी।

               सृष्टि की आदि में हमारे सभी ऋषि-मुनियों इतर मनुष्यों की बौद्धिक क्षमतायें आज के मनुष्यों से कहीं अधिक थी। उनकी स्मरण शक्ति ज्ञान के ग्रहण करने की भी क्षमता बहुत अधिक थी। अतः वेद ज्ञान विहित ऋषियों के पढ़ाने से वह अल्प समय में ही विज्ञ ज्ञानी बन गये थे। वेदों में ईश्वर, जीव, प्रकृति व अन्य विषयों सहित सभी सत्य विद्याओं का जो ज्ञान था, उसे ऋषियों ने इतर स्त्री-पुरुषों को आत्मसात करा दिया था। ईश्वर ने वेदों में बताया है कि मनुष्य जन्म हमारे कर्मों व कर्मों के आधार पर निर्मित प्रारब्ध के कारण होता है। कोई मनुष्य कितना भी ज्ञान व बलवान हो, वह पूर्ण सुखी नहीं हो सकता। माता के गर्भकाल में अनेक प्रकार के दुःख जीव को होते हैं। जन्म लेने व मृत्यु के समय भी दुःख होता है। जीवनकाल में भी नाना प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक तथा कर्मफल वा प्रारब्ध के दुःख आते जाते रहते हैं। अतः मनुष्य को सभी दुःखों से मुक्त होने का उपाय ढूढंना चाहिये। वेदों ने इसका उपाय भी बताया है। यह उपाय है वेदों मे निर्दिष्ट ईश्वर एवं आत्मा आदि के स्वरूप को जानकर ईश्वर की उपासना करें, वायु व जल आदि की शुद्धि के लिये यज्ञ-अग्निहोत्र करें और अपना आचरण सत्य पर स्थिर करें। ऐसा करने से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होकर जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त हो सकता है। हमारे आदिकालीन पूर्वज इसी जीवन पद्धति को अपनाते थे और इन संस्कारों से निर्मित मनुष्य श्रेष्ठ गुणों व आदर्श चरित्र वाले होते थे। इसी कारण हमारे देश में उच्च चरित्रवान् आदर्श ऋषि-मुनि और महापुरुष उत्पन्न होते थे। जिन्होंने लोगों ने वेदों और वैदिक साहित्य का अध्ययन नहीं किया है वह प्राचीन परिस्थितियों व उच्च जीवन शैली का अनुमान नहीं कर सकते। इसके लिये तो मत-मतान्तरों, आधुनिक नास्तिक व अन्य सभी लोगों को अपने पूर्वाग्रहों का त्याग कर अपने मन व हृदय को निर्मल बनाकर सच्चे व पवित्र भावों से वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करना होगा।

               इसी वैदिक धर्म व संस्कृति में जन्म लेकर व वेदों का अध्ययन करने के बाद वेदों की शिक्षाओं को अपने जीवन में धारण कर दशरथ पुत्र राम और वसुदेव के पुत्र देवकीनन्दन कृष्ण संसार के महापुरुषों के अग्रणीय व प्रकाशस्तम्भ बने थे। इसके बाद विगत उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द (1825-1883) भी राम व कृष्ण के समान हुए जिन्होंने तेज गति से विलुप्त व समाप्त हो रही वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करने के साथ ही विलुप्त वेदों का प्रकाश कर उसके सत्य अर्थों से देश व संसार के लोगों को परिचित कराया था। संसार का कोई ग्रन्थ वेदों के समान नहीं है। वेदों में ज्ञान विज्ञान व सत्य विद्याओं का भण्डार है एवं मानव के कर्तव्य व धर्मों पर प्रकाश डाला गया तो वहीं मत-मतान्तरों के ग्रन्थ अविद्या, अन्धविश्वास, हिंसा, राग, द्वेष, पक्षपात व अन्याय आदि के विचारों से भरे पड़े हैं। वेदों में अमानवीय व किसी को हानि पहुंचाने वाली किसी बात का वर्णन नहीं है। वेद तो वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के साथ सर्वे भवन्तु सुखिनः की उद्दात् भावनाओं का प्रचार करते हैं। वह मांसाहार के घोर विरोधी है। इसे अत्यन्त निन्दित एवं अमानवीय कर्म बताते हैं। अहिंसक पशुओं के प्रति भी प्रेम व स्नेह का व्यवहार करने की प्रेरणा करते हैं। गाय को उन्होंने माता का स्थान देने के साथ उसे पूज्य माना है। गाय का दूध सभी पशुओं से श्रेष्ठ है। गाय की सेवा करने से मनुष्य को अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। उसका पुनर्जन्म श्रेष्ठ माता-पिता व सुखद परिस्थितियों में होता है। जो ऐसा नहीं करता, वह किसी भी मत का अनुयायी क्यों न हो, तर्क व युक्ति से उसका भी पुनर्जन्म होता है और वह पशु-हिंसा एवं मांसाहार आदि कार्यों के कारण निकृष्ट योनियों में जन्म लेकर अपने अनिष्ट कर्मों का फल घोर दुःख भोगता है। वैदिक धर्म एवं संस्कृति का अध्ययन करने के सबसे सरल महत्वपूर्ण साधन सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन है। इसका अध्ययन कर विश्व में इसका प्रचार इसके अनुरूप कानून बनाने से ही विश्व में मानवता का उद्धार होना सम्भव प्रतीत होता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।

               वैदिक धर्म व संस्कृति में उत्पन्न, पले व बढ़े हमारे महापुरुषों राम, कृष्ण, दयानन्द व सभी ऋषि मुनियों के समान विश्व में कहीं कोई महापुरुष व महात्मा उत्पन्न नही हुआ। हमारा कर्तव्य है कि हम सब मनुष्यों को वैदिक धर्म व संस्कृति को अपनाकर अपने और दूसरों के जीवनों का कल्याण करना चाहिये। श्रेष्ठ जीवन निर्माण का एकमात्र उपाय व साधन सत्य सनातन वैदिक धर्म को अपनाना है जिसका व्याख्यान व स्वरूप सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने प्रस्तुत किया है तथा वर्तमान में जिसका विश्व स्तर पर प्रचार आर्यसमाज द्वारा किया जाता है। वैदिक धर्म को अपनाकर हम अविद्या से दूर होकर सत्य ज्ञान से विहित हो सकते हैं। एक दीपक बनकर समाज के अज्ञानान्धकार को दूर कर हम लोगों के जीवनों में सत्य ज्ञान का प्रकाश कर सकते हैं। आईये! सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग का व्रत लें। सत्य वैदिक धर्म को अपनायें, उस का आत्मना आचरण करें और असत्य व अविद्या को स्वयं से दूर करें। ओ३म् शम्।

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