विद्यादायिनी मोक्षप्रदायनी मॉ शारदा का शरीर है मातृकाओं से निर्मित

          आत्‍माराम यादव

 मॉ शारदा का शरीर  ’’अवर्ग’’ आदि सात वर्गो में विभक्त 51 मातृकाओं से निर्मित है। स्वच्छन्दोद्योत .पटल 10 पटल के अनुसार-’’अवर्गे तू महालक्ष्मीः कवर्गे कमलोद्भवा।।34।। चवर्गे तू महेशानी, टवर्गे तु कुमारिका।। नारायणी तवर्गे तु, वाराही तु पवर्गिका।।35।। ऐन्दी चैव यवर्गस्था, चामुण्डा तु शवर्गिका।। एता सप्तमहामातृ, सप्तलोकव्यवस्थिः।।36।। अर्थात 16 स्वरों की मातृकायें ’’अवर्ग’ की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी है जिनके स्वर है- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, ल, ल्, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अः  मॉॅ भगवती के मुखमण्डल के क्रंमशः ब्रम्हरंध्र, मुख, दक्षनेत्र, वामनेत्र, दक्ष कर्ण, वाम कर्ण, दक्षिण नासापुट, वामनासापुट, दक्षिण कपोल, वामकपोल, उर्द्धओष्ठ, अधरओष्ठ, ऊर्ध्व दन्तपंक्ति, अधःदन्तपंक्ति, तालु और जिव्हा है। ’कवर्ग’ की अधिष्ठात्री देवी ब्राम्ही है जिनकी पॉच मातृकायें क्रंमशः क, ख, ग, घ, ड माता की दक्षिण बाहु के बाहुममूल, कूर्पर, मणिबन्ध, अंगुलिमूल और अंगुलियों के अग्रभाग है।’चवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी माहेश्वरी के लिये- च, छ, ज, झ,´, पॉच मातृकायें भगवती के वाम बाहु के क्रंमशः बाहुमूल, कर्पूर, मणिबन्ध-अंगुलिमूल और अंगुल्यग्रभाग है।

 ’’टवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी कौमारी के पॉच मातृकायें-ट, ठ, ड, ढ, और ण से भगवती पराम्बा के दक्षिण पाद की जंघा, जानु (धुटना), गुल्फ (टखना) अंगुलिमूल तथा अंगुल्यग्र का निर्माण हुआ है। इसी क्रम में ’’तवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी वैष्णवी के प्रयुक्त मातृकायें क्रंमशः त, थ, द , ध तथा  ज्ञ इन पॉच मातृकाओं से वाम पाद के अंगों का निर्माण हुआ है और ’’पवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी बाराही की मातृकायें प, फ, ब, भ और म से दक्षिण कुक्षि, वाम कुक्षि, पृष्ठ, नाभि तथा जठर नामक पॉच अंग है। ’’यवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी  ऐन्द्री तथा ’’शवर्ग’’ चामुण्डा देवी अधिष्ठात्री देवी है जो 10 मातृकाओं क्रंमशः य, र, ल, व, श, ष, स, ह, तथा क्ष से मॉ भगवती शारदा के हृदयप्रदेश के हृदय, दक्षिण स्कन्ध, गर्दन, वामस्कन्ध, हृदय से दक्षिणकर पर्यान्त भाग, हृदयादि वामकर पयान्त भाग, हृदय से लेकर दक्षिण पाद पर्यान्त भाग, हृदयादि वामपाद पर्यान्त भाग, नाभि से लेकर हृदयपर्यान्त भाग और हृदयादि भ्रूमध्य भाग का निर्माण हुआ है।

मातृका विश्वनिर्मात्री स्वतंत्र अलुप्तप्रभाव क्रियाशक्ति है। यही मातृका सम्पूर्ण विश्व का कारण होने से माता रूप में समस्त जीव जन्तुओं, पशुओं के निकट अज्ञात रूप में रहती है इसलिये मातृका नाम से विख्यात है। मातृकायें घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फोट, ध्वनि, झृंकार, तथा ध्वडकृति इन आठ प्रकार के शब्दों में व्याप्त अ से लेकर क्ष पर्यन्त वर्णभट्टारक रूप, मंत्रादिमय, समस्त शुद्ध, अशुद्ध संसारों की जननी , परमेश्वरी क्रियाशक्ति ’अज्ञात माता’’ होने के कारण अक्रमा मातृका कहीं गयी है। सम्पूर्ण मंत्र वर्णात्मक है और मातृका शिवमयी है तभी वर्ण शक्ति के पुंज कहे गये है। वर्णराशि मय यह मातृका शक्ति पुरूष को बॉधती है, मुक्त करती है। अक्षर मंत्र का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि मेष से लेकर मीन तक सभी राशियों का वर्गीकरण प्रपंचासार तंत्र के अनुसार ’’अ’’ से ’’ज्ञ’’ तक के अक्षरों से किया गया है और जन्म के बाद जातक इन राशियों से प्राप्त अक्षर नाम से ही अपनी पहचान कायम करता है, ये सारा निर्धारण तांत्रिक दृष्टि से किया गया है न कि ज्योतिष को आधारित करके किया है। राशियों के अतिरिक्त नक्षत्रों राशियों के स्वामी गृहों आदि को भी ’’अ’’ अक्षर से ’’क्ष’’ तक के वर्गो में विभक्त किया गया है। मंत्र उपासकों के कुल देवता के न होने पर मित्र रूप में पृथ्वी,आकाश वायु, अग्नि व जल तत्व के कुलाकुल देवत्व को ग्रहण करने का विधान किया गया है जिसमें भूदेव पृथ्वी के लिये ’’ उ, ऊ, औ, ग, ज, ड,द, ब, ल, ल्ल अक्षर है वही आकाश के लिये लृ,ल्ृ, अं,ड.,ण, न, म, श, ह, वायु के लिये अ, आ, ए, क, च, ट, त, प, य, ष, अग्नि के लिये इ, ई, ऐ, ख, छ, ठ, थ, फ, र एवं क्ष, जल के लिये ऋ, ऋृ, औ, घ, भ, द, ध, भ, व , स अक्षर से वर्गीकृत किया गया है। तांत्रिक सिद्धान्तों के अनुसार ये मंत्र प्रत्यक्ष ऊर्जा का रूप धारण कर अद्भुत आध्यात्मिक उत्कर्ष के कारण होते है। इन 51 मातृकाओं में पृथक-पृथक शक्तिरूप में सप्त या अष्ठ मातृकायें – अ, क, च, ट, त, प, य, श, क्ष  अधिक प्रसिद्ध है।

मातृका शब्द ब्रम्ह होने पर मंत्र साधन से उत्पन्न ’स्फोट’ द्वारा शक्ति की अत्यन्त सूक्ष्म तरंगें या कम्पन नाडियों में क्रियाशील होती है जो साधक को उसके लक्ष्य की ओर ले जाती है। स्फोटक शब्दों के सार्थक और निरर्थक क्रम को जल्प एवं वर्णमाला के अक्षरों के उच्चारण को एकाक्षरी मंत्र कहा गया है। वर्णो के संयोजन से निर्मित बीजमंत्र प्राणी को ही नहीं अपितु ईश्वर को भी अपने अधीन बना लेते है-मंत्राधीनास्तु देवताः। अतएव मंत्रों से उत्पन्न शक्तिपुंज बीजों में साररूप से अवतरित होता है और साधक को उत्तरोत्तर शक्तिवैशिष्ट्य से फलप्रदायक बनता है। गुरू का अपने शिष्य को मंत्र देना कन्यादान जैसा ही है। शास्त्रों ने मंत्र का और मंत्रग्रहिता का कुलाकुल निश्चत किया है जिसमें पृथ्वी तत्व से जल तत्व तक के ’अ’ से ज्ञ तक के पचास अक्षरों को वर्गीकृत किया है।

आत्‍माराम यादव पीव

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