हम ईश्वर के परिवार के अनन्त सदस्यों में से एक सदस्य हैं

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मनमोहन कुमार आर्य

               हम इस संसार में आये तो यहां हमारा प्रथम परिचय अपने माता-पिता से हुआ। हमसे पहले भी हमारे भाई बहिन उत्पन्न हुए थे तथा बाद में भी। हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, मामा तथा चाचा आदि के परिवार भी थे। बस इन्हीं कुछ लोगों को हम अपना परिवार मानते हैं। हमें लगता है कि यह हमारी सीमित सोच है। हमारा यह परिवार इस जन्म का है। जो हमारे परिवार के नहीं है वह भी हमारे अपने ही है। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस जन्म से पूर्व भी हम संसार में अनन्त बार जन्में व मरे हैं। संसार में जितने भी प्राणी हैं वह हमारे पूर्वजन्मों में किसी एक व अधिक जन्मों में परिवार के किसी न किसी रूप में सदस्य रह चुके हैं। आगे भी यह सब हमारे परिवारों के सदस्य रहेंगे। यह क्रम कभी रुकने वाला नहीं है। अतः हमें वेदों का अध्ययन कर ईश्वर तथा अन्य सभी जीवों से अपने सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसे भी अविद्या दूर करना कहा जाता है। वस्तुतः हम अपनी सीमित सोच के कारण अविद्या व अज्ञान से ग्रस्त है। जब वेदों का अध्ययन करने पर हमें ईश्वर, आत्मा और संसार के अनेक रहस्यों का ज्ञान होगा तो हमारे विचार व चिन्तन पर इसका प्रभाव पड़ेगा। हम पूरे विश्व व सभी प्राणियों को अपने परिवार का सदस्य मानने लगेंगे। संसार में समस्त जीव जन्तुओं के वृहद परिवार के हम एक सदस्य हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकर, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान ईश्वर हमें हमारा माता, पिता, भाई, बन्धु, मित्र, सखा विदित होगा। यह एक ऐसा ज्ञान व रहस्य है जिससे हम सभी को परिचित होना चाहिये। यह सब रहस्य मनुष्य जन्म में जाने जा सकते हैं। मृत्यु के बाद निश्चित नहीं की हमें अगला जन्म मनुष्य योनि में मिलेगा, अतः इस जन्म में हमें परमात्मा द्वारा दिये अवसर का लाभ उठाना चाहिये और आज अभी वेदों में प्रवेश करने का संकल्प लेकर वेद प्रवेशिका के रूप में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना आरम्भ कर देना चाहिये। इससे निश्चय ही सभी विषयों संबंधी हमारे ज्ञान व विज्ञान में वृद्धि होगी और हम इस सृष्टि के सत्यस्वरूप व रहस्यों को जानने में समर्थ होंगे।

               हम ईश्वर के परिवार के सदस्य है इसका आधार वैदिक ज्ञान है। यह वैदिक-ज्ञान मनुष्यकृत नहीं अपितु ईश्वरकृत ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न स्त्री व पुरुषों में चार सर्वाधिक पात्र पवित्र ऋषि आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को सर्वव्यापक ईश्वर ने उनकी आत्मा में प्रेरणा देकर दिया था। इस कार्य के लिए ईश्वर को मनुष्य जन्म लेने व उपदेश करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी है। वह सभी जीवों व प्रकृति के कणों के भीतर भी व्यापक एवं एकरस रूप में विद्यमान है। वह सृष्टि के आरम्भ में अपने जीवस्थ स्वरूप से ऋषियों की जीवात्माओं में वेदों का ज्ञान प्रेरित करता है। यह उल्लेख व वर्णन वेद में ही उपलब्ध है जिसकी ऊहा व चिन्तन से पुष्टि होती है। इस ज्ञान में वेदभाषा एवं मन्त्रज्ञान दोनों सम्मिलित होते हैं। वेदार्थ भी ईश्वर ने ही इन चार ऋषियों को जनाये थे। यहीं से वेदाध्ययन, वेद प्रचार तथा धर्म पालन की परम्परा चली है। वेद के मर्मज्ञ विद्वान वेदों का अध्ययन व परीक्षा कर वेद ईश्वरीय ज्ञान ही है, इस तथ्य की पुष्टि की कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ एवं आप्त पुरुष थे। उन्हें वेदों के सत्य वेदार्थ विदित थे। उन्होंने वेदों की परीक्षा एवं मननपूर्वक वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बताने सहित वेद ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं इसका भी प्रकाश एवं प्रचार किया था। वेदों के समान किसी मत-पंथ की कोई पुस्तक का ज्ञान नहीं है। कोई वेद से प्राचीन नहीं है और न किसी की भाषा वेदों के समान अत्यन्त उत्कृष्ट एवं उत्तम है। वेदों के व्याकरण अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं अन्य ग्रन्थों सहित निरुक्त ग्रन्थ भी विश्व में अन्यतम हैं। अतः सभी मतों के अनुयायियों को वेद सहित सभी ग्रन्थों का अध्ययन एवं अष्टांग योग का आचरण कर स्वयं ही सत्यासत्य की पुष्टि करनी चाहिये। इससे न केवल आत्मा की उन्नति होगी, आत्मा सद्ज्ञान से युक्त होगा अपितु संसार से अशान्ति, हिंसा, असत्य व छल आदि की प्रवृत्तियां भी दूर व कम हो सकती हैं। इसी दृष्टि से ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार करते हुए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन करने सहित 10 अप्रैल, 1875 को वेद प्रचार आन्दोलन आर्यसमाज की स्थापना की थी। ऋषि दयानन्द के कार्यों का आंशिक प्रभाव ही विश्व व भारत देश पर पड़ा है। अभी शेष कार्य पूरा करना है। अन्तिम लक्ष्य ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ है। इसका अर्थ है कि पूरे विश्व को सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का अनुयायी बनाना तथा उनसे असत्य व छल आदि जैसी बुराईयों को पूर्णतः दूर करना।

               हम यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के दो मन्त्र अर्थ सहित विषय के पोषण व प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र निम्न हैं:

1-           यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति।

               सर्वभूतेषु चात्मानं ततो वि चिकित्सति।।6।।

2-           यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।

               तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।7।।

               प्रथम मन्त्र का ऋषि दयानन्दकृत अर्थ है – हे मनुष्यो! जो विद्वान् जन परमात्मा के भीतर ही सब प्राणी-अप्राणियों (जड़-चेतन) को विद्या, धर्म और योगाभ्यास करने के पश्चात ध्यान दृष्टि से देखता है और जो सब प्रकृत्यादि पदार्थों में आत्मा (परमात्मा) को भी देखता है वह विद्वान् किसी प्रकार के संशय को प्राप्त होता, ऐसा तुम जानों। इस मन्त्र का भावार्थ है ‘हे मनुष्यो! जो लोग सर्वव्यापी न्यायकारी सर्वज्ञ सनातन सबके आत्मा अन्तर्यामी सबके द्रष्टा परमात्मा को जान कर सुख-दुःख हानि-लाभों में अपने आत्मा के तुल्य सब प्राणियों को जानकर धार्मिक होते हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

               दूसरे मन्त्र का पदार्थ व वेदार्थ है हे मनुष्यो! जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म में विशेषकर ध्यान दृष्टि (योग-समाधि की दृष्टि) से देखते हुए को सब प्राणीमात्र अपने तुल्य ही सुख-दुःख वाले (प्रतीत) होते हैं उस परमात्मा आदि में अद्वितीय भाव को अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखते हुए योगिजन को कौन मूढावस्था और कौन शोक वा क्लेश होता है अर्थात् कुछ भी नहीं होता।’ इसी मन्त्र का भावार्थ है जो विद्वान् संन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणिमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसे अपना हित चाहते वैसे ही अन्यों में भी वर्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं उनको मोह, शोक और लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते। और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं वे सदा सुखी होते हैं।’

               इन वेदमन्त्रों पर गहन चिन्तन व विचार करने की आवश्यकता है। इससे संसार के सभी प्राणियों में एक समान जीव व आत्मा का विद्यमान होना सिद्ध होता है। ईश्वर सबका पिता, माता, आचार्य, मित्र, बन्धु, संखा, राजा, न्यायाधीश आदि सिद्ध होता है। सभी जीव परस्पर बन्धु, मित्र, संखा सिद्ध होते हैं। ईश्वर ने ही अपनी अनादि व सनातन प्रजा जीवों के लिये इस अखिल ब्रह्माण्ड को बनाया है। वही इसका पालन व संचालन कर रहा है। उसी की शरण में जाकर, उसको जानकर व समाधि अवस्था में उसका साक्षात्कार कर ही जीवात्मा चिर शान्ति जो 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है, प्राप्त कर उसमें विचरण करते हैं। इस अवस्था में उनका बार बार जन्म व मरण छूट जाता है। यह ईश्वर का जीवों को विशेष पुरस्कार होता है जिसे जीवों को अर्जित करना होता है। हमारे सभी ऋषि अपने को मोक्ष का अधिकारी बनाने के लिये ही पुरुषार्थ, तप, ब्रह्मचर्यपालन, परोपकार, वेदाचरण व सदाचार आदि का पालन करते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द जी ने भी प्राचीन ऋषियों का अनुसरण किया और अनुमान है कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ होगा। हमारा कर्तव्य है कि हम संसार के सभी प्राणियों को अपने ही समान आत्मा वाला अनुभव करें और उनके साथ वही व्यवहार करें जो हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना और उसकी उपासना करना भी हम सबका परम पुनीत कर्तव्य हैं। इस विषय में सभी पाठक बन्धु विचार करें। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन इस विषयक निर्णय करने में सहायक हो सकता है।

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