हम विश्व के सुदृढ़तम लोकतंत्र बन जाएं

राकेश कुमार आर्य

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा की अंतिम बैठक में कहा था-भारत की सेवा का अर्थ है लाखों करोड़ों पीडि़त लोगों की सेवा करना, इसका अर्थ है गरीबी और अज्ञानता को मिटाना, हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति (महात्मा गांधी) की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हर आंख से आंसू मिट जाएं। शायद ये हमारे लिए संभव नहीं हो। पर जब तक लोगों की आंखों में आंसू हैं और वे पीडि़त हैं, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।

भारत की संसद ने 13 मई को अपने 60 वर्ष पूर्ण किये हैं। भारत के संसदीय इतिहास में 60 वर्ष बड़े महत्वपूर्ण रहे हैं। हमने हर दिशा में उन्नति की है, सुई तक जिस देश में कभी बाहर से बनकर आया करती थी वही भारत आज सुई से लेकर हवाई जहाज तक अपने आप स्वदेशी तकनीक से बना रहा है। देश में वैज्ञानिक उन्नति हो, चाहे कृषिक, औद्योगिक, सैनिक या आर्थिक उन्नति हो हम सब क्षेत्रों में अग्रणी देशों की श्रेणी में कदम रखते जा रहे हैं। देश की प्रतिभा ने और देश के पुरूषार्थ ने सचमुच कई ऐसे कीर्तिमान कायम किये हैं कि जिन्हें देखकर लगता है कि हमने नेहरू के उपरोक्त संकल्प भाषण को मानो मूत्र्तरूप ही दे दिया है। देश की प्रतिभा और देश के पुरूषार्थ का जितना गुणगान किया जाए उतना न्यून है।

लेकिन संसद की पहली बैठक में नेहरू जी ने ही ये भी कहा था कि भविष्य में हमें विश्राम करना या चैन से नहीं बैठना है बल्कि निरंतर प्रयास करना है, कि हम जो बचन बार-बार दोहराते रहे हैं और जिसे हम आज भी दोहराएंगे, उसे पूरा कर सकें।

नेहरू जी के इस संकल्प पर यदि विचार किया तो पता चलता है कि संकल्प की चादर में छेद ही नहीं हो गये हैं, बल्कि चादर तार-तार हो गयी है। अत: भारत आज असीम संभावनाओं और असीम निराशाओं के पालने में झूल रहा है। तस्वीर का यह पहलू निराशा जनक तो नहीं है परंतु चिंताजनक अवश्य है। यह ठीक है कि करोड़ों लोगों को विकास और उन्न्नति की सही दिशा नहीं मिल पायी। इन करोड़ों लोगों को विकास और उन्नति की सही दिशा इस संसदीय लोकतंत्र ने दिखाई लेकिन आजादी के समय जितने कुल लोग देश में निवास करते थे उनके दो गुने लोग आज गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन यापन कर रहे हैं। लोकतंत्र की परिभाषा, लोकतंत्र की आशा और लोकतंत्र की भाषा लोगों का भला नहीं कर पायी। लोकतंत्र की दुल्हन का सत्ता के गलियारों मेंकहीं अपहरण, हो गया और वह आजकल कहां गायब है, ये पता नहीं चल रहा है।

आज संसद एकमत से प्रस्ताव पास कर रही है कि लोकतंत्र में संसद ऊंची है, भीड़ नहीं। यह बात तो सर्वमान्य है कि लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, भीड़ नहीं। फिर इस पर पूरी संसद को सफाई देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यह बात बहुत की विचारणीय है। इसका अभिप्राय है कि कहीं ना कही चूक हो गयी है। पर साथ ही साथ यह भी सोचना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना के शुरू में ही लिखे ये शब्द कि हम भारत के लोग….हमें क्या बताते हैं? इनका अभिप्राय हमें बताया गया है कि संसदीय लोकतंत्र में अंतिम शक्ति जनता में निहित होती है। इसलिए आज संसद की सर्वोच्चता का सवाल करते हुए भी संसदीय लोकतंत्र का इतिहास रचने वाली भीड़ की किसी पुकार पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। हमें लगता है कि पंडित नेहरू के संकल्प के विपरीत हम कहीं विश्राम करने लगे या चैन से बैठ गये। इसलिए सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों के प्रमाद का लाभ उठाकर फिरकापरस्त और जातिवादी शक्तियों ने मैदान पर कब्जा कर लिया। फलस्वरूप विकास में पक्षपात की नीतियां शासन की ओर से बनने लगीं? आजकल इस बात को लेकर जनता में अकुलाहट है, बेचैनी है। सत्ताधारी लोगों को तथा सभी माननीय सांसदों को जनता की इस बेचैनी को समझना चाहिए। सारी जनता अपनी संसद का सम्मान करती है लेकिन बेचैनी की दरारों को भरना भी वह अपना दायित्व समझती है। संसद के 60 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर हम संसद के प्रति सम्मान व्यक्त करें, यह बात जितनी आवश्यक है उतनी यह भी आवश्यकता है कि हम जनगण के मन की कुण्ठाओं का समाधान भी दें। नेहरू जी ने पहली बैठक में ही कहा था कि संसद का सदस्य किसी क्षेत्र विशेष का सदस्य नहीं होता है बल्कि पूरे देश का सदस्य होता है। हम आकलन करें कि आज सांसद के भीतर यह भावना किस सीमा तक है। संकीर्णताओं ने सचमुच विशालता को जकड़ लिया है। इस जकडऩ को तोडऩे का संकल्प हमें आज लेना होगा। संसदीय लोकतंत्र के 60 वर्ष पूर्ण होने पर इन्ही शब्दों के साथ सभी राष्ट्रव्यापी को हमारी शुभकामनाएं। हम सभी की सामूहिक प्रार्थना हो कि हे भगवान हमारे देश का ये गणतांत्रिक स्वरूप दिनानुदिन और भी सुद्रढ़ से सुदृढ़त्तर होता जाए और हम विश्व के सुदृढ़तम लोकतंत्र बन जायें, ऐसा लोकतंत्र जहां सभी के विकास की अपार संभावनाओं को हम मूर्तरूप दे सकें, और जो शोषण, अन्याय और उत्पीडऩ से मुक्त भारत के निर्माण के प्रति दृढ़ संकल्प हो।

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