वे ही बने हैं वर्ण पर्ण, वरण विभु किए;
धारण किए हैं धर्म, मर्म वे ही हर छुए!
हर रण में रथ उन्हीं का रहा, सारथी वे ही;
हर देही चक्र शोध किए, शाश्वत वही!
वे व्योम वायु ज्वाल जलधि भूतल भास्वर;
उर चेतना से चित्र चित्त, बनाए अधर!
साहित्य संस्कृति है रही, उनसे ही उभर;
अध्यात्म ज्ञान गह्वर के, वे ही सुर प्रवर!
राजा व प्रजा वे ही बने, जगत चलाए;
‘मधु’ महत मखे अहं चित्त, नाच नचाए!
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’