मनमोहन कुमार आर्य,
हम इस संसार में उत्पन्न हुए और जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जन्म के समय हमने जब पहली बार आंखे खोली तो हमें अपनी माता, कुछ अन्य लोग व पिता के दर्शन हुए थे। तब हम कुछ जानते व समझते नहीं थे। कुछ समय बाद जब हमें घर से बाहर लाया गया तो हमारी आंखों ने इस सृष्टि को देखना व समझना आरम्भ किया। सूर्य, चन्द्र, नदी, समुद्र, झरने, वन व पर्वत आदि देखकर हम हैरान होते थे कि यह सब कैसे बना है? यह जानने की इच्छा होती थी। हमारे माता-पिता धार्मिक थे और हमें बताया गया कि इस सृष्टि को परमात्मा वा ईश्वर ने बनाया है। हमारे माता-पिता यह नहीं बता सके कि जिस ईश्वर से यह सृष्टि व मनुष्य आदि प्राणी बने हैं वह ईश्वर कैसा है? उन्होंने यह नहीं बताया कि वह ईश्वर जड़ है व चेतन है, अनादि है व सादि है? एकदेशी है व सर्वदेशी है, अजन्मा है व जन्मधारी है? अपने भक्तों का पक्षपात करता है व नहीं करता? हमारे पाप कर्मों को क्षमा करता है या नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका ज्ञान न हमारे माता–पिता ने कराया और न ही हमें पाठशाला, विद्यालय व महाविद्यालय में कराया गया। हमारे माता-पिता पौराणिक थे। वह मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत-उपवास, श्राद्ध, फलित ज्योतिष, छोटे-बड़े का भेदभाव, शुद्ध-अशुद्ध व छुआ-छूत को किसी न किसी रूप में मानते थे। राम, कृष्ण आदि को वह ईश्वर का अवतार मानकर पूजते थे। दुर्गा की स्तुति व नवरात्रों में पाठ आदि क्रियायें भी हुआ करती थी। पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी रचित आरती प्रतिदिन गायी जाती थी। यदा-कदा सत्यनारायण व्रत कथा अपने घर व अन्यों के यहां सुनने का अवसर मिलता था। दुर्गा, लक्ष्मी आदि की आरती भी होती थी। परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तो दसवें दिन शुद्ध और तेरहवीं आदि हुआ करती थी। हम आर्यसमाज के सम्पर्क में न आते तो जो चल रहा था वहीं करते रहते जिस प्रकार से हमारे कुछ सम्बन्धी अब भी करते हैं। उनकी आत्मा इतनी जड़ हो चुकी है कि हम उन्हें कुछ समझायें भी तो उन पर कुछ प्रभाव नहीं होता है। ऐसी ही स्थिति ऋषि दयानन्द जी के समय में भी थी। उनका मन जिज्ञासु मन था। उसमें इन कार्यों के प्रति शंकायें उत्पन्न होती थी। 14 वर्ष की आयु में बालक मूलशंकर (ऋषि दयानन्द का बाल्यकाल का नाम) को शिवरात्री के दिन टंकारा के शिव मन्दिर में अपने पिता कर्षनजी तिवारी के साथ व्रतोपवास तथा रात्रि जागरण करते हुए शिव की पिण्डी वा मूर्ति पर चूहों को क्रीडा करते देख मूर्ति में किसी दैवीय शक्तिं के प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ था। उनकी शंकाओं वा प्रश्नों का उनके पिता व अन्य लोग समाधान नहीं कर सके। उनके प्रश्न ही उनके घर छोड़ने का कारण बने और उन प्रश्नों का समाधान ढूंढते हुए वह योगी व विद्वान बने और अन्ततः एक ऋषि वा महर्षि बन कर उन्होंने समाज, देश व विश्व की सर्वांगीण उन्नति व कल्याण किया।
सृष्टि का रचयिता ईश्वर है। सृष्टि एक रचना है अतः उसका रचयिता होना अनिवार्य है। बिना रचयिता के कोई भी रचना नहीं होती। हमें भोजन करना हो तो भोजन का सभी सामान तथा पाक विद्या में निपुण व्यक्ति की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार से सृष्टि की रचना करने के लिये सृष्टि रचना के लिए आवश्यक सामग्री (उपादान कारण) तथा इससे सृष्टि को बनाने व रचने वाली सत्ता (निमित्त कारण) परमात्मा की आवश्यकता होती है। सृष्टि की रचना व पालन के लिये निमित्त कारण का उपादान कारण के निकट होना आवश्यक है। इस हेतु से परमात्मा का सर्वव्यापक होना आवश्यक है। बिना निमित्त कारण ईश्वर के कोई पदार्थ बन नहीं सकता। वेद, दर्शन, उपनिषद् व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की सहायता से ज्ञात होता है कि संसार में तीन पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि पदार्थ हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवों को जन्म, सुख-दुख व कर्म-फल प्रदाता, सृष्टिकर्ता व प्रलयकर्ता है। यदि अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, अजर व अमर आदि गुणों से युक्त ईश्वर न होता तो यह सृष्टि कदापि नहीं बन सकती थी। अतः इस सृष्टि को बनाने वाला ईश्वर ही है और उसका स्वरूप वही है जैसा कि आर्यसमाज के दूसरे नियम और वेद, उपनिषद्, दर्शन व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में वर्णित हुआ है। ईश्वर एक है और वह अजन्मा है। अजन्मा होने से उसका अवतार व जन्म नहीं हो सकता। मनुष्य जन्म पाप व पुण्य का फल होता है। ईश्वर पाप व पुण्य से रहित है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि ईश्वर का जन्म हो भी सकता तो एक अन्य दूसरे ईश्वर की आवश्यकता होती। इससे ईश्वर में अनवस्था दोष आता। अतः ईश्वर का अवतार व जन्म होना असम्भव है। इससे ईश्वर का जन्म व अवतार कभी नहीं होता।
जीव व जीवात्मा भी एक चेतन सत्ता है। जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात् अल्पज्ञान वाली सत्ता है। यह भी अनादि, अमर, अविनाशी, नित्य, एकदेशी, अजर, जन्म लेकर ज्ञान प्राप्त करने व कर्म करने की शक्ति से युक्त, जन्म-मरण धर्मा, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना-यज्ञ-पितृयज्ञ-अतिथियज्ञ आदि कर्म करने में समर्थ सत्ता है। इसके जीवन का लक्ष्य उपासना व शुभकर्मों द्वारा सुख-दुःख के बन्धनों से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर पूर्णानन्द प्राप्त करना है। मोक्ष प्राप्ति के साधनों का वर्णन वेद, उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। जीवात्माओं की ब्रह्माण्ड में जो संख्या है वह ईश्वर के ज्ञान में तो सीमित है परन्तु मनुष्य के ज्ञान की सीमा व क्षमता की दृष्टि से अनन्त है। यह हमें संसार में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। सभी जीव ईवर की व्यवस्था से जन्म लेते, शुभाशुभ कर्म करते हैं और अपने अपने पाप-पुण्य के अनुसार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होकर पुनर्जन्म लेते रहते हैं। कुछ उपासना व मोक्ष के साधन करके ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं जिनका मोक्ष हो जाता है।
सृष्टि में तीसरी अन्तिम पदार्थ व सत्ता ‘प्रकृति’ की है। यह प्रकृति जड़ एवं अत्यन्त सूक्ष्म है। यह साम्यावस्था में सत्, रज व तम गुणों वाली होती है। सृष्टि उत्पत्ति के समय ईश्वर इस प्रकृति से ही महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, जीवों के सूक्ष्म शरीर जिसमें पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, अन्तःकरण चतुष्टय आदि होते हैं, निर्माण करता है। यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व समस्त ब्रह्माण्ड भी सूक्ष्म कारण प्रकृति का विकार हैं जिसे कार्य प्रकृति व सृष्टि कहते हैं। सृष्टि रचना में विविधता व विशेषताओं को देखकर व उनका ध्यान एवं चिन्तन करने से ईश्वर का ध्यान व ज्ञान होता है। इस विषय को विस्तार से जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास व सांख्य एवं वैशेषिक दर्शन आदि का अध्ययन किया जा सकता है।
यह जानने योग्य है कि ईश्वर चेतन, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है। वह प्रत्येक सर्ग में मनुष्यों को कर्तव्य व अकर्तव्यों का बोध कराने के लिये सत्य वेद-ज्ञान मनुष्यों को देता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वर का सत्य ज्ञान हैं। ऋषि दयानन्द और उनके पूर्व के ऋषियों ने वेद ज्ञान की परीक्षा की और उसे पूर्ण सत्य पाया है। ऋषि दयानन्द ने घोषणा की है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। वेदों का अध्ययन करने पर यह सिद्धान्त सत्य सिद्ध होता है। वेदों के समान संसार में कोई पुस्तक, ग्रन्थ व धर्म ग्रन्थ नहीं है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति सहित मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्यों का समग्र ज्ञान केवल वेद व ऋषियों के ग्रन्थों से ही होता है। सभी मनुष्यों को परम धर्म वेद का स्वाध्याय वा अध्ययन–अध्यापन कर अपने जीवन को सफल करना चाहिये।
ईश्वर कैसा है? इसका विचार करते हैं तो वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार व सर्वशक्तिमान आदि गुणों व स्वरूप वाला ज्ञात होता है जैसा कि पूर्व पंक्तियों में उल्लेख किया गया है। मनुष्य वा उसकी आत्मा का मुख्य कर्तव्य वेदविहित शुभ कर्मों को करना, वेद निषिद्ध कर्मों का त्याग तथा ईश्वर की सन्ध्योपासना, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन, ध्यान, यज्ञ आदि करना है। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष में विश्वास, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, सभी प्रकार की अवैदिक पूजा व हरिद्वार, काशी, पुरी आदि में तीर्थ की भावना ईश्वरीय ज्ञान वेदों की दृष्टि से अकर्तव्य व निषिद्ध कार्य हैं। अपने लेख में ईश्वर की सत्ता की चर्चा कर हमनें उसका संक्षिप्त ज्ञान कराने का प्रयत्न किया है। पाठकों को इसके लिये सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।