सत्ता का यह कैसा खेल?

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नरेश भारतीय

कुछ चुनाव हो गए. कुछ और चुनाव होंगे. बचे हुए कुछ राज्यों में और लोकसभा के लिए. निर्धारित समय पर या समय से पूर्व. हाल में हुए विधान सभा चुनावों के परिणामों में बदलाव के कुछ संकेतक हैं, लेकिन ऐसा निर्णायक परिदृश्य उभरता अभी दिखाई नहीं देता जिसे भविष्यक दिशा का निर्धारक माना जा सके. जो स्थितियां हैं उनमें देश को ऐसा राजनीतिक नेतृत्व चाहिए जो जन अपेक्षाओं के अनुरूप सुशासन और स्थिरता के दिशा निदेशन की क्षमता रखता हो. सत्ता के गलियारों में पहुंच कर अपनी विश्वसनीयता कायम करने की कला जानता हो. ईमानदारी के साथ जनसेवा के लिए कृतसंकल्प हो. ऐसी अपेक्षित क्षमता और संकल्प देश के किस राजनीतिक दल में है इसका सम्यक मूल्यांकन आज देश की वर्तमान स्थितियों को ध्यान में रखते हुए किए जाने की आवश्यकता है. और ऐसे मूल्यांकन की प्रक्रिया देश की जनता ही कर सकती है. उसे अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है और यह सुनिश्चित करने का भी कि वे प्रतिनिधि विधान सभाओं और केन्द्रीय संसद में उसकी आशाओं अपेक्षाओं के अनुसार ही काम करें. अपनी मनमानी न करें और न ही ऐसा अहसास जनता को दें कि एक बार चुने जाकर उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती.

चुनौती दी जा सकती है. हाल में हुए चुनावों और देश की जनता में अपने लोकतंत्रीय अधिकारों के प्रति जागरूकता में निरंतर होती वृद्धि से स्पष्ट हो रहा है. उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों को हमेशा से ही एक कसौटी माना जाता रहा है. बड़ी जनसँख्या वाला प्रदेश रहा है यद्यपि पूर्व मुख्मंत्री मायावती ने इसे बाँट देने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित करवा रखा है. लोकतंत्र में बहुसंख्यक गणित का ही महत्व माना गया है. लेकिन उत्तरप्रदेश को ही केंद्र में नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता वाली एकमात्र उपजाऊ भूमि नहीं माना जा सकता. तदर्थ समूचे देश की भूमि उर्वरा है. नेतृत्व क्षमता से रिक्त नहीं है. उत्साहजनक स्थिति विकास यह भी है कि भारत की राजनीति में युवा नेतृत्व उभर रहा है. उत्तरप्रदेश में मुलायमसिंह यादव के बेटे अखिलेश ने मुख्यमंत्री के नाते कमान संभाली है. एक कुशल राजनीतिक खिलाड़ी के नाते चुनावी लड़ाई लड़ी, जीती और अब सत्ता की बागडोर सम्भालने की चेष्ठा में जुटे हैं. यहाँ तक तो सही लेकिन परीक्षा का समय तो अब शुरू हुआ है.

प्रश्न यह है कि क्या एक भ्रष्ट नेता को सत्ताच्युत करके सत्ता प्राप्त करने में सफलता किसी चयनित जन प्रतिनिधि के अधिकार और कर्तव्य का प्रारम्भ और अंत मान लिया जाए? देश की आम जनता क्या चाहती है? मुख्य रूप से भ्रष्टाचार से मुक्ति. स्वच्छ छवि वाले लोगो के द्वारा स्वच्छ शासन. तो क्या वह स्वच्छ छवि वाले प्रतिनिधियों का ही चयन कर पाई है? यदि बिना किसी के भय और प्रलोभन के कर पाई होती तो अपराधी पृष्ठभूमि के जन प्रतिनिधि विधान सभाओं में न पहुंचे होते. उत्तर प्रदेश के नव निर्वाचित मुख्य मंत्री अपने मंत्रीमंडल के गठन में राजा भैया जैसे कथित महाबलियों के साथ खड़े नज़र न आते. क्या है यह महाबलीपन का हौआ और भारत के लोकतंत्र पर यह हावी क्यों है? क्या यह नेतृत्व से जन अपेक्षाओं की पूर्ति और जनप्रतिनिधित्व की भावभूमि को भंग नहीं करता? आंकड़ों की भीड़ में से खोज कर देश के ऐसे राजनीतिक सत्य का हर बार होता उद्घाटन चुनावी प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करता है. ऐसे सुधार जिनमें किसी के भी चुनाव के मैदान में उतरने की अनुमति दिए जाने से पूर्व उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि की जाँच शामिल हो. इसके लिए चुनाव आयोग को तद्विषयक मापदंड बनाने और लागू करने का अधिकार होना चाहिए.

वंशवाद निश्चय ही भारत के लोकतंत्र का एक निर्द्वंद प्रतीक बनता जा रहा है. नेहरु वंश में उभरीं इंदिरा और फिर उनसे बना वर्तमान गाँधी वंश. राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बने और अब अनेक वर्षों से राहुल गाँधी, जिन्हें प्रधानमंत्री के पद के लिए तैयार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही. राहुल उत्तर प्रदेश में अखिलेश से मात खा गए तो कांग्रेस के अंदर वे दबे स्वर पुन: मुखरित होने लगे जो प्रियंका को आगे लाने के पक्ष में रहें हैं. राहुल ने हाल में हुए चुनावों में पराजय का मुख क्यों देखा उसके कारणों के विश्लेषण भिन्न हो सकते हैं लेकिन यह स्पष्ट है कि नेहरु-गाँधी वंश का प्रभाव अब उतार पर है. यह अपना शिखर पा कर अब खो रहा है. संभवत: कांग्रेस पार्टी के अंदर की जा रही समीक्षा में भी यही अवश्यम्भावी निष्कर्ष नेतृत्व को हतप्रभ किए हुए है. अगला कदम क्या हो, इस पर गंभीरता से विचार न सिर्फ परिवार बल्कि उसके बूते पर अब तक अपनी राजनीतिक सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले शेष कांग्रेसी नेतृत्व के लिए समय की आवश्यकता बन चुकी है.

कैसे कैसे पैंतरे नहीं खेले गए इन विधानसभा चुनावों में. संविधान की भावना के विपरीत मजहब-सम्प्रदाय आधारित आरक्षण देने के वादों में प्रतिस्पर्धा में कौन थे? इस सम्बन्ध में चुनाव आयोग के निर्देश को चुनौती तक देने का हठ किनका था? दलितों को अलग, मुसलमानों को अलग, आरक्षण की राजनीति और जातियों के समीकरण. ‘आम आदमी’ की रट. कैसे हैं ये नारे, वादे और हथकंडे और कब तक अपनाये जाते रहेंगे? विभाजनकारी ये दांवपेच? कब तक देश के लोगों को जोड़ने की बजाए तोड़ने के अभियान चला कर उनका शोषण किया जाता रहेगा? क्या अंग्रेजों से देश को मुक्त कराने के लिए ऐसे ही तरीके अपनाए थे हमारे स्वातंत्र्य वीरों ने? नहीं. तो फिर क्या ये सब जो स्वाधीनोत्तर काल में चुनावों के समय देश में होता है अत्यंत शोचनीय नहीं है? स्वतंत्र भारत में सत्ता का खेल ठीक वैसी विभाजीय राजनीति अपना कर खेला जाना जैसा विदेशी शासकों ने अपनी “बांटो और शासन करो” की कुटिल नीति अपना कर किया था क्या शर्मनाक नहीं है?

हारे या जीते अनेक राजनीतिक धुरंधर अब केन्द्र में सत्ता के गलियारों तक पहुंचने के लिए अपनी अपनी रणनीति निर्धारित करने में जुट रहे हैं. मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार का अंतिम चरण है. उसे हाल में रेल बजट के संदर्भ में झटका तो मिला है लेकिन साथ ही यह आश्वासन भी तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व ने देने में देरी नहीं की कि सरकार को गिरने नहीं दिया जाएगा. सच्चाई यह है कि कोई भी दल अभी लोकसभा के चुनावों के लिए तैयार नहीं है. प्रकटत: कांग्रेस अपने युवराज के साथ पार्टी के जीतने और पुन: सत्ता पाने की अपनी संभावनाओं का लेखा जोखा करने में जुटी है. इस बीच अमरीका की प्रसिद्द टाइम पत्रिका ने २०१४ में होने वाले इन चुनावों पर अपने मूल्यांकन में गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपलब्धियों के आधार पर उनके द्वारा कांग्रेस प्रत्याशी को, यदि तब तक राहुल ही हुए तो, सशक्त चुनौती देने की सम्भावना जताई है. निस्संदेह इसकी सम्भावना बलवती है लेकिन तब तक और क्या मोड़ लेती है देश की राजनीति यह देखना अभी शेष है.

 

 

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