पुलिस के लिये अभिव्यक्ति से ज़्यादा कानून व्यवस्था का महत्व है!
शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा में 15 लाख लोग शामिल हुए या 25 लाख यह बहस का विषय नहीं हो सकता बल्कि देश के सारे नेताओं को मिलकर यह सोचना चाहिये कि ठाकरे में ऐसा क्या था जिससे उनके निधन पर अब तक की सब से अधिक भीड़ से एक बार फिर मुंबई सांस थामकर जहां की तहां रूक गयी। यह अलग बात है कि महाराष्ट्र से बाहर तो क्या मुंबई से बाहर भी ठाकरे का वो जलवा नहीं था जो खासतौर पर मुंबई में था। उनके जीवित रहते तो उनकी आवाज़ पर लब्बैक कहना मजबूरी और डर हो सकता था लेकिन उनकी अंतिम यात्रा पर यूं मुंबई का बंद होना और अभूतपूर्व जनसैलाब का उनकी शवयात्रा में उमड़ना कुछ तो उनके व्यक्तित्व का जादू माना ही जा सकता है।
यह ठीक है कि ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार और एंग्रीयंगमैन कहलाने वाले अमिताभ बच्चन का भी इस मौके पर मातोश्री पर जाकर हाज़िरी लगाना बहुत कुछ बयान करता है लेकिन एक बार संजय दत्त के आतंकवाद के आरोप में फंसने पर कांग्रेसी सांसद रहे अभिनेता सुनील दत्त का ठाकरे के दर पर जाकर मत्था टेकना यह साबित करने को काफी है कि उनके पास ऐसी कौन सी शक्ति थी जिससे वह बड़े बड़े सूरमाओं को अपने सामने नतमस्तक होने को मजबूर करने का दमख़म रखते थे। यह ठीक है कि ठाकरे के एक इशारे पर उन पर जान देने को तैयार रहने वाले उनके लाखों अंधसमर्थक शिवसैनिक पूरी मंुबई को अपने काबू में रखने का हुनर जान चुके थे जिसके सामने पुलिस क्या पूरी सरकार भी तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं कर पाती थी।
ठाकरे से आप सहमत हों या असहमत लेकिन उनकी बेबाकी और साफगोई की दाद देनी पड़ेगी जो आज हमारे लगभग सारे नेताओं में तलाशे से भी नहीं मिलती। बालठाकरे की मराठियों में लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण उनका क्षेत्रवाद के बल पर धरतीपुत्रों को रोज़गार प्राथमिकता के आधार पर सुरक्षित कराना था। यही वजह थी कि पहले उनका कहर मारवाड़ियों पर टूटा फिर बिहारियों पर और उसके बाद दक्षिण और उत्तरभारतीय उनके निशाने पर आते रहे। इससे पहले वामपंथी ट्रेडयूनियनों का सफाया करने के लिये कुछ उद्योगपतियों और कांग्रेसियों ने भी ठाकरे का बाहुबली के तौर पर इस्तेमाल किया लेकिन बाद में ठीक ऐसे ही वे अपने आकाओं को चुनौती देने लगे जैसे तालिबान ने आज अपने जनक पाकिस्तान और अमेरिका का नाक में दम कर रखा है।
इस दौरान शिवसेना से वामपंथी टकराव इतना बढ़ा कि उस समय के सबसे ताक़तवर समझे जाने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दमदार नेता कृष्णा देसाई की दर्दनाक हत्या हो गयी और इसी के साथ यह मिथक टूट गया कि मंुबई की चिमनियों का ध्आं कम्युनिस्टों की मर्जी से निकलता है। एक दौर ऐसा आया जब ठाकरे हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर अपनी छवि मराठा नेता से देशव्यापी बनाने का सपना देखने लगे। उन्होंने राममंदिर आंदोलन को ना केवल खुलकर सपोर्ट किया बल्कि यहां तक कहा कि अगर बाबरी मस्जिद उनके शिवसैनिकों ने तोड़ी है तो उनको इसके लिये पश्चाताप नहीं बल्कि गर्व है। 1992 के दंगों में ठाकरे ने शिवसेना के अख़बार ’दोपहर का सामना’ में जमकर एक वर्ग विशेष के खिलाफ आग उगली और नतीजा यह हुआ कि मुंबई की शांति और दंगों का रिमोट कंट्राले सरकार की बजाये शिवसेना के हाथ में आ गया ।
मजे़दार बात यह रही कि खुलेआम संविधान, अदालत और लोकतंत्र को चुनौती देने के बावजूद आज तक किसी सरकार की हिम्मत नहीं हुयी कि वह ठाकरे के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही कर सके। कानून के हिसाब से देखें तो ठाकरे के खिलाफ ’सामना’ के विशेष लेख ही दो समुदायों के बीच घृणा फैलाना साबित करने के लिये पर्याप्त सबूत थे लेकिन चुनाव आयोग ने उनको उत्तेजक और साम्प्रदायिक भाषण देने के लिये ज़रूर 6 साल के लिये मतदान से वंचित करने का एतिहासिक फैसला सुनाया था। मुंबई दंगों की जांच को बने श्रीकृष्णा आयोग ने ठोस सबूतों और पक्के गवाहों के आधार पर यह रिपोर्ट सरकार को दी थी कि ठाकरे मुसलमानों पर हमला करने और हिंदुओं को आक्रामक बनाने का अभियान चला रहे थे। रिपोर्ट में साफ साफ कहा गया था कि दंगों में ठाकरे के निर्देश पर शिवसैनिकों ने नेतृत्व संभाल रखा था।
आश्चर्य की बात यह है कि इसके बाद ठाकरे को हिंदू हªदय सम्राट कहा जाने लगा। टाइम पत्रिका को दिये अपने चर्चित साक्षात्कार में उन्होंने बिना किसी लागलपेट के अल्पसंख्यकों को खुलकर आपत्तिजनक बातें कहीं लेकिन उनकी पकड़ इसके साथ ही कट्टर मराठियों में दिन ब दिन मज़बूत होती गयी। भारत सरकार के फैसले के बावजूद ठाकरे ने पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच ना होने देने के लिये फिरोज़शाह कोटला मैदान की पिच ही खुदवा दी थी लेकिन उनका इस बार भी बाल बांका नहीं हुआ। आतंकवाद को शिकस्त देने के लिये हिंदुओं को आत्मघाती दस्ते बनाने का आव्हान करने के बाद जब साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और स्वामी असीमानंद जैसे हिंदू आतंकियों का बड़ा मामला सामने आया तो ठाकरे खुलकर उनके पक्ष में बोलते नज़र आये लेकिन पुलिस को सांप सूंघ गया कि वह आतंकवाद को खाद पानी देने का जुर्म करने वाले के खिलाफ कोई मामला थाने में दर्ज करने का साहस दिखाये।
ठाकरे साफ कहते थे कि वह हिटलर के फैन हैं और लोकशाही में नहीं ठोकशाही में विश्वास करते हैं फिर भी चुनाव जीतकर पहले मंुबई महानगर निगम और बाद में भाजपा के साथ गठबंधन करके महाराष्ट्र में पहली साझा सरकार बनाकर उन्होंने सत्ता का सुख चखा। ठाकरे ने खुलकर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का ही विरोध नहीं किया बल्कि दलितों की महत्कांक्षाओं को भी दबारकर रखने की राजनीति की जिसका नमूना अंबेडकर की किताब ‘रिडल्स ऑफ राम एंड कृष्ण’ और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम अंबेडकर पर रखने का जमकर शिवसेना द्वारा किया जाने वाला हिंसक विरोध सामने आया। यह माना जा सकता है कि भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति और देश के अन्य दलों की जाति, क्षेत्र और भाषा की राजनीति की तरह ठाकरे ने भी मराठा राजनीति करके अपने समर्थकों का एक बड़ा समूह तैयार किया था लेकिन भारतीय संविधान समानता, धर्मनिर्पेक्षता और भाईचारे के संदेश के साथ इस तरह के लोगों को हमें अपने अखिल भारतीय आदर्श के तौर पर नायक बनाने की इजाज़त नहीं देता और यही हमारी जनता के बहुसंख्यक वर्ग ने साबित भी किया है।
इसका एक पहलू यह भी है कि फेसबुक पर शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे की मौत पर मंुबई बंद को लेकर एक टिप्पणी और उसको लाइक करना शाहीन और रिनी को इतना महंगा पड़ा कि पुलिस ने आनन फानन में शिवसैनिकों की शिकायत पर उनके खिलाफ झूठी धराओं में मुक़द्दमा कायम कर गिरफ़तार करके जेल भेज दिया। इतना ही नहीं शिवसैनिकों ने शाहीन के चाचा के क्लीनिक पर जमकर तोड़फोड़ भी कर दी। पुलिस ने इन दोनों पर आईपीसी की सैक्शन 505 यानी कि धर्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की धारा तो हटाली लेकिन आईटी एक्ट की धरा 66 ए का सहारा लेकर किसी के मान सम्मान को ठेस पहुंचाना, दुख या पीड़ा पहंुचाना और अश्लील या गलत जानकारी का केस दर्ज कर तत्काल कार्यवाही कर दी। इस धारा मेें लगे आरोप साबित होने पर 3 साल कैद और पांच लाख जुर्माना अदा करना होता है। बाद में तोड़फोड़ के आरोप में नौ षिवसैनिकों भी जेल भेजा गया है।
दिलचस्प बात यह है कि पुलिस की आज तक यह हिम्मत नहीं हुयी कि वह भारतीय दंड संहिता की धरा 505 में बाल ठाकरे को गिरफतार करे क्योंकि इस धारा में किसी धर्मसमूह, नस्ल, रिहाइश, जन्मस्थान, भाषा के आधार पर ऐसा बयान देना जिसमें नफ़रत व अफवाह फैलाई गयी हो शामिल हैं। सबको पता है कि ठाकरे जिस तरह के बयान दिया करते थे उन पर यह धारा बिल्कुल फिट बैठती थी। इस तस्वीर का एक पहलू और भी है कि जिस तरह से मंुबई पुलिस ने असम और बर्मा के नरसंहार के विरोध में मुसलमानों की रैली के बाद भीड़ के हिंसक होने के बावजूद कोई सख़्त जवाबी कार्यवाही ना करके मौके की नज़ाकत को समझा था वैसे ही उसने गलत और अतिश्य होने के बावजूद शिवसैनिकों को शांत रखने के लिये बिना जायज़ वजह और जुर्म के शाहीन और रिनी को गिरफ़तार करके मंुबई की अमनचैन को बचाने का व्यवहारिक लेकिन अवैध कदम उठाने की रण्नीति पर काम किया है।
ना इधर उधर की बात कर यह बता काफ़िला क्यों लुटा,
मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।
बाल ठाकरे की इस अविश्वसनीय लोक प्रियता का एक कारण हिन्दू समाज का वह रोष और असंतोष हो सकता है जो कि उस के साथ को रहे अन्याय व भेद-भाव के कारण निरंतर बढ़ रहा है. बाल ठाकरे ने चाहे कुछ गलत निर्णय लिए हों, पर वे हिन्दुओं के आहत मन को संतोष प्रदान करने वाले अनेक काम करके उनके प्रिय और आदरणीय बन गए. उन्हें श्रधान्जली देने आये लाखों के जन सैलाब ने इसे प्रमाणित किया है. एक मजबूत हिन्दू नेतृत्व की ज़रूरत समाज को आज भी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. इस खालीपन को अब कोई भर पायेगा या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है.
बाल ठाकरे जी से कोई क्या सीखेगा? उनके बारे में सच लिखना भी अब गुनाह हो गया है.
हम भारत के लोग अवतारवाद और व्यक्तिवाद के रसातल में बुरी तरह धसे हैं. क्रांतिकारियों से बाल ठाकरे की तुलना करना महा पाप है. बाल ठाकरे से किसी को कुछ नहीं सीखना है. उनके आदर्श और मूल्य ‘ भय’ की भित्ति पर उकेरे गए थे. उनके अवसान के बाद उनकी सल्तनत का क्या होगा अभी तो यह देखना होगा. जहां तक उनकी फासिस्ट और नस्लवादी विचारधारा का प्रश्न है , वह तो अज़र अमर है.उसका आगमन भी विदेशी आक्रमण कारियों की भोगलिप्सा और राज्य्विस्तार लिप्सा से हुआ था.देशी लोगों ने जब सनातन से हर विदेशी वस्तु,विचार और तकनीक को अपने भारतीय उपमहाद्वीपीय मूल्यों से सांगोपांग करते हुए स्वीकार किया था तो खलनायक को नायक मानने में हम भारतीय कोताही क्यों करने लगे? जीवंत और सभ्य समाज जब देखता है की वह अँधेरी सुरंग की ओर अग्रसर है तो वह अपने कदम खींचने की सामर्थ भी रखता है.मुंबई और महाराष्ट्र के ‘नस्लवादी और व्य्क्तिपूजक लोग जल्दी ही अपनी भूलों का मंथन करेंगे और बाल ठाकरे से नहीं बल्कि -महा प्रतापी वीर शिवाजी,बाल गंगाधर तिलक,गोखले ,विनोबा,साने गुरूजी नानाजी देशमुख अहिल्या रान्गदेकर, बी टी रणदिवे ,एम् के पंध्ये और मधु दंडवते से प्रेरणा लेंगे.
Hamare bharat desh ki purani parmpraa hai ki hm avtaarwad men ykeen karte hain, hm vykti pooja men yakeen karte hain,hm chaahte hain ki museebat anyaay atyaachaar or shoshan khatm ho, iske liye jo sanghrsh kee baat aatee hai to hm chaahte hain kee kranti to ho, Bhagatsingh bhi peda ho kintu padosee ke yahaa. mumbai vaale or khaskar ‘marathi manush’ is tarh ke silsile me hi fit hote hain. Baal thakre se kisee ko kuchh nahin sekhna hai. seekhna hai to Tilak se seekho,saane guruji se sekho or mahaan kranteekari veer Shivaji se seekho….
बड़ी साफगोई और खुले तौर पर बिना किसी लाग लपेट के निष्पक्ष रूप में पूरी बात कह दी – बेशर्मों के लिए यह कोई मायने नहीं रखता लेकिन जूते तो मार ही दिए – ईश्वर हम सब को सद्बुद्धि दे |