आगामी 3 मार्च तक पंजाब, उतरांचल, उत्तर प्रदेश, गोवा और मणिपुर आदि पांच राज्यों के चुनाव में मतदान संपन्न हो चुके होंगे और 4 मार्च को मतगणना करने के पश्चात् नतीजे घोषित कर दिए जायेंगे. यूँ तो इन सभी राज्यों के चुनाव वहाँ की जनता और राजनैतिक पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण हैं परन्तु सारे देश की निगाहें उत्तर प्रदेश पर लगी रहेंगी. उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावी नतीजे ही २०१४ में होने जा रहे आगामी लोकसभा के आम चुनावों की दिशा और दशा निर्भर करेगी. उत्तर प्रदेश के चुनावी अखाड़े में वैसे तो चार प्रमुख राजनैतिक दल ही अपना भाग्य अजमा रहे हैं परन्तु देश की निगाहें मायावती की बसपा और कांग्रेस पर ही टिकी हैं. प्रबुद्ध पाठक गण इसका ऐसा अर्थ कदाचित न निकालें कि यही दोनों दल ही पहले और दूसरे स्थान पर आने वाले हैं. यहाँ मेरा अभिप्राय यह है कि आरोप प्रत्यारोप के वार यूँ तो सभी दल एक दूसरे करेंगे पर परन्तु इस चुनावी युद्ध में प्रमुख रूप से बसपा और कांग्रेस ही एक दूसरे से भिड़ते रहेंगे जैसा कि अभी वर्तमान में चल रहा है.
उत्तर प्रदेश का राजनैतिक परिदृश्य देश के अन्य राज्यों से कुछ अलग ही है. यहाँ नाना प्रकार के समीकरण काम करते हैं और जो कभी भी किसी भी कारण से अपना पाला बदल जाते हैं. कुछ हलकों में तो यह परिस्थिति इतनी गंभीर समस्या पैदा कर देती हैं कि एक हाथ दूसरे हाथ पर भी विश्वास करने में स्वयं को असमर्थ पाता है. इस बार यहाँ चुनाव भी चौकोने होने जा रहे हैं. सत्ता के इस संघर्ष में मुख्य प्रतिद्वंदी बसपा, समाजवादी, भाजपा और कांग्रेस ही हैं. यह दीगर बात है कि अंत में सिंघासनारूड़ होने के लिए छोटे दल और निर्दलीय ही काम आएंगे. कौन विजयी होगा और किसको अपनी लाज बचानी कठिन हो जायेगी इस पर चर्चा करने का समय तो अभी नहीं आया है फिर भी विभिन्न दलों की वर्तमान स्थिति पर एक नजर डालना आवश्यक है. अभी हाल में ही एसोसिअशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ( एडीआर ) ने उत्तर प्रदेश के २००७ के चुनाव में निर्वाचित हुए ४०३ विधायकों में से ३९५ द्वारा चुनाव पूर्व नामांकन-पत्र के साथ जमा किये गए शपथ पत्र का विश्लेषण करने पर पर चौंकाने वाले तथ्य देखे गए. जहाँ ३९५ में से १३९ विधायकों पर अपराधिक मामले दर्ज हैं वहीँ इस इस गरीब राज्य का नेतृत्व १२५ करोडपति विधायकों के जिम्मे राज्य की गरीन जनता ने सौंप रखा है. यदि दलों के हिसाब से देखें तो अपराधिक छवि और करोड़पति विधायक लगभग सभी दलों में समान रूप से विद्यमान हैं, हाँ संख्या और प्रतिशत के हिसाब से कहीं कम तो कहीं अधिक कहे जा सकते हैं.
जहाँ तक २००७ के चुनाव में प्राप्त सीटों और हासिल किये गए मतों के प्रतिशत का है तो ३०.४३ प्रतिशत मत लेकर मायावती की बसपा ने २०६ विधान सभा के क्षेत्रों में विजय प्राप्त कर के स्पष्ट बहुमत हासिल किया था. मायावती की इस विजय के पीछे मतदाताओं में अनिश्चितता और बिखराव ही मुख्य कारण रहा. जातीय और सम्प्रदायों के राजनैतिक समीकरणों, वोट बैंक पर एकाधिकार की समाप्ति और बिखराव के चलते मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला यहीं काम कर गया. तथाकथित दलितों को बांध कर रखने के साथ-साथ मायावती ने ब्राह्मणों और मुस्लिमों के वोट प्राप्त कर अपने मतों का प्रतिशत ३०.४३ तक पहुंचा दिया था जो उनके सत्ताभिषेक का कारण बना. इसके साथ ही समाज में सबसे बड़ी बात यह रही कि एक दूसरे की धुर विरोधी जातियों के करीब आने और सद्भावना और सामंजस्यता का सन्देश भी समाज को गया. इसके ठीक विपरीत कुल ५४.७० प्रतिशत मत लेकर कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक दल, समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी आदि यह चार दल मात्र १८१ सीटें ही प्राप्त कर सके. इनमें सबसे दयनीय दशा तो कांग्रेस की रही जो मात्र ८.६० प्रतिशत मत प्राप्त कर २२ क्षेत्रों में ही अपनी विजय पताका फहराने में सफल हो सकी थीं.
इस बार २५० सीटों तक पर विजय हासिल कर अपने दम पर सरकार बनाने का दावा यूँ तो सभी दल कर रहे हैं परन्तु यह दावे खोखले हैं यह भी सभी जानते हैं. सरकार बनाने की प्रक्रिया तो चुनाव संपन्न होने के पश्चात् ही प्रारम्भ होगी अभी तो प्रश्न है कि फरवरी माह में होने वाले विधान सभा के चुनावों में किसको कितनी सीटें प्राप्त होती हैं. अब जबकि चुनावों में बहुत अधिक समय नहीं रह गया है तो ऐसी किसी बयार के बहने की भी सम्भावना क्षीण ही है जिसके कारण पक्ष या विपक्ष के भाग्य में कोई छींका फूट जाये. बहुत ही असमंजस की स्थिति है. उत्तर प्रदेश का मतदाता किस ओर जायेगा और वहाँ की राजनीति क्या करवट लेने वाली है, सब धुंधलके में छिपा है कुछ भी स्पष्ट नहीं है. हाँ, निष्पक्ष पत्रकारिता के अपने अनुभव से इतना तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस के महा मंत्री राहुल गाँधी जिन्होंने उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार को हराने के लिए दिन रात एक किया हुआ है, मायावती के मतों का प्रतिशत कम करने में अवश्य ही सफल होंगे, परन्तु उनके दल को उसका अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा. उत्तर प्रदेश की सियासत कि यह वास्तविकता है कि चुनाव के टिकटों के वितरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही नेताओं व उनके समर्थकों का एक दल से दूसरे दल में आना-जाना शुरू हो जाता है. जिसको सुबह इस दल से निकला जाता है साँझ होते-होते दूसरे दल में उसके स्वागत के समाचार मिलने लगते हैं. आचार-विचार और कार्यकलाप कुछ भी हों, जीतने की सम्भावना वाले धुर विरोधी को भी गले लगाने को सभी दल आतुर हैं. सतही समझौते और गठबन्धनों के चलते मतों के जुड़ने और खिसकने की प्रक्रिया भी इसके साथ चल पड़ती है. यानि कुछ प्रतिशत नए मत मिलेंगे और कुछ प्रतिशत पुराने खिसक जाते हैं. ऐसी परिस्थिति न केवल अचंभित करती है बल्कि जीत को हार और हार को जीत में बदलने में भी अपना कमाल दिखा जाती है. कुछ ऐसी ही परिस्थिति का निर्माण उत्तर प्रदेश में हो चुका है. मायावती की बसपा द्वारा २००७ में प्राप्त किये गए ३०.४३ प्रतिशत मतों में कमी लाने में अन्य दलों के साथ-साथ विशेष तौर से कांग्रेस के राहुल गाँधी का बहुत बड़ा हाथ साबित होगा, परन्तु बसपा से खिसकने वाले मतों पर केवल कांग्रेस का ही अधिकार होगा ऐसा मानना स्वयं को धोखे में रखने वाली बात होगी. मेरा आंकलन तो यह है कि इस लड़ाई में यदि बसपा के पुराने ८ से १० प्रतिशत मत खिसक भी जाते है तो लगभग ४ से ६ प्रतिशत वह नए मत हासिल करने में भी कामयाब रहेगी जिससे सुई १५० के आस-पास ही रहने वाली है. कुल मिलाकर इस चुनाव में मतों का स्थानांतरण अधिक होगा और बहुत ही कम मतों से हार-जीत तय होगी. इन सब के बीच दिलचस्प बात तो यह है कि मुख्य टकराव बसपा और कांग्रेस में होगा परन्तु तीसरे और चौथे स्थान पर भाजपा या कांग्रेस ही रहेंगी. यूँ तो कांग्रेस ने चुनावों की घोषणा से ठीक पहले जाट बाहुल्य पश्चिम उत्तर प्रदेश के अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल से समझौता कर अपनी स्थिति सुधारने का प्रयत्न तो किया है, परन्तु इसका कोई विशेष लाभ उसे मिलेगा ऐसा लगता नहीं. नवम्बर माह में किये गए एक सर्वेक्षण की माने तो अलग-अलग चुनाव लड़ने पर जहाँ इस दोनों दलों को कुल १९ प्रतिशत मतों पर क्रमशः ६८ और १० सीटें मिलने की सम्भावना लगती है वहीँ मिल कर लड़ने पर मतों का प्रतिशत तो वही १९ ही रहता है परन्तु सीटों में अवश्य ही इजाफा होता है जो कि बढकर क्रमशः ७० और १५ हो जाती हैं. यानि कि यदि परिस्थितियाँ वही रहें तो कांग्रेस को २ और रा.लो.दल को ५ सीटों का लाभ होता दिखता है.
जहाँ तक समाजवादी पार्टी और भाजपा का सवाल है यह दोनों ही दल पिछले २००७ के चुनावों से बेहतर ही प्रदर्शन करेंगे और ९७ और ५१ से अधिक ही सीटें प्राप्त करने में सफल होंगे. वैसे भी ७ चरणों में संपन्न होने वाली मतदान प्रक्रिया २ फरवरी से प्रारम्भ होकर २८ फरवरी तक संपन्न होगी और तब तक घटनाक्रम में अनेक बदलाव भी संभव हैं. राजनैतिक दलों को इस बार एक-एक सीट पर अलग-अलग रण नीति बनाकर ही अपना बेड़ा पार लगाना होगा और जो इस दौड़ में चूक जायेगा उसको पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलनेवाला क्योंकि अगली गाड़ी 2017 में आयेगी . स्पष्ट बहुमत तो किसी भी दल को नहीं मिलनेवाला. नतीजे कुछ भी हों, संघर्ष बसपा और कांग्रेस में ही होगा. अन्य तो केवल मतों के इधर-उधर स्थानान्तरण में ही लाभान्वित होंगे. यदि बसपा और कांग्रेस के परम्परागत मतों का अधिक स्थानांतरण होता है तो भाजपा के दूसरे नंबर पर आने की सम्भावना बढ़ सकती है.
जहाँ तक मिलकर सरकार बनाने का प्रश्न है तो इसपर चर्चा करने का अभी समय नहीं आया परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि भाजपा-कांग्रेस अभी नहीं और बसपा-समाजवादी कभी नहीं.
संघर्ष मुख्य रूप से सपा बसपा के बीच होगा जिसमे सपा आगे रहेगी बस इतना हो सकता है की कांग्रेस की सीटें बढ़ jayengee.
सूक्ष्म अवलोकन और विश्लेषण से भरा लेख।
जब कोई भी प्रत्याशी सबेरे एक पक्ष से निकल कर संध्या को दूसरे पक्ष में पहुंच जाता है।
दिशाएं बदलता बहता पवन कौनसी दिशामें बहेगा? कौन कह सकता है?
फिर भी लेखकने जो, विश्लेषण किया है, आजकी घडी में सही लगता है।
चुनाव जीतकर भी पक्ष क्या करेंगे?
शासन में टिके रहने का सतत प्रयास?
और दूबारा चुनाव जीतने की तैय्यारी?
फिर देशका कल्याण कैसे, सम्भव है?
कुर्सी पाने, और मिली कुर्सी सम्भालने में ही सारी शक्तियां, लग जाती हैं।
चार दिन की ज़िन्दगी,
दो दिन गए, कुर्सी पाने में,
दो दिन उसे टिकाने में।
भारत का कल्याण कब? और कौन करेगा?
राह देखिए कल्कि अवतार की।
दलबदल पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
सिद्धान्त विहीन राजनीति, कैसे देशका भला करेगी?