हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?

बिहार के एक स्कूल में मिड डे मील की वजह से हुई बच्चों की मृत्यु ने बहुत दुखी कर दिया है| यदि ये कोई साजिश है तो बहुत ही घृणित और अक्षम्य है| यदि ये लापरवाही है , जैसी कि अन्य कई जगहों पर अनेकों बार हुई है तब भी जानबूझकर की गयी ह्त्या से ज्यादा सजा के लायक है| पूंजीवादी समाज में सरकारों को देश के सभी लोगों के लिए शिक्षा, नौकरी, रोजगार, काम, देने के बजाय मुफ्त में खाना, चप्पलें, साईकिलें, बीमार गायें, मरियल बकरी बांटना पुसाता है| लेपटाप से लेकर पोर्टेबल कलर टीव्ही तक क्या राज्यों की सरकारों ने नहीं बांटा है| इस तरह की योजनाओं से इन राजनीतिक दलों के पास एक ऐसा तबका हमेशा के लिए तैयार हो जाता है, जो उनके रहमों करम और इशारों पर नाचने के लिए तैयार रहता है| यही उनका वोट बैंक है और यही उनका समर्थक वर्ग| यह एक राजनीतिक दल से दूसरे के पास शिफ्ट हो सकता है, मगर रहता हमेशा उनके रहमोकरम पर ही है| दान पे जीने वाला|

दान का अपना मनोविज्ञान होता है| विशेषकर जब दान को प्राप्त करने वाला गरीब और वंचित हो या पंडित पुजारी हो तो , दोनों को दिए गए दान की गुणवत्ता और ग्राहता में यह मनोविज्ञान और भी साफ़ होकर दिखाई देता है| गरीबों को जब दान देने की बारी आती है तो करोडपति के घर से भी फटे और फटे न भी हों तो पुराने कपड़े ही बाहर निकालेंगे| घर के नौकरों तक को, जोकि घर के अभिन्न अंग होते हैं , हमेशा सुबह का खाना शाम को, और रात का खाना सुबह ही दिया जाता है| यहाँ तक की कई घरों में मैंने देखा है कि कम से कम तीन चार दिनों तक फ्रिज में पड़े रहने के बाद खाने को माँगने आने वाले भिखारियों या घरेलु नौकरों को देते हैं| यह मानकर चला जाता है की ऐसे लोग सब कुछ पचा लेते हैं और जो वस्तुएं सामान्यतया दानकर्ता के लिए अखाद्य होती हैं , वे गरीब तबके के लोग खा भी लेते हैं और उन्हें नुकसान भी नहीं होता|

mid day mealदान का यह मनोविज्ञान कुछ व्यक्तियों,   परिवारों तक सीमित नहीं रहता| ये समाज से होते हुए सरकारों की मनोदशाओं और सरकार की योजनाओं को अमल का जामा पहनाने वाली पूरी मशीनरी पर भी गहरा और व्यापक असर डालता है| योजना आयोग जब यह कहता है कि एक आदमी 26 रुपये प्रतिदिन में अपना भरण पोषण कर सकता है तो मनोविज्ञान गरीब को उसी लायक समझने का है की इसे भर पेट और अच्छे भोजन की आवश्यकता ही कहाँ है? एक मंत्री, एक सरकारी अधिकारी या कोई नेता जब मात्र 5 रुपये में अन्नपूर्णा योजना के तहत दिए जाने वाले दाल-चावल योजना को लेकर अपनी पीठ थपथपाता है तो उसके पीछे भावना यही रहती है कि यह तो सरकार की मेहरबानी है, जितनी मिले उतनी ही बहुत है| यही बात सरकार की मिड डे मील योजना में भी साफ़ झलकती है|

चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्य की सरकारें, उनके प्रशासन का काला चेहरा यदि देखना है तो सस्ते में उपलब्ध कराये जा रहे खाद्यानों में, मिड डे मील जैसी योजनाओं में, गर्भवती महिलाओं के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों में, गरीबों के लिए लगाए गए नेत्र चिकित्सा शिविरों में, मनरेगा जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार में, उस काले चेहरे को देखा जा सकता है| अधिकतर मामलों में सस्ते में दिए जाने वाला अन्न सडा गला और न खाने लायक होगा, मुफ्त में दिया जाने वाला भोजन पूरी तरह घटिया सामानों से बना होगा और ठेकेदार से लेकर किसी भी अधिकारी और मंत्री या नेता के जेहन में ये बात नहीं होगी की इसे खाने वाले इंसान होंगे| बस किसी हादसे के बाद ही हायतौबा मचेगी और फिर कुछ दिनों बाद सब जैसा का तैसा हो जाएगा| लालच पर आधारित व्यवस्था में दान पर जीने वालों को इंसान नहीं समझा जाता, यही सबसे बड़ा सच है| इस व्यवस्था ने हमें भी यही सिखाया है| हम भी गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?

अरुण कान्त शुक्ला

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अरुण कान्त शुक्ला
भारतीय जीवन बीमा निगम से सेवानिवृत्त। ट्रेड यूनियन में तीन दशक से अधिक कार्य करता रहा। अध्ययन व लेखन में रुचि। रायपुर से प्रकाशित स्थानीय दैनिक अख़बारों में नियमित लेखन। सामाजिक कार्यों में रुचि। सामाजिक एवं नागरिक संस्थाओं में कार्यरत। जागरण जंक्शन में दबंग आवाज़ के नाम से अपना स्वयं का ब्लॉग। कार्ल मार्क्स से प्रभावित। प्रिय कोट " नदी के बहाव के साथ तो शव भी दूर तक तेज़ी के साथ बह जाता है , इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि शव एक अच्छा तैराक है।"

3 COMMENTS

  1. श्री अरुण कुमार शुक्ल के इस आलेख के प्रति विवर की उपेक्षा और टिपण्णी का अभाव हमारी असली मानसिकता प्रदर्शित करता है.

  2. बात तो आपने पते की कही,पर इसे सुनेगा और समझेगा कौन? अगर अप इन सब पर सोचना शुरू करेंगे तो -पता चलेगा क़ि आजादी के बाद से आज तक हम यही तो करते आये हैं. आजादी के समय और उसके बाद कुछ समय तक न कोई प्राइवेट स्कूल था और न गरीबों और अमीरों के बच्चों के पढने के अलग संस्थान. मुझे आज भी याद है क़ि जब मैं १९५८ संत जेवियर कालिज में पढने गया था,तो वहां करीब करीब सब बच्चे उन्हीं स्कूलों से आये हुए थे,जिनकी आजकल कोई गिनती ही नहीं है. कुछ अपवाद अवश्य थे,जो कान्वेंट से आये थे,पर उनकी गिनती नगण्य थी. उस समय प्राइवेट स्कूल के नाम से मैं विकास विद्यालय को जानता था वहां से भी दो लड़के थे. कहने का मतलब यह है क़ि यह शिक्षा संस्थानों क़ि विषमता जो सामने आई ,वह आजाद भारत की देन है.. अंग्रेजी का भी बोलबाला जो बढा, वह भी इन्हीं दिनों की उपज है. भ्रष्टाचार के आधार पर एक नया तबका भी इन्हीं दिनों पनपने लगा था. आज भ्रष्टाचार के साथ साथ ये विषमताएं भी अपनी चरम सीमा पर है. आवश्यकता है धारा के इस रूख को मोड़ने की.. जब तक हम फिर से वहीँ से नहीं आरम्भ करेंगे ,जहां से हमने इसे छोड़ा था यानि फिर से उन स्कूलों को वैसा ही बनाना,जैसा कि वे प्रारंभ में थे.सरकारी स्कूलों में न शिक्षकों के योग्यता की कमी है न उनका वेतन मान प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों से कम है,तो क्या कारण है कि वहां का स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है?अमेरिका में बिरले कि कोई बच्चा प्राइवेट स्कूल में पढता होगा.वहां सब बच्चे बारहवीं तक नगर निगम के स्कूलों में मुफ्त शिक्षा प्राप्त करते हैं. हम इन सब हादसों या साजिशों पर घड्याली आंसूं बहाने के बदले क्यों नहीं अपने देश में भी वैसी व्यवस्था कायम करते?

    • आदरणीय सिंह साहब , आपका कथन एकदम उचित है| सारा भेदभाव शिक्षा संस्थानों से हे शुरू होता है|और, वहां भी एकदम हितालार्शाही है, सरकारों के नुमाईंदे पैसा खाकर सब चलने देते हैं| आपके कमेन्ट के लिए धन्यवाद|

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