जम्मू कश्मीर में कौन रह सकता है ?

कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

जम्मू कश्मीर में फिर बबाल मच गया है । कश्मीर घाटी उग्र हो रही है । श्रीनगर में रह रहे गिलान वाले सैयद अली गिलानी अत्यन्त ग़ुस्से में है । जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ़्रंट के यासीन मलिक के क्रोध का भी पारावार नहीं है । दोनों मीरवायज, जामा मस्जिद वाले और खानगाह-ए-मौला वाले , मुट्ठियाँ भींच रहे हैं । उनका कहना है कि 1947 में पश्चिमी पंजाब से जो शरणार्थी अपना सब कुछ गँवा कर जम्मू में चले आए थे , उन्हें प्रदेश की सरकार डोमिसायल प्रमाण पत्र क्यों दे रही हैं ? आख़िर ये पंजाबी शरणार्थी कौन हैं जिनके डोमिसायल प्रमाण पत्र पर कश्मीर घाटी की गिलानी बिरादरी इतना चिल्ला रही है ? १९४७ में हुए पंजाब विभाजन के दौरान पंजाब के स्यालकोट ज़िला से 5764 परिवार मुसलमान बनने की बजाए समीप के जम्मू प्रान्त में आ गए थे । ये परिवार जोड़ियाँ से लेकर कठुआ तक के सीमान्त इलाक़े में बस गए । ये लोग प्राय दलित समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं । उन दिनों बाबा साहिब आम्बेडकर ने भी आग्रह किया था कि दलित समुदाय के लोग पाकिस्तान छोड़ कर शेष बचे भारत में आ जाएँ । पाकिस्तान इन लोगों से अभी भी दुखी है क्योंकि ये लोग सीमान्त पर एक प्रकार से हिन्दुस्तान के पहरेदार का काम करते हैं । अब इनकी जनसंख्या लगभग अढाई लाख हो चुकी है ।
इन लोगों को प्रदेश में रहते हुए लगभग सात दशक बीत चुके हैं । राज्य सरकार इन्हें राज्य के स्थाई निवासी का प्रमाणपत्र देने के लिए तैयार नहीं है । इस प्रमाणपत्र के अभाव में इन्हें राज सरकार से कोई भी सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती । वे जम्मू कश्मीर के निवासी होते हुए भी अधिकार विहीन जीवन व्यतीत कर रहे हैं । वे प्रदेश में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते । अपने बच्चों को प्रदेश के इंजनियरिंग व मैडीकल कालिजों में पढ़ा नहीं सकते । यदि वे कहीं देश के किसी अन्य प्रान्त से डिग्री लेकर आ जाते हैं , तब भी वे सरकारी नौकरी नहीं कर सकते । वे विधान सभा या स्थानीय निकाय के चुनावों में प्रत्याशी बनने की बात तो दूर , वे इन चुनावों में वोट भी नहीं दे सकते । एक प्रकार से वे प्रदेश में सत्तर साल से रहते हुए भी सही शब्दों में अभी तक शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं । इतना ही नहीं , वे पश्चिमी पंजाब से आए हैं , इसलिए सरकार ने उन्हें कोई मुआवज़ा या वैकल्पिक निवास स्थान भी मुहैया नहीं करवाए । पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थियों को पाकिस्तान में छोड़ी गई सम्पत्ति का मुआवज़ा दिया गया और रहने के लिए मकान दिया गया । हिन्दुस्तान से पाकिस्तान चले जाने वाले लोग अपने पीछे जो मकान छोड़ कर गए थे , वे इन पंजाबी शरणार्थियों को आवंटित किए गए । लेकिन दुर्भाग्य से जो पंजाबी शरणार्थीं जम्मू कश्मीर में बस गए उन के साथ सौतेला व्यवहार किया गया और उन्हें अनाथ छोड़ दिया गया । जम्मू से बहुत से मुसलमान पश्चिमी पंजाब में चले गए । उनके ख़ाली पड़े मकानों को भी प्रदेश । क़रार ने इन पंजाबी शरणार्थियों को आबंटित नहीं किया गया । उन्होंने बडी मुश्किल से इन मकानों को प्रदेश । क़रार से किराए पर लिया और आज सत्तर साल के बाद भी वे इनमें किराएदार की हैसियत से ही रह रहे हैं । इतना ही नहीं , ये पंजाबी शरणार्थीं जर्जर होते जा रहे इन मकानों की मुरम्मत भी नहीं करवा सकते क्योंकि वे इसके मालिक नहीं है । वे इसमें किराएदार की हैसियत से भी रह पाएँगे या नहीं इसकी भी कोई गारंटी नहीं है क्योंकि प्रदेश सरकार बीच बीच में ऐसे क़ानून बनाने का प्रयास करती रहती है कि इन स्थानों से जो मुसलमान १९४७ में पाकिस्तान चले गए थे , वे फिर वापिस आ सकते हैं और अपनी पुरानी सम्पत्ति उन्हें लौटा दी जाएगी । इस प्रकार इन पंजाबी शरणार्थियों के सिर पर सदा बेघर हो जाने की तलवार लटकी रहती है । सबसे ज़्यादा कष्ट की बात तो यह है कि ज़्यादातर पं पंजाबी शरणार्थी अनुसूचित जातियों के निम्न व निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं , जो आर्थिक लिहाज़ से ज़्यादा सम्पन्न नहीं हैं ।
प्रश्न किया जा सकता है कि जब इन पंजाबी शरणार्थियों के साथ जम्मू कश्मीर सरकार ने इस प्रकार का सौतेला व्यवहार किया तो वे रियासत छोड़ कर अन्य स्थानों पर क्यों नहीं चले गए ? इसका भी उत्तर इनके पास है । इनको लगता था उस समय के राजनैतिक नेतृत्व के कारण पंजाब का विभाजन हुआ था । नेहरु उसके मुखिया थे । इन पंजाबी शर्णार्थियों का मत था कि राजनैतिक नेतृत्व की कमज़ोरी के कारण उन्हें अपना पुश्तैनी घर बार छोड़ना पड़ा है । इसलिए यह नेतृत्व कम से कम अब शरणार्थी बन चुके पंजाबियों को अनाथ नहीं छोड़ेगा । उस समय कोई कैसे कल्पना कर सकता था कि भारत सरकार इन पंजाबी शरणार्थियों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करेगी ? यह कल्पना भी कैसे की जा सकती थी कि इन शरणार्थियों को रियासत का वाशिन्दा तस्लीम नहीं किया जाएगा ? 26 जनवरी 1950 को भारत का नया संविधान बना । उसमें भी कोई प्रावधान नहीं था कि पंजाबी शरणार्थियों के एक हिस्से के साथ ग़ैर इन्सानों व्यवहार किया जाएगा । रियासत में स्थाई वाशिन्दे की परिभाषा वाला क़ानून था लेकिन उसमें भी स्थाई वाशिन्दे बनने का रास्ता खुला रखा गया था । वैसे भी उन असाधारण परिस्थितियों में उस क़ानून का कोई अर्थ नहीं रह गया था । नेहरु के आग्रह और योजना/षड्यन्त्र से शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर रियासत का प्रधानमंत्री बना दिया गया । नेहरु और शेख़ की सरकार ने भी कोई संकेत नहीं दिया कि जम्मू कश्मीर में आने वाले इन शरणार्थियों को दुश्मन की श्रेंणी में रखा जाएगा । पंजाबी शरणार्थियों के लिए यह बंम्ब विस्फोट तो तब हुआ जब पूरे दस साल बाद १९५७ में रियासत की सरकार ने भारत के संविधान से अलहिदा एक नया संविधान लागू कर दिया । इस तथाकथित संविधान ने ख़ुलासा किया कि महाराजा हरि सिंह के स्थाई निवास के लचीले क़ानून को बदल कर उसको नए तरीक़े से पारिभाषित कर दिया गया । जम्मू कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद ६ के अनुसार जम्मू कश्मीर का स्थाई निवासी वही माना जाएगा जो १४ मई १९५४ को या तो प्रथम या द्वितीय श्रेणी का स्टेट सब्जैक्ट हो या फिर किसी ने इस तिथि तक रियासत में क़ानूनी तरीक़े से अचल सम्पत्ति का मालिक हो और दस साल से ( यानि १४ मई १९४४) से रियासत में रह रहा हो । अर्थात जो १९४४ से बाद रियासत में अंचल सम्पत्ति का मालिक बना हो वह राज्य का स्थाई निवासी नहीं माना जा सकता । अर्थ स्पष्ट है कि १४ मई १९४४ के बाद जम्मू कश्मीर रियासत के दरबाजे सदा सर्वदा के लिए बन्द कर दिए गए , लेकिन यह सूचना १९५७ को जारी की गई । और यहाँ तक प्रथम या द्वितीय श्रेणी के स्थाई निवासी का ताल्लुक़ था , उसको भी स्पष्ट कर दिया कि १९२७ के क़ानून के अनुसार जो इस श्रेणी के स्थाई निवासी रहे होंगे , उनके अतिरिक्त अब किसी को स्थाई निवासी नहीं माना जाएगा ।
अब यह भी देख लिया जाए कि प्रथम श्रेणी का स्थाई निवासी किसे माना गया है ? वह व्यक्ति या उसकी संतानें जो १८४६ को जम्मू कश्मीर में रहता था । या फिर वह जो १८८५ तक जम्मू कश्मीर में बस गया था । द्वितीय श्रेणी का स्थाई निवासी वह होगा जो १९११ तक रियासत में स्थाई रुप से बस ही न गया हो बल्कि उसने रियासत में अचल सम्पत्ति भी प्राप्त कर ली हो । कुल मिला कर क़िस्सा यह कि १९४४ के बाद रियासत के दरवाज़े सभी के लिए बन्द हो गए । यदि इसकी घोषणा १९४७ में ही कर दी जाती तो पहुँचनी पंजाब से रियासत में आने वाले ये शरणार्थी शायद पूर्वी पंजाब में चले जाते या फिर देश के दूसरे हिस्सों में जाकर बस जाते । लेकिन उन्हें यह बात १९५४ में बताई गई ।सब उनके लिए अपने ही देश में दूसरी बार शरणार्थी बनना न तो व्यवहारिक रूप से संभव था और न ही मनोवैज्ञानिक रूप से ।
इसके अनुसार रियासत का स्थाई वाशिन्दा वहीं माना जाएगा जो या तो १९४४ या उससे पहले से रियासत में रह रहा हो , या फिर उसके माता पिता १९४४ से पहले रह रहे हैं । क्रियात्मक रुप से इसका अर्थ यह हुआ कि जम्मू कश्मीर रियासत में जो लोग १९४४ से पहले से रह रहे थे , उनकी संतानों के नाम रियासत का पट्टा लिख दिया गया । क्या जम्मू कश्मीर रियासत कोई क्लब है जिसकी सदस्यता उसके सदस्यों और उनकी संतानों को अनन्त काल तक के लिए दे दी गई है और अब उसकी सदस्यता , जब तक सूरज चान्द रहेगा , तक के लिए बन्द कर दी गई है । । अब प्रश्न यह उठता है कि इस क्लब की सदस्यता के लिए कट आफ डेट १९४४ का निर्धारण किस आधार पर किया गया ? जम्मू कश्मीर रियासत को महाराजा हरि सिंह ने भारत की सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने का काम २६ अक्तूबर १९४७ को किया था । जम्मू कश्मीर का नया संविधान रियासत में २६ जनवरी १९५७ को लागू किया गया था , उसी में स्थाई निवास को पारिभाषित किया गया था । लेकिन उसे भी कट डेट नहीं माना गया ।
लेकिन असली सवाल और गहरा है । आख़िर जम्मू कश्मीर सरकार इस बात पर क्यों बजिद है कि १९४४ के बाद रियासत में किसी को रहने का अधिकार नहीं है ? इसका उत्तर सरकार तो नहीं लेकिन हुर्रियत कान्फ्रेंस से लेकर नैशनल कान्फ्रेंस तक दे रही है । उनका कहना है कि इससे से प्रदेश का जनसांख्यिकी अनुपात बदल जाएगा । यानि जम्मू कश्मीर राज्य जो अभी मुस्लिम बहुल राज्य है , उसमें मुसलमानों की संख्या कम होने लगेगी । यदि कोई प्रदेश मुस्लिम बहुल है तो उसको मुस्लिम बहुल बनाए रखना क्या सांविधानिक दायित्व के अन्तर्गत आता है ? फिर तो हिन्दुस्तान के किसी भी प्रान्त में मुसलमानों को बसने नहीं दिया जाएगा , यह कह कर कि इससे प्रदेश में हिन्दू जनसंख्या के अनुपात बदलने का ख़तरा पैदा हो सकता है । हिन्दुस्तान में योजनाएँ एवं क़ानून हिन्दू मुसलमान को ध्यान में रख कर नहीं बनाए जा सकते । पंजाबियों से कश्मीर में हो रहे इस अन्याय को देखते हुए यदि पंजाब सरकार यह क़ानून बना दे कि पिछले सत्तर सालों में जो कश्मीरी पंजाब में बस गए हैं , उनकी सभी सरकारी सुविधाएँ छीन ली जाएँगीं तो जम्मू कश्मीर के लोगों को निश्चय ही बुरा लगेगा । ऐसा होना भी नहीं चाहिए । लेकिन अपने आप को इसी स्थिति में रखते हुए जम्मू कश्मीर सरकार को भी सोचना चाहिए । जम्मू कश्मीर में स्थाई निवासी होने का क़ानून इसी बीमार मानसिकता में से उपजा है , जिसकी आज के प्रगतिशील और विकासवादी समाज में कोंई जगह नहीं है । सत्तर साल बाद भी कोंई सरकार इन पंजाबी शरणार्थियों को रियासत का स्थाई निवासी होने का प्रमाणपत्र देने का साहस नहीं जुटा पाई । अब महबूबा मुफ़्ती की सरकार उन्हें डोमिसायल यानि एक प्रकार का पहचान पत्र देने के लिए राज़ी हुई है । लेकिन ताज्जुब इसी के विरोध में शेख़ अब्दुल्ला की नस्लों ने श्रीनगर में चीख़ चीख़ कर अपना गला सुखा लिया है । गिलानी, हमदानी, करमानी , खुरासानी सब विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं । यदि इसी प्रकार चलता रहा फिर तो कल इस बात की भी तहक़ीक़ होने लगेगी कि गिलानियों , हमदानियों , खुरासानियों , करमानियों के पूर्वज कब आकर इस घाटी में डट गए थे और यहाँ के कश्मीरियों पर धौंस ज़माने लगे थे । इस लिहाज़ से तो स्थाई निवासी होने की कट डेंट थोड़ा और पीछे खिसक सकती है और ये सभी गिलानी इत्यादि सूची में से बाहर हो जाएँगे ।
लेकिन ताज्जुब तो इस बात का है कि इन गिलानियों के साथ फारुक अब्दुल्ला जैसे कश्मीरी भी मिल गए हैं । वे भी अपनी छातियाँ पीट कर लहू लुहान हो रहे हैं । यह समझ से परे है कि वे सचमुच गिलानियों के साथ हो गए हैं या फिर उनकी भीड़ देख कर भाड़े पर रोने वाले रुदाली रोदन कर रहे हैं । या फिर सत्ता के लालच में कश्मीर से भी धोखा कर रहे हैं ? एक और विधायक हैं , अब्दुल रशीद शेख । किसी पार्टी से ताल्लुक़ नहीं रखते । अपने बलबूते जीतते हैं । गिलानी हमदानी तो पंजाब के शरणार्थियों को डोमिसायल प्रमाण पत्र देने का विरोध कर ही रहे हैं , लेकिन ये शेख़ भी उनके पीछे पीछे हो लिए हैं । इतिहासकार कहते हैं स्वर्ण जातियों के जो हिन्दू इस्लाम मत में शामिल हो गए , वे शेख़ कहलाते हैं । इधर ऊँचे पायदान पर थे तो उधर भी ऊँचे पायदान पर ही बैठेंगे । लेकिन उधर ऊँचे पायदान पर सैयदों का क़ब्ज़ा है । वे सब के सब गिलानी , हमदानी और करमानी हैं । हिन्दू स्वर्णों ने उनके खेमे में जाकर अपने लिए समानान्तर ऊँची कुर्सी तैयार की । यह कुर्सी शेख़ के नाम से प्रसिद्ध हुई । अब समय का फेर देखें ये शेख़ मुसलमान होकर भी अपने ऊँचे दर्जे का घमंड छोड़ नहीं पाए । पश्चिमी पंजाब से आने वाले ज़्यादातर शरणार्थी दलित समाज से ताल्लुक़ रखते हैं , इसलिए शेख़ मंडली इन दलितों को डोमिसायल प्रमाण पत्र देना नहीं चाहती ।
इतना ही नहीं जम्मू कश्मीर में सोनिया कांग्रेस भी इन पंजाबी शरणार्थियों को डोमिसायल प्रमाण पत्र देने के ख़िलाफ़ है । उसका भी मानना है कि इससे रियासत का जनसांख्यिकी अनुपात गड़बड़ा जाएगा । क्या सोनिया कांग्रेस की समझ में जम्मू कश्मीर कोई म्यूज़ियम है जिसमें कोई नई चीज़ रखी नहीं जा सकती ? क्या कांग्रेस ने अपने सिद्धान्तों में यह भी शामिल कर लिया है कि जो सूबा मुस्लिम बहुसंख्यक होगा वहाँ किसी अन्य सम्प्रदाय या मज़हब का आदमी जाकर नहीं बस सकता ? यदि कांग्रेस में यह तय हो चुका है तो निश्चय ही देश और कांग्रेस दोनों के लिए घातक सिद्ध होगा । सैयद अली गिलानी ने तो इसके साथ एक और मुद्दा उठा दिया है । उनका कहना है कि यदि इन पंजाबी शरणार्थियों को डोमिसायल प्रमाण पत्र दिए गए तो हमारी पहचान ख़तरे में पड़ जाएगी । गिलानी की पहचान से इस पूरे मसले का क्या ताल्लुक़ है ? सैयद अली के पूर्वज गिलान से बरास्ता इरान हिन्दुस्तान में आकर बस गए थे , उनकी इस पहचान को पंजाबी शरणार्थी भला कैसे मिटा सकते हैं ? पंजाबी शरणार्थियों को डोमिसायल प्रमाण पत्र मिल जाने से गिलानियों की पहचान पंजाबी तो हो नहीं जाएगी , इतना तो सैयद अली भी जानते होंगे । मीरवायज भी ऐसा ही सोचते हैं कि इससे हमारी पहचान का हर तन्तु ख़तरे में पड़ जाएगा । मीरवायजों की शिनाख्त घाटी का बच्चा बच्चा कर सकता है । मीर सैयद अली हमदानी का कारवाँ हमदान से कश्मीर आया तो मीरवायजों के बुज़ुर्ग भी उनके साथ आए थे । अब इन हमदानियों को भी पंजाबी तो बनाया नहीं जा सकेगा । फिर इन मीरवायजों की पहचान को किस से ख़तरा है ? बेहतर होगा , सरकार अपने क़ानून में संशोधन करें और इन पंजाबी शरणार्थियों को स्थाई निवासी प्रमाण पत्र जारी करे ताकि सात दशकों से चला आ रहा अन्याय समाप्त हो ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here