ग़ुलाम नबी की ग़ुलाम वाणी की पटकथा कौन लिख रहा है ?

ग़ुलाम नबी
ग़ुलाम नबी
ग़ुलाम नबी

-डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

ग़ुलाम नबी जम्मू कश्मीर के रहने वाले हैं । मूलत कश्मीर घाटी से हैं लेकिन उनके पुरखे कभी पीर पंजाल को पार कर जम्मू क्षेत्र में आ बसे थे । कुछ देर के लिए वे जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रहे । काफ़ी लम्बे अरसे से सोनिया कांग्रेस में सक्रिय हैं और अपना शुमार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में करते हैं । सोनिया कांग्रेस ने उन्हें संसद का सदस्य भी बनाया हुआ है । ऐसा माना जाता है कि वे इस पार्टी की अध्यक्षा सोनिया जी के काफ़ी नज़दीक़ हैं । इसलिए वे जो कुछ बोलते हैं , उसे पार्टी की रणनीति का हिस्सा माना जाता है । जब से दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद और जिहादी गतिविधियों का प्रकोप बढ़ा है , तब से ग़ुलाम नबी की चिन्ता बढ़ी हुई है । उनका अपना राज्य जम्मू कश्मीर जिहादी गतिविधियों का सर्वाधिक शिकार है । इसलिए ग़ुलाम नबी की चिन्ता समझी जा सकती है । अनेकों इस्लामी तंजीमें मसलन लश्करे तोयबा, फ़िदायीन , दुख्तराने मिल्ल्त, तालिबान, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह के नारे लगाते हुए निर्दोषों का संहार कर रहे हैं । इधर इन सभी को संगठित करके दुनिया में इस्लाम का परचम फहराने का स्वप्न लेकर एक नया संगठन खड़ा हो गया है जिसका नाम आई एस आई एस है । इस संगठन ने सीरिया और इराक़ के बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर रखा है और अब यह अपने आप को इस्लामी स्टेट कहता है । इस का मानना है कि यह इस्लामी स्टेट सारी दुनिया को इस्लाम में दीक्षित करेगी और बाक़ायदा उस इस्लामी विश्व का एक ख़लीफ़ा होगा । बगदादी ने फ़िलहाल अपने आप को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से समाप्त हो चुके आटोमन साम्राज्य और उसके ख़लीफ़ा की पुनः स्थापना का यह इस्लामी आंदोलन है । अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए यह स्टेट जो तरीक़े इस्तेमाल कर रही है , उसको दोहराने की आवश्यकता नहीं है । बच्चों तक को इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह कहते हुए हत्या के जघन्य काम में लगा दिया गया है । आई एस आई एस के इस आन्दोलन में दुनिया भर से मुस्लिम युवा शामिल हो रहे हैं । भारत से भी कुछ लोग गए हैं और ऐसा माना जाता है कि भारत में नए रंगरूटों की भर्ती के लिए इस संगठन ने अपना जाल फैला दिया है । भारत को तोड़ना और उसे इस्लामी साम्राज्य में शामिल करना इस संगठन के एजेंडा पर है ।
आई एस आई एस की इस रणनीति को देखते हुए ग़ुलाम नबी की चिन्ता इस संगठन को लेकर जायज़ ही कहीं जायेगी । लेकिन प्रश्न यह है कि ग़ुलाम नबी की चिन्ता इस संगठन की बढ़ रही बदनामी को लेकर है या फिर इस संगठन से उत्पन्न ख़तरे को लेकर है ? यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है । इस प्रश्न के उत्तर में ही ग़ुलाम नबी के उस भाषण के तार छिपे हैं जिस को लेकर देश भर में हंगामा वरपा गया है । ग़ुलाम नबी मुसलमानों के एक संगठन ज़मीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के अजलास में शामिल होने के लिए गए थे । उस अजलास में इस मुल्क में मुसलमानों को दरपेश समस्याओं ओर उन्हें दूर करने के तौर तरीक़ों पर विचार हो रहा था । स्वाभाविक है जिहादी तंजीमें इस मुल्क में जो कर रही हैं , उससे आम भारतीय के मन में इन मुस्लिम तंजीमों के बारे में नकारात्मक धारणा बन रही है । अचानक ग़ुलाम नबी ने उस अजलास में खड़े होकर घोषणा की कि वे आई एस आई एस का भी उतना ही विरोध करते हैं जितना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का करते हैं । नीचे बैठे मुसलमानों ने तालियाँ बजाईं । मीडिया ने तुरन्त जुमला चलाया -ग़ुलाम नबी ने आर एस एस की तुलना आई एस आई एस से की है ।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा था ?
ग़ुलाम नबी स्वयं जानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रकृति और कार्यशैली की आई एस से कोई तुलना नहीं है । संघ भारत में राष्ट्रवादी चेतना का प्रतीक है । राष्ट्रवादी चेतना ही भारतीयता का मूलाधार है । लेकिन संघ और भारत की यह राष्ट्रवादी चेतना नकारात्मक और किसी के विरोध में नहीं है । इस का स्वाभाविक विकास समग्र मानवतावादी चेतना में होता है । यूरोपीय देशों की राष्ट्रवादी चेतना संकुचित व परस्पर विरोधी है । इसीलिए वहाँ हिटलर, मुसोलिनी और नैपोलियन का जन्म होता है । फ्रांस, इंग्लैंड स्पेन और पुर्तगाल में इसी राष्ट्रवादी चेतना से साम्राज्यवाद का जन्म होता है जो दूसरी जातियों को ग़ुलाम बनाता है । लेकिन भारत में इस राष्ट्रवादी चेतना से वसुधैव कुटुम्बकम का घोष होता है , जो भारत भूमि में इरानियों, यहूदियों को शरण देता है और इतनी आत्मीयता से देता है कि ये कभी इस देश में अपने आप को अल्पसंख्यक महसूस नहीं करते । लेकिन इसके विपरीत आई एस आई एस एक ऐसी दुनिया की रचना तलवार के ज़ोर पर करना चाहता है जो चिन्तन शून्य हो और उसके लोग तथाकथित ख़लीफ़ा अबू बकर अल बगदादी के इशारों पर रोबोट की तरह चले । भारत उसके निशाने पर है ।
ऐसी स्थिति में ग़ुलाम नबी आई एस की तुलना संघ से करके उसे प्रतिष्ठा क्यों प्रदान करना चाहते हैं ? यह क्या उनका व्यक्तिगत प्रलाप और प्रयास है या फिर सोनिया कांग्रेस की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है ? इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाने की जरुरत पड़ेगी । 2010 में जूलियन असांजे ने विकीलीक्स के लाखों संदेशों को सार्वजनिक कर दिया था । दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के विभिन्न अधिकारियों की भारत के महत्वपूर्ण लोगों से जो बातचीत होती थी , वह वाशिंगटन में वहाँ के विदेश मंत्रालय को भेजी जाती थीं । जब वे सूचनाएँ सार्वजनिक हुईं तो पता चला कि सोनिया कांग्रेस के वर्तमान उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री का पद पा लेने की प्रतीक्षा में व्याकुल राहुल गान्धी ने अमेरिका को बताया था कि हिन्दुस्तान को असली ख़तरा लश्कर-ए-तोयबा से नहीं है बल्कि हिन्दुओं में पैठ बना रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है । सोनिया कांग्रेस की भावी रणनीति का उससे ही संकेत मिलना शुरु हो गया था । उसकी नज़र में इस देश की राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक संघ उनके लिए असली ख़तरा था । यानि इस देश की पहचान , इसकी संस्कृति , इसका संघर्षमय इतिहास ही सोनिया कांग्रेस को सबसे बड़ा ख़तरा दिखाई दे रहा था । लश्करे तोयबा भी भारत की इसी राष्ट्रीय चेतना और उसकी पहचान के ख़िलाफ़ लड़ रहा था । वह भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता है । सोनिया कांग्रेस भी संघ को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती है । शायद राहुल गान्धी को इसी धरातल पर लश्करे तोयवा से समानता नज़र आई होगी ।
लेकिन सोनिया कांग्रेस का दुर्भाग्य यह है कि इस देश के लोग राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को नहीं बल्कि लश्करे तोयवा और दूसरे जिहादी संगठनों को भारत के शत्रु मानते हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक मतभेद हो सकते हैं और वह इस देश की प्रकृति और स्वभाव में ही निहित है । यही इस देश की लोकतांत्रिक चेतना है । लेकिन संघ राष्ट्र घाती है , ऐसा उसके विरोधी भी कहने की हिम्मत नहीं रखते । राष्ट्रविरोधी की श्रेणी में आम भारतीय लश्करे तोयवा , तालिबान ,फ़िदायीन , सिमी और आई एस आई एस को ही मानता है । सोनिया कांग्रेस की रणनीति इस भावना को बदलने की रही है । राहुल गान्धी की अमेरिकी अधिकारियों से बातचीत इसके संकेत देने लगी थी । उसके बाद ही यह रणनीति बनी होगी कि यदि इस्लामी आतंकवाद से लोगों का ध्यान हटाना है तो किसी भी तरह हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को गढ़ना होगा और इतना ही नहीं बल्कि उसको मीडिया की मदद से स्थापित भी करना होगा । इससे भी आगे जाकर मर रहे जिहादी आतंकियों को प्रतिष्ठित करके उन्हें नायक बनाना होगा और उनके प्रति आम जनता में करुणा का भाव पैदा करना होगा ।
इस काम के लिए जो ब्रिगेड बनाई गई उसका नेतृत्व कभी अरसा पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने सँभाला । उन्होंने सोनिया कांग्रेस की रणनीति के अनुरूप हर जगह जिहादी आतंकियों का बचाव किया और उन्हें पुलिस द्वारा मारे गए निर्दोष व्यक्ति घोषित किया गया । इस रणनीति के तहत दिग्विजय ने चिल्लाना शुरु किया कि 26/11 का मुम्बई पर पाकिस्तानी आक्रमण , पाकिस्तानी आतंकवादियों ने नहीं किया था बल्कि यह तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की साज़िश थी । दिग्विजय अपना यह थीसिस देश भर में घूम घूम कर सुनाते रहे । देशवासी तो उनकी इन बातों पर क्या विश्वास करते , लेकिन आतंकवादियों को इससे काफ़ी लाभ हुआ । भारत में सक्रिय इस्लामी जिहादी संगठनों ने भी उच्च स्वरों में शोर मचाना शुरु कर दिया कि उन्हें खाहमखाह बदनाम किया जा रहा है । भारत में आतंक फैलाने का काम तो हिन्दू कर रहे हैं । यहाँ तक कि पाकिस्तान सरकार को भी सोनिया कांग्रेस की इस रणनीति से राहत मिली । उसने भारत में सत्ता की कमान संभाले बैठी सोनिया कांग्रेस के इस वरिष्ठ नेता के बचनों को दुनिया भर में भुनाना शुरु कर दिया । इसके बाद तो एक श्रंृखला ही शुरु हो गई । दिल्ली के बाटला हाऊस में मारे गए आतंकी शहीद घोषित हो गए और उनसे लोहा लेते हुए अपने प्राण न्योछावर कर गया सिपाही मोहन लाल अपराधी मान लिया गया । अहमदाबाद में लश्करे तोयवा की इशरतजहां मासूम छात्रा बन गई और उस लश्करे तोयवा के दस्ते को जान हथेली पर रख कर मारने वाले पुलिस अधिकारी जेलों में सड़ने लगे ।
केरल में जिहादी गतिविधियों में पकड़े गए अब्दुल नासिक मदनी की रिहाई के लिए केरल विधान सभा ने 2006 में ही वाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर दिया था । उसे पारित करवाने में सोनिया कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रही । सोनिया कांग्रेस की रणनीति तभी देशवासियों के सामने स्पष्ट हो गई थी । सत्ताधारी दल ही यदि जिहादी आतंकियों को महिमामंडित करता हुआ उनके पक्ष में खड़ा हो जायेगा तो देश में आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहे सशस्त्र बल निश्चय ही हतोत्साहित होंगे । इसलिए यह प्रश्न भी चर्चा में आ गया कि कहीं सशस्त्र बलों का मनोबल गिराने के लिए ही तो यह सारा काम नहीं किया जा रहा ? 2014 तक आते आते देश में सोनिया कांग्रेस के इस किरदार को लेकर चर्चा ज़ोरों पर थी । बाबा साहिब आम्बेडकर ने मरने से पहले आगाह किया था कि देश आज़ाद तो हो गया है लेकिन देश को तोड़ने वाली ताक़तों से सावधान रहना होगा , नहीं तो देश फिर ग़ुलाम हो सकता है । देश के लोग सावधान हो गए और लोकसभा की लगभग साढ़े पाँच सौ सीटों में से सोनिया कांग्रेस केवल 44 सीटें प्राप्त कर सकी । सोनिया कांग्रेस का सबसे बड़ा कष्ट सत्ता छिन जाने का नहीं था बल्कि देश की सत्ता राष्ट्रवादी ताक़तों के हाथ में आ जाने का था । हिन्दुस्तान में से जिस राष्ट्रवादी चेतना को समाप्त करके सोनिया कांग्रेस इस देश की पहचान को बदलने का प्रयास कर रही थी , उस रणनीति का परिणाम उल्टा हुआ और लोगों ने सत्ता ही राष्ट्रवादी ताक़तों को सौंप दी ।
तब लगता था कि पार्टी के पुराने नेता जो सोनिया गान्धी द्वारा पार्टी पर क़ब्ज़ा करने के पहले से कांग्रेस में सक्रिय हैं , शायद इक्कठे हो जाएँ और पार्टी को अपनी पुरानी मूल लीक पर लाने का प्रयास करेंगे । लेकिन या तो उन्होंने प्रयास नहीं किया या फिर सोनिया गान्धी ने अपनी रणनीति से उनकी चलने नहीं दी । सोनिया कांग्रेस के लिए यदि मामला केवल सत्ता हथियाना होता तो यक़ीनन 2014 के इन चुनाव परिणामों के बाद वह अपनी नीति बदल लेती और जिहादी आतंकियों को महिमामंडित करने और उन्हें जननायक बनाने के प्रयास बन्द कर देती । लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । पार्टी जिहादियों को महिमामंडित करने की अपनी पुरानी रणनीति पर चलती ही नहीं रही बल्कि उसको कुछ दूसरे समूहों के साथ मिल कर और धारदार बनाया । इसका अर्थ यह हुआ कि सोनिया कांग्रेस सत्ता से भी अलग किसी दूसरे एजेंडा की पूर्ति के लिए रणनीति बना रही थी और उसी को सफल बनाने के लिए अपने धुर विरोधियों से भी हाथ मिला रही है । मणिशंकर अय्यर और सलमान ख़ुर्शीद बाक़ायदा पाकिस्तान में जाकर गुहार लगाने लगे कि भारत में से नरेन्द्र मोदी की सत्ता को हटाइए । जिहादियों को महिमामंडित करने का यह मोर्चा तो सोनिया कांग्रेस का है ।
इसी काम में लगा हुआ एक दूसरा मोर्चा भी है । हैदराबाद के ओबैस्सी महाराष्ट्र के लातूर में जाकर अपने हम मज़हब वालों से घिरे झाग उगल रहे हैं- हम भारत माता की जय कभी नहीं बोलेंगे । हमारा जो बिगाड़ना है बिगाड़ कर देख लो । नीचे से उसी प्रकार तालियाँ बज रही हैं जैसी ग़ुलाम नबी आजाद का भाषण सुन कर नीचे बैठे हम मज़हब वाले बजा रहे थे । ओबैस्सी निज़ाम हैदराबाद के रजाकारों की बची जूठन की तरह व्यवहार कर रहे हैं जो रजाकारों के पराजित हो जाने के दर्द को अभी तक सीने में पाले हुए हैं और उसका बदला भारत माता का अपमान करके लेना चाहते हैं । एक तीसरे मचान पर अपने उत्तर प्रदेश के आज़म खान डटे हुए हैं । फ़िलहाल प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार में वरिष्ठ मंत्री हैं । वे संयुक्त राष्ट्र संघ को चिट्ठियाँ लिखते हैं कि भारत में मुसलमानों का रहना मुश्किल हो गया है । लेक सक्सैस में बैठकर तमाशा ही देखते रहोगे या हमारे लिए कुछ करोगे भी ? आज़म खान अच्छी तरह जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ पहले ही भारत सरकार को कहता रहता है कि यह पता करने के लिए कि वहाँ के मुसलमान भारत में रहना चाहते हैं कि नहीं ,जम्मू कश्मीर में रायशुमारी करवाओ । अब आज़म खान पता नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ से हिन्दुस्तान के मुसलमानों के बारे में किस प्रकार की दख़लन्दाज़ी या गारंटी चाहते हैं ? काल की गति ने मध्य एशिया को कमज़ोर कर दिया , नहीं तो हो सकता था आज़म खान सहायता के लिए एक बार फिर समरकन्द में बाबर की नस्लों को तलाश करते ।
अब इन सभी मोर्चों में आपस में समन्वय के प्रयास हो रहे हैं ताकि भारत माता से लड़ाई साँझा मोर्चा बना कर लड़ी जाए । ओबैस्सी कहते हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरा ज़ोर लगा ले , हमारी गर्दन पर छुरी भी रख दे , हम भारत माता की जय नहीं कहेंगे । ग़ुलाम नबी शायद परोक्ष रुप से उसे ही आश्वस्त कर रहे हैं , हम भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का डट कर विरोध करेंगे । इस पूरे परिप्रेक्ष्य में ग़ुलाम नबी आज़ाद के प्रलाप को और राहुल गान्धी द्वारा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में जाकर भारत को तोड़ने की साज़िशें बना रहे गिरोहों के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो जाने को देखना होगा । राहुल गान्धी विश्वविद्यालय में जाकर भारत की संसद पर हमले की रणनीति के सूत्रधार अफ़ज़ल गुरु को जन नायक बनाने की तांत्रिक साधना के साधकों की सफ़ में शामिल होते हैं । याकूब मेमन को शहीद घोषित करने की कोशिश करने वालों के साथ हैदराबाद विश्वविद्यालय में जाकर शामिल हो जाते हैं । इतना ही नहीं अफ़ज़ल गुरु को कंधे पर उठाकर घूम रहे गिरोह की आवाज़ को ही वे हिन्दुस्तान के नौजवानों की आवाज़ बताते हैं । ज़ाहिर है राहुल गान्धी यह सब कुछ हिन्दुस्तान के लोगों को नहीं सुना रहे बल्कि उनके श्रोता दुनिया भर के वे जिहादी हैं जिन्हें भारत में से इस प्रकार के समर्थकों की सबसे ज़्यादा जरुरत है । एक मोर्चा राहुल गान्धी ने संभाला हुआ है तो दूसरे मोर्चे पर सोनिया कांग्रेस ने ग़ुलाम नबी को तैनात किया है । ग़ुलाम नबी की ज़िम्मेदारी राहुल गान्धी से भी ज़्यादा है । राहुल गान्धी को तो केवल अफ़ज़ल गुरु और इशरतजहां को प्रतिष्ठित करना है , लेकिन ग़ुलाम नबी को तो उस आई एस आई एस को प्रतिष्ठा देनी है जिसके अमानवीय कारनामे सारी दुनिया रोज़ टी वी पर देखती है । पर ग़ुलाम नबी भी जीवट के जीव हैं । उन्होंने भी अपनी रणनीति बना ली है । उसकी शुरुआत उन्होंने आई एस आई एस की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से तुलना करके की है । बहुत ही शातिराना हमला है । दुनिया को छिपा हुआ संकेत है । आप आई एस को गालियाँ क्यों देते हो ? उसकी तुलना संघ से करो । यदि संघ देशभक्त है तो आई एस भी है । यही सवाल ग़ुलाम नबी धीरे धीरे इस देश के लोगों से करेंगे । आई एस को क्यों गाली दे रहे हो ? यदि हिन्दुस्तान के कुछ युवा उसके साथ चले जा रहे हैं तो यह उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । लोग संघ के साथ भी तो जा रहे हैं । संघ के साथ जाने की आज़ादी है तो आई एस के साथ जाने की भी होनी चाहिए । इंशा अल्लाह ! इंशा अल्लाह ! सोनिया कांग्रेस किस गुप्त एजेंडा पर काम कर रही है , इसकी जाँच होनी चाहिए । ग़ुलाम नबी तो महज़ उस रणनीति के अनुसार शतरंज की बिसात पर मोहरे चल रहे हैं । लेकिन यह शतरंज की विसात किसने बिछाई है ? इसका भेद पा लेना जरुरी है । आख़िर सोनिया कांग्रेस को आई एस की तुलना संघ से करने की जरुरत क्यों पडी ? ग़ुलाम नबी की ग़ुलाम वाणी की पटकथा कौन लिख रहा है ? ग़ुलामों के पास तो पटकथा को केवल पढ़ देने का अधिकार होता है । एक लडाई लड़नी होगी , ताकि अंग्रेज़ के चले जाने के सात दशक बाद ही सही , उसी की रणनीति पर चलने वाले ग़ुलाम सचमुच आज़ाद हो जाएँ । तब न कोई भारत माता की जय का विरोध करेगा और न ही शातिराना तरीक़े से संघ की तुलना आई एस से करेगा ।

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