बीमार स्वास्थ्य तंत्र का कौन करेगा इलाज

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विगत दिनों गुड़गांव के एक निजी चिकित्सालय ने डेंगू के असफल इलाज के बाद मृतका बच्ची के परिजनों से जब शव देने के पूर्व अठारह लाख रुपए का बिल अदा करने की माँग की तब यह मामला मीडिया द्वारा एक आध दिन समाचारों में स्थान पाने लायक माना गया और स्वास्थ्य मंत्री द्वारा जांच के आश्वासन के बाद इस पर चर्चा बन्द हो गई। किन्तु यह ऐसे उन हजारों मामलों में से एक मामला था जिनमें निजी चिकित्सालयों द्वारा इलाज के लिए ली गई अंधाधुंध रकम ने किसी परिवार को आजीवन गरीबी के गर्त में धकेलने का काम किया हो। टाइम्स ऑफ इंडिया में 21 अगस्त 2016 को प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि मुंबई के हिंदुजा, बॉम्बे,लीलावती, कोकिलाबेन अंबानी, सैफी, ब्रीच कैंडी और सुश्रुत हॉस्पिटल को कैग ने गरीबों को नियमानुसार दी जाने वाली सुविधाओं से वंचित रखने का दोषी पाया जबकि इन सुविधाओं को देने का वादा कर वे विभिन्न छूटों का लाभ उठाते रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस की 30 सितंबर 2016 की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि इलाज में होने वाले खर्चों के कारण उत्पन्न होने वाली गरीबी पिछले 15 वर्षों में दुगनी हो गई है। विभिन्न स्वतंत्र एजेंसीज के सर्वेक्षण के अनुसार इलाज के असाधारण खर्च के कारण हमारे देश में प्रति वर्ष सात करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे चले जाते हैं। स्वास्थ्य व्यय का सत्तर प्रतिशत भाग लोगों को स्वयं वहन करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य सूचकांक में भारत का स्थान 188 देशों में 143 वां है। भारत, स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 प्रतिशत व्यय करता है। जबकि अमेरिका जीडीपी का 8.3 प्रतिशत, चीन 3.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका 4.2 प्रतिशत व्यय करता है। प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर अमेरिका में औसतन 4541 डॉलर, चीन में 407 डॉलर और दक्षिण अफ्रीका में 554 डॉलर व्यय होते हैं किन्तु भारत में एक व्यक्ति पर केवल 80.3 डॉलर खर्च किए जाते हैं। देश में डॉक्टर्स और नर्सेज की भारी कमी है।

देश के स्वास्थ्य मंत्री फरवरी 2015 में राज्यसभा में यह स्वीकारोक्ति कर चुके हैं कि देश में 24 लाख नर्सेज और 14 लाख डॉक्टर्स की कमी है। हम प्रति वर्ष केवल 5500 डॉक्टर तैयार कर पाते हैं। स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स की उपलब्धता तो और कम है। नेशनल हेल्थ मिशन के 2016 के आंकड़े बताते हैं कि शिशु रोग, स्त्री रोग और सर्जरी विशेषज्ञों की उपलब्धता, आवश्यकता की आधी है। ग्रामों में तो स्थिति और भयानक है। देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ है किंतु प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या केवल 85000 है। दिसंबर 2016 में जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इन आंकड़ों का उल्लेख करते हुए स्वास्थ्य सेवाओं की गंभीर स्थिति पर चिंता जाहिर की थी तो ऐसा लगा था कि अब शायद स्थिति में कुछ बदलाव आएगा किन्तु स्थिति बदतर ही हुई है। सरकार द्वारा 15 मार्च 2017 को स्वीकृत की गई नई स्वास्थ्य नीति के लक्ष्यों और उद्देश्यों में उन सारी अच्छी बातों का जोर शोर से उल्लेख तो है जो देश के निराशाजनक स्वास्थ्य परिदृश्य में बदलाव के लिए आवश्यक हैं किंतु इन्हें हासिल करने के लिए जो तरीके अपनाए जाने की वकालत की गई है वे या तो अपर्याप्त और अयथार्थवादी हैं या स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के नाम पर अंधाधुंध निजीकरण को प्रोत्साहित करने वाले हैं। नई स्वास्थ्य नीति स्वास्थ्य को अधिकार का दर्जा नहीं देती। राज्यों की आपत्ति को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया गया है जो यह मानते हैं कि ढांचागत सुविधाओं और संसाधनों के अभाव के कारण वे स्वास्थ्य सेवा को अधिकार के रूप में उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं।

अर्नस्ट एंड यंग के अनुसार यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु हमें जीडीपी का चार प्रतिशत स्वास्थ्य पर व्यय करना होगा किन्तु नई स्वास्थ्य नीति में 2025 तक स्वास्थ्य व्यय को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक पहुंचाने की बात कही गई है जो बिल्कुल नाकाफी होगी। नई स्वास्थ्य नीति स्पेशलाइज्ड ट्रीटमेंट के लिए प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा देने की वकालत करती है। किंतु बिना सशक्त और सक्षम नियंत्रण के निजीकरण,भ्रष्टाचार और लूट को बढ़ावा देगा। हाल ही में हृदय रोग की चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाले स्टंट की कीमतों में कमी को लेकर बड़ी चर्चा हुई थी किन्तु इस कमी के बावजूद एंजियोप्लास्टी खास सस्ती नहीं हुई क्योंकि इसमें प्रयुक्त होने वाले साजो सामान, दवाओं, विशेषज्ञों और हॉस्पिटलाइजेशन चार्जेज आदि में असाधारण वृद्धि निजी अस्पतालों द्वारा कर दी गई। चाहे वह नी रिप्लेसमेंट हो या हिप इम्प्लांट, हर्निया का आपरेशन हो या मोतियाबिंद का या फिर सिजेरियन डिलीवरी हो, कई बार ये निजी चिकित्सालय मरीजों से 10 से 20 गुना शुल्क लेते हैं। यही स्थिति दवाओं और चिकित्सा में प्रयुक्त सामान(सिरिंज, वेन फ़्लान, आई वी सेट, ग्लोव्स आदि आदि) के संबंध में है। विभिन्न कंपनियों द्वारा उत्पादित एक ही दवा की कीमत में तो चौंकाने वाला अंतर है ही किन्तु यदि उत्पादन लागत और विक्रय मूल्य की तुलना करें तो औसतन लागत का तीन से पाँच गुना ग्राहक से वसूला जाता है। गुणवत्ता की बात तो छोड़ ही दें। नवंबर 2016 में विभिन्न राज्यों के ड्रग कंट्रोल आर्गेनाइजेशनस की जांच में देश की 18 प्रमुख कंपनियों की 27 दवाओं को गुणवत्ता विहीन पाया गया था। मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ का खुद का 2017 का सर्वे यह बताता है कि शासकीय चिकित्सालयों की 10 प्रतिशत दवाएं गुणवत्ताविहीन होती हैं। यह मात्रा यथार्थ में और अधिक होगी क्योंकि गुमनाम निजी दवा उत्पादकों की घटिया दवाओं को मनमाने दामों पर खरीदना भ्रष्ट मेडिकल एडमिनिस्ट्रेशन की पुरानी आदत है। स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी का वैश्विक औसत 40 प्रतिशत है जबकि भारत में निजी क्षेत्र की भागीदारी 70 प्रतिशत है। हेल्थकेयर भारत के विशालतम और सबसे तेजी से बढ़ने वाले सेक्टर्स में एक है। हेल्थकेयर इंडस्ट्री का आकार 2020 तक 280 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है। हेल्थकेयर सेक्टर में कॉरपोरेट घरानों की भागीदारी बढ़ती जा रही है। आलीशान और गगनचुम्बी स्पेशलिटी हॉस्पिटल्स की बाढ़ सी आ गई है।

कॉरपोरेट ग्रुप्स की आक्रामक मार्केटिंग के कारण छोटे निजी अस्पतालों का अस्तित्व खतरे में है। कॉरपोरेट हॉस्पिटल्स द्वारा दिए जाने वाले प्रलोभन के कारण निजी और सरकारी चिकित्सक मरीजों को इन तक पहुंचाने वाले एजेंट की भूमिका में आ गए हैं। इन कॉरपोरेट चिकित्सालयों को अनेक विशेषज्ञ, चिकित्सा के मॉल के रूप में व्याख्यायित करते हैं। सामान्य बीमारियों के लिए भी ढेरों प्रकार के महंगे गैरजरूरी टेस्ट और अनेक विशेषज्ञ डॉक्टरों का भारी भरकम फीस के बाद दिया जाने वाला जबरन थोपा गया परामर्श तथा आकर्षक लगने वाला नकली डिस्काउंट, इन चिकित्सालयों की विशेषताएँ हैं। मरीजों को भयभीत कर उन्हें जबरन हॉस्पिटलाइज करने या सर्जिकल प्रोसेस से गुजारने के मामले आम हैं। फिर भी अपने प्रचार प्रसार और ग्लैमर के कारण ये अस्पताल मरीजों के मन में यह आकांक्षा तो उत्पन्न कर ही देते हैं कि वे महंगे वी आई पी इलाज से ही स्वस्थ हो सकते हैं और जितना ज्यादा खर्च होगा उतना ही जल्दी और बढ़िया स्वास्थ्य लाभ मिलेगा। निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के लाखों कर्मचारी उनके प्रबंधन द्वारा किए गए समझौतों के कारण इन कॉरपोरेट चिकित्सालयों की सेवाएं लेने को बाध्य हैं। आयुर्वेद में कॉरपोरेट ग्रुप्स के प्रवेश के बाद भारत को हेल्थ टूरिज्म के लिए आदर्श माना जाने लगा है। इधर बदहाल सरकारी अस्पताल भौतिक और मानवीय संसाधनों की कमी एवं कुप्रबंधन के कारण जिंदगी के बजाए मौत बांट रहे हैं। इन समस्याओं का समाधान नीति आयोग निजीकरण में देख रहा है और उसने जिला चिकित्सालयों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिये प्राइवेट हॉस्पिटलों से जोड़ने की वकालत की है। नीति आयोग का प्रस्ताव है कि जिला चिकित्सालय भवन में प्राइवेट हॉस्पिटलों को 30 वर्ष की लीज पर स्थान देकर अन्य संसाधन भी उपलब्ध कराए जाएं। आयोग का प्रस्ताव यह भी है कि निजी संस्थानों को हॉस्पिटल कैंपस में 60000 वर्ग फुट जमीन उपलब्ध कराई जाए। किन्तु जैसी स्थिति दिख रही है नीति आयोग के ये सुझाव कॉर्पोरेट चिकित्सालयों की मुनाफा संस्कृति और सरकारी अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार का एक जानलेवा कॉकटेल ही बना पाएंगे। किन्तु जब सरकारें लोगों के स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय को अपव्यय मान कर इस पर नियंत्रण करने की वकालत करने लगें तो ऐसे ही समाधान सामने आएंगे। इलाज के खर्च का बोझ उठाने में मदद करने वाली राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को 30000 रुपए का स्वास्थ्य बीमा प्रदान करती है। अपने 9 वषों के इतिहास में कुल 22.4 करोड़ गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लाभार्थियों में से 15 करोड़ को जोड़ने वाली यह योजना कम लोगों तक ही पहुँच पाई है( 5 करोड़ 90 लाख पात्र बीपीएल परिवारों में से 61 प्रतिशत का ही पंजीयन हो पाया है)। ओपीडी में इलाज के खर्चों का भुगतान न करने तथा अपर्याप्त कवर देने के कारण यह अपने उद्देश्य की प्राप्ति में बहुत थोड़ी सी सफलता अर्जित कर सकी है। यह योजना भ्रष्टाचार से बुरी तरह प्रभावित रही है।

उत्तरप्रदेश,छत्तीसगढ़, उत्तराखंड आदि अनेक प्रदेशों में अपात्रों को स्मार्ट कार्ड देने के मामले व्यापक तौर पर सामने आए। छत्तीसगढ़ में 40000 फर्जी स्मार्ट कार्ड पकड़े गए। छत्तीसगढ़ में ही डॉक्टरों, नर्सिंग होमों तथा बीमा कंपनियों की मिली भगत से आरएसबीवाई की राशि की बंदरबाँट करने के ध्येय से हजारों महिलाओं के गर्भाशय अकारण निकाल लिए गए। जब हम यह जानते हैं राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी योजनाओं में 80 प्रतिशत दावों की राशि का भुगतान ऐसे ही निजी चिकित्सालयों को होता है जिनकी किसी न किसी तरह भ्रष्टाचार में भागीदारी रही है तो हमारी चिंता और बढ़ जाती है। यह जनता के पैसे को सरकारी प्रक्रिया द्वारा निजी पूंजीपतियों तक पहुँचाने की अनेकानेक घटनाओं में एक है। अंत में केवल इतना ही कि विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की सफलता का कारण भ्रष्टाचार का न होना या अत्यंत कम होना है। इन देशों में कम से कम पूंजीवादी व्यावसायिक नैतिकता का पालन तो किया जाता है और उपभोक्ता के अधिकारों की एक सीमा तक रक्षा की जाती है। हमारे देश में प्राइवेट सेक्टर की मुनाफाखोरी और गवर्नमेंट सेक्टर के भ्रष्टाचार के कॉम्बिनेशन से कोई जहर ही बन सकता है दवा नहीं और बीमार स्वास्थ्य सेवाओं के इलाज का यह फार्मूला आत्मघाती हो सकता है। डॉ राजू पाण्डेय

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