मालदा पर मौन क्यों

पीयूष द्विवेदी

विगत दिनों हिन्दू महासभा के नेता कमलेश तिवारी ने पैगम्बर मोहम्मद के बारे में कथित तौर पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी, जिसका मुस्लिमों द्वारा भारी विरोध हुआ और परिणामस्वरूप रासुका के तहत कमलेश तिवारी की गिरफ्तारी भी हो गई। लेकिन मुस्लिम समुदाय का आक्रोश इतने से नहीं थमा, वे कमलेश तिवारी की फांसी देने की बेहद अलोकतांत्रिक और विचित्र मांग करने लगे। हद तो तब हो गई कि जब अभी हाल ही में इस फांसी की मांग को लेकर पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में रैली के रूप में लगभग ढाई लाख की संख्या में मुसलमान सड़कों पर उतर पड़े और हिंसक प्रदर्शन मचा दिए। यह रैली मालदा जिले के कालियाचक पुलिस स्‍टेशन के अंतर्गत आने वाले सूरज इलाके में निकाली गई थी। इस दौरान नेशनल हाइवे से गुजर रही बस के साथ रैली में शामिल लोगों की बहस हुई। बाद में भीड़ ने बस पर हमला कर दिया। यात्री किसी तरह वहां से बचकर निकल गए। इसके कुछ देर बाद मालदा से आ रही बीएसएफ की एक गाड़ी में आग लगा दी गई। -इसके बाद थाने में आग लगाने और फिर कई एक घरों में लूटपाट करने जैसे कई गैरकानूनी काम रैली में शामिल लोगों द्वारा किए गए। इस दौरान पुलिस से भीड़ की मुठभेड़ हुई जिसमे गोलियां आदि चलीं और कई लोग घायल भी हुए। लेकिन प्रदर्शनकारियों की संख्या इतनी अधिक थी कि चंद पुलिस वालों के लिए उसे नियंत्रित करना कहीं से आसान नहीं था। बाद में रैपिड एक्शन फ़ोर्स आई और तब जाकर स्थिति कुछ हद तक नियंत्रित हो सकी। स्थानीय एएसपी ने इस विषय में जो कुछ बताया है उसके अनुसार, भीड़ ने पुलिस की वैन और जीप आदि दो दर्जन गाड़ियों में आग लगा दी तथा तमाम पुलिस वालों को पीटा भी। विचार करें तो  इतनी बड़ी भीड़ बिना किसी योजना के तो सड़क पर उतरी नहीं होगी, यह सब सुनियोजित रूप से ही हुआ होगा। अतः सवाल यह है कि ढाई लाख जैसी बड़ी संख्या में भीड़ सड़क पर उतर गई और प्रशासन को कोई खबर क्यों नहीं हुई ? या कहीं ऐसा तो नहीं कि खबर होते हुए भी प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि प्रदर्शनकारी मालदा की सड़कों पर हिंसा का तांडव मचा दें ? बहरहाल, अब जाके स्थिति कुछ हद तक नियंत्रण में है और इस हिंसा के आरोप में कुछेक लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है, लेकिन इतनी बड़ी हिंसात्मक वारदात का होना कहीं न कहीं राज्य की क़ानून व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह तो लगाता ही है। लेकिन दुर्भाग्य कि बंगाल की ममता सरकार इस मामले में अपनी गलती मानने की बजाय येन-केन-प्रकारेण इसके बचाव में लगी है। ये देखते हुए इस मामले में ममता सरकार की भूमिका भी संदिग्ध लगती है और यह अंदेशा प्रबल होता है कि मुस्लिमों के इस उग्र हिंसक प्रदर्शन को नज़रंदाज़ करने के पीछे ममता सरकार का मुस्लिम तुष्टिकरण का मंशा ही काम कर रही है। क्योंकि यह तो तय है कि इतना बड़ा प्रदर्शन बिना राज्य सरकार और प्रशासन की मर्जी के कत्तई नहीं हो सकता।

बहरहाल, इस मालदा प्रकरण पर पश्चिम बंगाल सरकार के अतिरिक्त देश के वो तमाम बुद्धिजीवी जिन्हें अभी कुछ समय पहले तक देश का माहौल एकदम असहिष्णु लग रहा था, भी सवालों के घेरे में हैं। सवाल यह कि विगत दिनों दादरी काण्ड पर जिन बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार लौटाने से लेकर तमाम तरह से अपना विरोध जताते हुए देश में असहिष्णुता के बढ़ने की बात कही थी, उनकी तरफ से  मालदा में हुई इस भारी हिंसा के विरोध में अबतक एक बयान भी क्यों नहीं आया हैं ? इखलाक की हत्या जैसी मालदा की तुलना में काफी छोटी वारदात पर जिन बुद्धिजीवियों को देश का माहौल एकदम असहिष्णु लगने लगा था, मालदा की अत्यंत उग्र और भयानक हिंसा पर उनका मौन रहना तो यही दिखाता है कि असहिष्णुता को लेकर उनके मानदंड पूरी तरह से दोहरे हैं। तिस पर मुस्लिम नेताओं आदि के द्वारा जिस तरह से कमलेश तिवारी का सिर काटने पर इनाम घोषित किए जा रहे हैं, उसपर भी अबतक कुछ समय पहले तक असहिष्णुता से पीड़ित बुद्धिजीवियों में से किसी भी बुद्धिजीवी का न तो कोई बयान आया है और न ही उनकी तरफ से ये सवाल ही उठाया गया है कि ऐसे बयान देने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही ? स्पष्ट होता है कि उन बुद्धिजीवियों विरोध पूरी तरह से पूर्वाग्रह से ग्रस्त और मनोनुकूल अवसर के अधीन है।

वैसे एक सवाल तो मुस्लिम समुदाय पर भी उठता है कि इस समुदाय के लिए देश का संविधान बड़ा है या अपना इस्लाम ? यह सही है कि हमारा संविधान किसीको भी किसी अन्य धर्म के उपासना प्रतीकों आदि पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने का अधिकार नहीं देता, अतः कमलेश तिवारी ने मुहम्मद साहब के विषय में यदि कुछ आपत्तिजनक कहा तो वो गलत है और इसके लिए उनकी गिरफ्तारी भी हुई। लेकिन इसके लिए उन्हें फांसी पर चढ़ाने की मांग करना या उनका सिर काटने पर इनाम जैसी घोषणा करना इस्लाम में जायज हो सकता है, भारतीय संविधान में नहीं। और मुस्लिम समुदाय को यह याद रखना चाहिए कि यह देश संविधान से चलता है, इस्लाम के अमानवीय कायदों से नहीं। अक्सर मुस्लिम समुदाय के नेताओं व व्यक्तियों द्वारा हिन्दू उपासना प्रतीकों पर अभद्र टिप्पणियां करने से लेकर मजाक बनाया आता रहा है, लेकिन हिन्दू न तो कभी उनमे से किसीको फांसी देने की मांग करते हैं और न ही अपनी मांग को मनवाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरकर हिंसा मचाते हैं। एक उदाहरण पर गौर करें तो चित्रकार एमएफ हुसैन ने किसी समय भारतीय देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाए थे, लेकिन ये हिन्दुओं की सहिष्णुता ही थी कि फांसी की बात तो दूर, उनकी गिरफ्तारी तक नहीं हुई। ये अलग बात है कि बाद में अपनी मर्जी से वे देश छोड़कर चले गए और दुनिया में अफवाह फ़ैल गई कि उन्हें भारत में हिन्दूओं से खतरा है, इसलिए वहां से भाग निकले हैं, जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि देश का बहुसंख्य हिन्दू समुदाय देश के संविधान को सर्वोपरि मानता है और इसी कारण हर किसीकी अभिव्यक्ति का सहिष्णुता दिखाते हुए आदर करता है। कहना नहीं होगा कि इस मामले में मुस्लिमों को हिन्दुओं से  सीखना चाहिए और आपने आचरण में सहिष्णुता लाते हुए देश के संविधान का आदर करना चाहिए। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देशों में मुस्लिमों की क्या स्थिति है ? यह देखने पर वे पाएंगे कि मुस्लिम देशों से कहीं अधिक या दुनिया में सबसे अधिक मुस्लिम यदि कहीं सुरक्षित हैं तो वो भारत में हैं। अतः उचित होगा कि वे इस देश और इसके संविधान का आदर करते हुए शांतिपूर्वक रहें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here