वे क्यों चाहते हैं संघ मुक्त भारत?

sangh mukt bharatसंजय द्विवेदी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने ‘संघमुक्त भारत’ का एक नया शिगूफा छोड़कर खुद को चर्चा के केन्द्र में ला दिया है। यह नारा देखने में तो भाजपा के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसा ही लगता है। किन्तु द्वंद्व यह है कि संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है, जिससे आप वोटों के आधार पर उसकी बढ़ती या घटती साख का आकलन कर सकें।

संघ एक ऐसा सांस्कृतिक संगठन है, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी शक्ति का लगातार विस्तार किया है। उसने न सिर्फ अपने जैसे अनेक संगठन खड़े किये बल्कि समाज जीवन के हर क्षेत्र में एक सकारात्मक और सार्थक हस्तक्षेप किया है। नित्य होने वाले सामाजिक, राजनीतिक, मीडिया विमर्शों से दूर रहकर संघ ने चुपचाप अपनी शक्ति का विस्तार किया है और लोगों के मनों में जगह बनाई है। शायद इसीलिये उसे और उसकी शक्ति को राजनीतिक आधार पर आंकना गलत होगा। बावजूद इसके सवाल यह उठता है कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दल भारतीय जनता पार्टी से मुक्त भारत बनाने के बजाय नीतीश कुमार क्यों ‘संघ मुक्त भारत’ बनाना चाहते हैं। उनकी मैदानी जंग तो भाजपा से है पर वे संघ मुक्त भारत चाहते हैं। जाहिर तौर पर उनका निशाना उस विचारधारा पर है, जिसने 1925 में एक संकल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की और आज समाज जीवन के हर क्षेत्र में उसकी प्रभावी उपस्थिति है। भारत के भूगोल के साथ-साथ दुनिया भर में संघ विचार को चाहने और मानने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं। संघ के प्रचारकों के त्याग, आत्मीय कार्य शैली और परिवारों को जोड़कर एक नया समाज बनाने की ललक ने उन्हें तमाम तपस्वियों से ज्यादा आदर समाज में दिलाया है।

अपने राष्ट्रप्रेम, कर्तव्य निष्ठा और परम्परागत राजनीतिक विचारों से अलग एक नई राजनीतिक संस्कृति को गढ़ने और स्थापित करने में भी संघ के स्वयंसेवकों ने सफलता पाई है। भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक सफलतायें और विचार कहीं न कहीं संघ की प्रेरणा से ही बल पाते हैं। राजनीति का पारम्परिक दृष्टिकोण धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और तमाम गढ़े गये विवादों से बल पाता है। किन्तु संघ की कार्यशैली में इन वादों और विवादों का कोई स्थान नहीं है। संघ ने पहले दिन से ही खुद को हिंदु समाज के संगठन का व्रतधारी सांस्कृतिक संगठन घोषित किया। किंतु उसने किसी पंथ से दुराव या संवाद बंद नहीं किया। संघ ने खुद का नाम भी इसीलिये शायद हिंदू स्वयं सेवक संघ के बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा, क्योंकि उसके हिंदुत्व की परिभाषा में वह हर भारतवासी आता है, जिसे अपनी मातृभूमि से प्रेम है और वह उसके लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना से भरा है। इस संघ को आज की राजनीति नहीं समझ सकती। जबकि आजादी के आंदोलन के दौर ने महात्मा गांधी, बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर इसे समझ गये थे। चीन युद्ध के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू भी इस बात को समझ गये थे कि संघ की राष्ट्रभक्ति संदेह से परे है। जबकि पंडित नेहरू के वामपंथी साथी उन दिनों चीन के चेयरमैन माओ की भक्ति में राष्ट्रदोह की सभी सीमायें लांघ चुके थे। इन संदर्भों से पता चलता है कि संघ को देश पर पड़ने वाले संकटों के वक्त ठीक से पहचाना जा सकता है। आज संघ का जो भौगोलिक और वैचारिक विस्तार हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ी बौद्धिक ताकतें या थिंक टैंक नहीं हैं, सिर्फ संघ के द्वारा भारत और उसके मन को समझकर किये गये कार्यों के नाते यह विस्तार मिला है। आज भी संघ एक बेहद प्रगतिशील संगठन है, जिसने नये जमाने के साथ खुद को ढाला और निरंतर बदला है। विचारधारा की यह निरंतरता कहीं से भी उसे एक जड़ संगठन में तब्दील नहीं होने देती। राष्ट्रहित में संघ ने जो कार्य किये हैं उनकी एक लम्बी सूची है। देश पर आये हर संकट पर राष्ट्रीय पक्ष में खड़े होना उसका एक स्वाभाविक विचार है। संघ ने इसी विचारधारा पर आधारित राजनीतिक संस्कृति को स्थापित करने के लिये अपने स्वयंसेवकों को प्रेरित किया। पडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी, अटलबिहारी वाजपेयी, विजयराजे सिंधिया, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, बलराज मधोक से लेकर नरेन्द्र मोदी तक अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनके स्मरण मात्र से राजनीति की एक नई धारा के उत्थान और विकास का पता चलता है। 1925 में प्रारंभ हुई संघ की विचार यात्रा और 1952 में भाजपा की स्थापना, भारतीय समाज जीवन में भारत के मन के अनुसार संस्कृति और राजनीति को स्थापित करने की दिशा में एक बड़ा कदम था। आज जबकि यह भाव यात्रा एक बड़े राजनीतिक बदलाव का कारण बन चुकी है, तो परंपरागत राजनीति के खिलाड़ी घबराये हुये हैं। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति करते आये समाजवादी हों या भारत की भूमि में कुछ भी अच्छा न देख पाने वाले तंग नजर वामपंथी सबकी नजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर टेढ़ी है। इसीलिये वे भाजपा को कम संघ को ज्यादा कोसते हैं। उन्हें लगता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ न हो तो भाजपा को अपने रंग में ढाला जा सकता है। भाजपा भी अन्य राजनीतिक दलों जैसा एक दल हो जाए, अगर उसके पीछे संघ की वैचारिक निष्ठा, चेतना और नैतिक दबाव न हो। जाहिर तौर पर इस वैचारिक युद्ध में संघ ही भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर है क्योंकि संघ जिस वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि की राजनीति देश में स्थापित करना चाहता है, परम्परागत राजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दल इसे समझ भी नहीं सकते। आज की राजनीति में जाति एक बड़ा हथियार है, संघ इसे स्वीकार नहीं करता। अल्पसंख्यकवाद और पांथिक राजनीति इस देश के राजनीतिक दलों का एक बड़ा एजेंडा है, संघ इसे देशतोड़क और समाज को कमजोर करने वाला मानता है। ऐसे अनेक विचार हैं जहां संघ विचार की टकराहट परंपरागत राजनीति के खिलाडि़यों से होती रही है। किंतु आप देखें तो भारत के मन और उसके समाज की गहरी समझ होने के कारण संघ ने अपने विचारों के प्रति हर आयु वर्ग के लोगों को आकर्षित किया है। उसके संगठन राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से बड़ी संख्या में महिलायें आगे बढ़कर काम कर रही हैं। किंतु उसके विरोधी दल, विरोधी विचारक आपको यही बतायेंगे कि संघ में महिलाओं की कोई जगह नहीं है। दलित और आदिवासी समाज के बीच अपने वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठनों के माध्यम से संघ ने जो मैदानी और जमीनी काम किया है उसका मुकाबला सिर्फ जबानी जमा खर्च से सामाजिक परिवर्तन कर दावा करने वाले दल क्या कर पायेंगे। संघ में सेवा एक संस्कार है, मुख्य कर्तव्य है। यहां सेवा कार्य का प्रचार नहीं, एक आत्मीय परिवार का सृजन महत्व का है। अनेक अवसरों पर कुछ फल और कम्बल बांटकर अखबारों में चित्र छपवाने वाली राजनीति इसको नहीं समझ सकती। ऐसे में संघ मुक्त भारत एक हवाई कल्पना है क्योंकि मुक्त उसे किया जा सकता है जो कुछ प्राप्ति के लिये निकला हो। जिन्हें सत्ता, पद और पैसे का मोह हो, उनसे मुक्ति पाई जा सकती है। किंतु जो सिर्फ समाज को प्यार, सेवा, शिक्षा और संस्कार देने के लिये निकले हैं उनसे आप मुक्ति कैसे पा सकते हैं। क्या सेवा, शिक्षा, संस्कार देने वाले लोग किसी भी समाज के लिये अप्रिय हो सकते हैं। भाजपा की राजनीतिक सफलताओं से संघ के विस्तार की समझ मांपने वाले भी अंधेरे मंे हैं। वरना केरल जैसे राज्य में जहां आज भी भाजपा बड़ी राजनीतिक सफलतायें नहीं पा सकी हैं वहां वामपंथी आक्रान्ता किन कारणों से स्वयंसेवकों की हत्यायें कर रहे हैं। निश्चय ही यदि केरल में संघ एक बड़ी शक्ति न होता तो वामपंथियों को खून बहाने की जरूरत नहीं होती।

कुल मिलाकर नीतीश कुमार का संघ मुक्त भारत का सपना एक हवाई नारे के सिवा कुछ नहीं है। अपने राजनीतिक विरोधियों से राजनीतिक हथियारों से लड़ने के बजाय इस प्रकार की नारेबाजी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जिस संगठन को जय प्रकाश नारायण ने आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में हमेशा अपने साथ पाया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में वी.पी.सिंह से लेकर अन्ना हजारे तक ने उसकी शक्ति को महसूस किया। ऐसे राष्ट्रवादी संगठन के प्रति सिर्फ राजनीतिक दुर्भावना से बढ़कर ऐसे बयान थोड़े समय के लिये नीतीश कुमार को चर्चाओं में ला सकते हैं। किंतु इसके कोई बड़े अर्थ नहीं हैं, इसे खुद नीतीश कुमार भी जानते ही होंगे।

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